यह बात जग जाहिर है कि अतीत काल में भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। देश सोने की चिड़िया के रूप में सृदृढ़, संपन्न एवं सर्व दृष्टि से सक्षम था। सम्राट विक्रमादित्य, चंद्रगुप्त मौर्य एवं अन्य समकालीन शासकों के कार्यकाल को भारत के लिए स्वर्णिम काल कहा जा सकता है किंतु कालांतर में सातवीं सदी में जब विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत में प्रवेश किया तो भारत के स्वर्णिम काल को ग्रहण लगना शुरू हो गया। इन मुस्लिम आक्रांताओं ने भारत को न सिर्फ जमकर लूटा अपितु भारत की सभ्यता-संस्कृति को भी तहस-नहस करने का कार्य किया।
मुस्लिम आक्रांताओं ने कर व्यवस्था के नाम पर सर्वप्रथम 7वीं सदी में जजिया कर लगाया। भारत पर जजिया कर लगाने वाला सबसे पहला शासक मोहम्मद बिन कासिम था। यह कर उसने 712 ईस्वी में सिंध पर विजय के बाद लगाया था। फिरोज तुगलक ने तो एक कदम और आगे बढ़ते हुए ब्राह्मणों पर भी कर लगा दिया। मुगल शासक अकबर ने 1564 में जजिया कर को समाप्त कर दिया किंतु कालांतर में मुगल शासक औरंगजेब ने पुनः जजिया कर लगाया। जजिया कर को यदि परिभाषित किया जाये तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि यह एक प्रकार का धार्मिक कर था, इसे मुस्लिम राज्य में रहने वाले गैर मुस्लिमों से वसूला जाता था, क्योंकि उस समय इस्लामिक राज्यों में सिर्फ मुसलमानों को ही रहने की इजाजत थी। इस्लामिक राज्य में गैर मुस्लिम जजिया कर देकर अपने धर्म का पालन कर सकते थे।
राज्य को चलाने के लिए करों की दृष्टि से यदि भारत के अतीत की बात की जाये तो आय का प्रमुख स्रोत आय पर लगाया जाने वाला कर था। यह हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित है। इसे ‘अर्थशास्त्र’ पाठ में उल्लिखित कराधान व्यवस्था में देखा जा सकता है। यह व्यवस्था तकरीबन 2300 साल पहले की है। ‘अर्थशास्त्र’ के अनुसार राजा का यह कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजा के बड़े हिस्से से कर वसूल करे जिससे अपनी प्रजा की रक्षा कर सके किंतु यह प्रजा की कुल आय का 1/6 भाग तक या उससे कम भी हो सकता है। यदि राज्य ने बांध और नहरों जैसे कृषि बुनियादी ढांचे का विकास किया है तो कर की राशि थोड़ी और बढ़ाई जा सकती है। यदि राज्य किसी आपात काल स्थिति में आ जाये तो भी कर 1/4 भाग से अधिक नहीं होना चाहिए। वेश्या वृत्ति, जुआ आदि जैसी निषिद्व गतिविधियों पर 50 प्रतिशत तक के करों के प्रावधान थे।
यह सब लिखने के पीछे मेरा आशय मात्र इस बात से है कि जब 2300 वर्ष पूर्व भी कर के नियम एवं सिद्धांत थे तो आज के पूर्ण रूप से संवैधानिक युग में भी ‘हलाल’ सर्टिफिकेट बिना सरकारी नियमों एवं कायदे-कानूनों के कैसे बांटे जा सकते हैं। जब सर्वदृष्टि से यह स्पष्ट है कि देश संवैधानिक नियमों के मुताबिक चलेगा, चाहे वह किसी भी प्रकार की व्यवस्था हो। ऐसी स्थिति में भी यदि चेन्नई की हलाल इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली की जमीयत उलेमा-ए-हिंद, मुंबई की हलाल काउंसिल आफ इंडिया और जमीयत उलेमा महाराष्ट्र के साथ-साथ अन्य कंपनियों के द्वारा किस हैसियत और कितनी वसूली से हलाल सर्टिफिकेट दिये जा रहे हैं।
