कांवड़ यात्रा उत्तर भारत का एक सबसे विशेष उमंग, उत्साह और आस्था से भरपूर उत्सव है जिसमें सबसे अधिक ऐसे युवा महिलाएं, पुरुष और बच्चे भाग लेते हैं जो लगातार करीब 100 से लेकर 200 या फिर 300 किमी तक पैदल चलने का अपना अनुभव और आत्मबल दिखा सके। आज भले ही इसमें आधुनिकता को जोड़ दिया गया है लेकिन, यह पर्व अनंतकाल से लेकर आज तक भी पौराणिक तथ्यों के आधार पर ही चलता आ रहा है।
कांवड़ यात्रा से जुड़े पौराणिक तथ्य बताते हैं कि इसकी शुरूआत आज से लाखों वर्ष पहले शुरू हुई थी। और यह कोई मनगढ़ंत या किसी पश्चिमी थ्यौरी पर आधारित यानी ‘मैथालाजी’ वगैरह नहीं बल्कि ‘समुद्र मंथन’ से जुड़ी एक ऐसी सत्य घटना के आधार पर प्रारंभ हुई थी जिसका उल्लेख हमारे पौराणिक ग्रंथों में विस्तार से मिलता है।
पौराणिक तथ्यों के अनुसार, समुद्र मंथन से निकले विष को पीने के बाद भगवान शिव का कंठ न सिर्फ नीला हो गया था बल्कि उस विष का नकारात्मक प्रभाव भी होने लगा था। भगवान शिव को विष के उस नकारात्मक प्रभाव से मुक्त कराने के लिए देवताओं ने कई पवित्र नदियों और विशेष कर गंगा नदी से जल लाकर उनका जलाभिषेक किया, तब जाकर उस विष का नकारात्मक प्रभाव समाप्त हुआ। लेकिन, भगवान शिव के कंठ का कुछ भाग नीला ही रह गया, जिसके कारण वहीं से भगवान शंकर नीलकंठ महादेव भी कहलाए और यहीं से कांवड़ यात्रा की परंपरा भी प्रारंभ हुई थी।
हालांकि, हमें पौराणिक तथ्य यह भी बताते हैं कि कांवड़ यात्रा की शुरूआत सर्वप्रथम त्रेता युग में श्रवण कुमार ने की थी। इसके अलावा हमें इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि कांवड़ यात्रा के द्वारा लाये गये जल से रावण ने भी भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। हालांकि, कुछ लोग मानते हैं कि कांवड़ की शुरूआत सर्वप्रथम भगवान परशुराम ने की थी जो कि श्रवण कुमार, भगवान राम और रावण से भी पहले की बात है। लेकिन, सबसे अधिक हमें देवताओं के द्वारा कई पवित्र नदियों से जल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करने का उल्लेख मिलता है।
कई प्रसिद्ध विद्वानों का मानना है कि परशुराम जी ने उत्तर प्रदेश के बागपत में स्थित ‘पुरा महादेव’ जी के मंदिर में कांवड़ के जल से महादेव का जलाभिषेक किया था और उस समय वह जल वे गढ़मुक्तेश्वर से गंगा नदी का जल लेकर आये थे। इसी के बाद से इस कांवड़ यात्रा की परंपरागत और नियमित शुरूआत को माना जाता है। आज भी उसी परंपरा का पालन करते हुए हजारों-लाखों सनातनी श्रद्धालु प्रति वर्ष सावन के महीने