हलाल सर्टिफिकेट (Halal Certificate) का मामला वर्तमान समय में अत्यधिक चर्चा का विषय इसलिए बना है क्योंकि अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा हलाल प्रमाणन पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस प्रतिबंध के बाद हलाल कारोबार का मामला पूरी तरह सतह पर आ गया है। इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्राचीन काल से लेकर मुगलों एवं अंग्रेजी शासन के दौरान भी कर निर्धारण की विधिवत एक व्यवस्था रही है तो इस दौर में भी निजी कंपनियों द्वारा हलाल सर्टिफिकेट बांटा जाना भारतीय संवैधानिक व्यवस्था को सीधे-सीधे चुनौती है। यदि किसी विशेष परिस्थिति में इस प्रकार की व्यवस्था आवश्यक है तो भी सर्टिफिकेट देने का काम भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण यानी एफ.एस.एस.ए.आई. को करना चाहिए न कि किसी प्राइवेट एजेंसी को।
क्रमबद्ध तरीके से कर व्यवस्था की यदि बात की जाये तो भारत के सोने की चिड़िया वाले काल, इसके बाद मुगलों के समय जजिया कर एवं अन्य करों के बाद जब ब्रिटिश भारत में आये तो उन्होंने कर की एक नयी व्यवस्था का ईजाद किया। दरअसल, जो कर व्यवस्था ब्रिटिश काल में विकसित हुई, उसकी जड़ें कहीं न कहीं सम्राट अकबर के कार्यकाल से जुड़ी हुई है। गौरतलब है कि सम्राट अकबर ने 1580 में जजिया कर को समाप्त कर ‘जागीरदार’ नामक एक मध्यस्थ इकाई को औपचारिक रूप दिया जिसके पास न्यायिक और कर संग्रह दोनों अधिकार थे। सम्राट अकबर के शासन के दौरान विभिन्न फसलों के औसत उत्पादन, भूमि की गुणवत्ता के साथ-साथ पिछले दस वर्षों में प्रचलित औसत कीमतों के आधार पर किसानों की आय की वैज्ञानिक गणना के बारे में व्यापक दस्तावेज रखे गये थे।
कालांतर में जागीरदारी प्रणाली को अंग्रेजों द्वारा ‘जमींदारी’ प्रणाली में बदल दिया गया लेकिन न्यायिक शक्ति के बिना। कई कराधान प्रथाओं के साथ प्रयोग करने के बाद अंग्रेंजों ने 1922 में एक व्यापक कानून पेश किया जिसने कृषि कर को राज्य के विषय के रूप में परिभाषित किया और इसे स्वतंत्रता के बाद हमारे संविधान संस्थापकों द्वारा अपनाया गया था। गौरतलब है कि भारतीय संविधान की धारा 269 के तहत कृषि आय पर कर लगाने का आधार राज्यों के पास आज भी है किंतु अभी तक कोई भी राज्य कृषि पर कर लगाने का साहस जुटा नहीं पाया है। स्वतंत्रता के समय कृषि उद्योग का भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 54 प्रतिशत का योगदान था और लगभग 75 प्रतिशत जनसंख्या इसी पर निर्भर थी।
करों की दृष्टि से वर्तमान व्यवस्था की बात की जाये तो सभी करों को समावेशित करते हुए जी.एस.टी. (वैट- गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स) की व्यवस्था है। चूंकि, हमारा कर संग्रह इतना कम है कि सरकार कुछ वस्तुओं को विलासिता के सामान घोषित करने के लिए मजबूर है, जबकि तमाम देशों में उन्हें बुनियादी आवश्यकताओं के रूप में माना जाता है। दो पहिया वाहन, एयर कंडीशनर, वाशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर उन 227 वस्तुओं में से हैं जिन पर जी.एस.टी. की दर 28 प्रतिशत है। इस बढ़े हुए कर के कारण कुछ ऊच्च कर दाताओं ने अपने देश की नागरिकता छोड़ अन्य देशों की नागरिकता ले ली है। इस संबंध में महत्वपूर्ण बात यह है कि प्राचीन भारत के अर्थशास्त्र के नियमों के मुताबिक व्यक्तियों को उनकी आय के 17 प्रतिशत से अधिक कर लगाने से करदाता को पीड़ा होती है और इसका परिणाम कर चोरी और भ्रष्टाचार होता है। कर की दृष्टि से यदि देखा जाये तो सिंगापुर जैसे सर्वदृष्टि से संपन्न देश में सबसे ज्यादा दर 22 प्रतिशत आयकर की है और सात प्रतिशत जीएसटी की है।
यह सब लिखने का मेरा आशय यह है कि जहां अधिक कर लगने से भारतीय करदाता परेशान हैं और सरकार राजस्व बढ़ाने के लिए अधिक टैक्स लगाने को मजबूर है, ऐसी स्थिति में भी भारत से ‘हलाल कारोबार’ के नाम पर अच्छी-खासी रकम विदेशों में जाये तो इसे एक षड्यंत्र ही कहा जा सकता है। इस कारोबार को भी ठीक उसी रूप में लिया जा सकता है, जैसे स्वर्णिम काल से पहले भारत को विदेशी आक्रांताओं ने लूटा, उसके बाद मुस्लिम शासकों ने अपनी मौज-मस्ती के लिए जनता पर बेहिसाब करों का बोझ डाला फिर उसके बाद अपने दो सौ वर्षों के शासन काल में अंग्रेजों ने बेतहाशा लूटकर भारत को खोखला कर दिया। एक अनुमान के अनुसार अंग्रेजों ने भारत से करीब 45 हजार करोड़ अमेरिकी डालर से अधिक की रकम भारत से लूटा। इतना सब कुछ देखने, सुनने एवं झेलने के बाद हम यदि आज भी किसी अन्य तरीके से लूटे जा रहे हैं तो इसे एक षड्यंत्र मानकर तुरंत संभलने की आवश्यकता है। इतिहास हमें अपने अतीत से सबक लेने की प्रेरणा देता है।
अब हमें यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर हलाल होता क्या है? दरअसल, जिस जानवर को जिबह करके मारा जाता है, उसके मांस को हलाल कहा जाता है। जिबह करने का मतलब यह होता है कि जानवर के गले को पूरी तरह काटने की बजाय उसे रेत दिया जाता है, जिसके बाद उसके शरीर का सारा खून बाहर निकल जाता है। ऐसे ही जानवरों के मांस को हलाल मीट वाला सर्टिफिकेट मिलता है। अब यह भी जान लेना जरूरी है कि ये हलाल सर्टिफिकेशन क्या होता है? हलाल सर्टिफिकेशन को ऐसे समझा जा सकता है कि ऐसे उत्पाद जिन्हें मुस्लिम समुदाय के लोग अधिक इस्तेमाल करते हैं।
सर्टिफाइड होने का मतलब है कि मुस्लिम समुदाय के लोग ऐसे उत्पाद को बिना किसी संकोच के खा सकते हैं। हलाल सर्टिफिकेशन की बात की जाये तो 1974 में भारत में हलाल सर्टिफिकेशन की शुरुआत हुई थी। यह भी जान लेना अति आवश्यक है कि भारत में हलाल सर्टिफिकेशन के लिए कोई सरकारी संस्था नहीं है। कई प्राइवेट कंपनियां और संस्थाएं ऐसे सर्टिफिकेशन को जारी करती हैं। आरोप यह लग रहा है कि हलाल कारोबार को बढ़ावा देने के लिए ऐसे उत्पाद पर भी सर्टिफिकेट जारी किये जा रहे हैं जिन्हें तमाम लोग रोजाना इस्तेमाल करते हैं। इस संबंध में उत्तर प्रदेश सरकार का कहना है कि सिर्फ मीट की बिक्री पर ही ऐसे सर्टिफिकेट की जरूरत है। तमाम पैकेज्ड फूड पर हलाल सर्टिफिकेट की जरूरत
नहीं है।
वैसे देखा जाये तो ऐसा भी नहीं है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाये जाने से पहले यह मामला प्रकाश में नहीं आया था। दरअसल, यह मामला उस समय भी चर्चा में आया था जब पिछले वर्ष कर्नाटक विधानसभा में हलाल उत्पादों पर पाबंदी के लिए एक निजी विधेयक लाया गया था। चूंकि, वह एक निजी विधेयक था, इसलिए पारित नहीं हो सका। वैसे, देखा जाये तो हलाल उत्पादों को लेकर भारत के बाहर भी समय-समय पर बहस होती रही है। कुछ यूरोपीय देशों, जैसे कि जर्मनी, ग्रीस, बेल्जियम आदि ने जानवरों को हलाल करने पर प्रतिबंध लगा दिया है क्योंकि जानवरों को हलाल करने का तरीका बेहद पीड़ादायी होता है।
कोई वक्त ऐसा था जब हलाल के दायरे में केवल मांस आता था, किंतु धीरे-धीरे अब मांस के साथ मांस जनित उत्पाद, सौंदर्य प्रसाधन सामग्री और दवाएं भी आने लगी हैं जिनमें एल्कोहल का उपयोग होता है। धीरे-धीरे हलाल उत्पादों का दायरा बढ़ने लगा और उनमें शाकाहारी उत्पाद जैसे कि दाल, चावल, आटा, मैदा, शहद, चायपत्ती, बिस्किट और मसाले आदि भी आने लगे। इसके बाद साबुन, टूथपेस्ट जैसे उत्पाद भी उसके दायरे में आ गये। अब तो हालात कारोबार यहां तक पहुंच गया है कि हलाल फ्लैट भी बनने लगे हैं। अब तो सिर्फ हवा-पानी को ही हलाल और हराम घोषित करना शेष रह गया है।
अब सवाल यह उठता है कि जो कंपनियां हलाल सर्टिफिकेट दे रही हैं उन्हें यह अधिकार किसने दिया? इसका तो सीधे-सीधे अभिप्राय यह हुआ कि हलाल सर्टिफिकेट देने वाली कंपनियों की तरफ से एक समानांतर अर्थव्यवस्था चलाने की छूट दी गई है। भविष्य में यह भी मांग हो सकती है कि कंपनियां अपने उत्पादों के बारे में यह भी बतायें कि उन्हें सात्विक तरीके से बनाया गया है या नहीं।
जो लोग हलाल कारोबार के विरुद्ध मुहिम चला रहे हैं, उनका स्पष्ट तौर पर कहना है कि आखिर उन्हें अन्य मजहबी रीति-रिवाजों से तैयार उत्पादों का उपयोग करने के लिए क्यों विवश किया जा रहा है? इसके साथ ही यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक है कि आखिर शाकाहारी उत्पादों को हलाल घोषित करने का औचित्य क्या है? हलाल प्रमाणन की प्रक्रिया एक देश-दो विधान वाली तो है ही, साथ ही संवैधानिक मूल्यों के विरुद्ध भी है। यह व्यवस्था तो ठीक वैसी ही है जैसी हफ्ता वसूली की होती है। इस प्रकार तो भविष्य में कोई भी अपनी समानांतर व्यवस्था कायम कर वसूली करने की कोशिश कर सकता है।
इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे सरकारी राजस्व में कितनी वृद्धि हो रही है? जो कंपनियां हलाल सर्टिफिकेट दे रही हैं, उनका सरकारी राजस्व बढ़ाने में क्या योगदान है? एक तरफ तो सरकार राजस्व बढ़ाने के लिए तरह-तरह के उत्पादों को कर के दायरे में लाती जा रही हैं, दूसरी तरफ हलाल कारोबार के नाम पर कुछ कंपनियों को चोखा धंधा मिला हुआ है।
अपने देश में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किस-किस तरह के खेल चल रहे हैं, इससे हर भारतीय को अवगत होना चाहिए और इसके खिलाफ जन जागरण अभियान चलाया जाना चाहिए। आज स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि हलाल उत्पादों के बढ़ने के कारण अपने उत्पादों का निर्यात करने वाली हर भारतीय कंपनी को हलाल सर्टिफिकेट लेना ही पड़ता है। इस संबंध में एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इस्लामी देशों में हलाल सर्टिफिकेट देने का काम सरकारी एजेंसियां करती हैं जबकि भारत में वही काम इस्लामिक संगठनों ने अपने हाथ में ले रखा है।
वक्त के मुताबिक चूंकि अब हर किस्म के उत्पादों का हलाल प्रमाण आवश्यक होता जा रहा है, इसीलिए जड़ी-बूटियों से बनने वाली आयुर्वेदिक दवाओं को भी यह प्रमाण पत्र लेना पड़ता है। यह सिलसिला यदि यूं ही चलता रहा तो कोई ऐसा उत्पाद नहीं बचेगा जिसे हलाल सर्टिफिकेट नहीं लेना पड़े। इस संबंध में दाद देनी होगी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ जी की जिन्होंने इस कारोबार को प्रतिबंधित करने का कार्य किया और अधिक जागरूकता का परिचय दिया। इस प्रकार का प्रतिबंध राष्ट्रीय स्तर पर भी लगना चाहिए और देश में कोई भी ऐसा काम नहीं होने देना चाहिए जो संविधान के दायरे में न हो। जाहिर सी बात है कि जब संवैधानिक व्यवस्था की अवहेलना होगी तो अराजकता पैदा होगी। इस स्थिति से बचने के लिए तत्काल सतर्क होने की जरूरत है और यह कार्य जितनी जल्दी हो जाये, उतना ही अच्छा होगा, अन्यथा यह एक ऐसे बड़े षड्यंत्र का रूप ले लेगा जो भारत की आजादी और संविधान को तहस-नहस कर सकता है। इससे हमें समय रहते अत्यंत सावधान रहने की आवश्यकता है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर) (पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव, भा.ज.पा.)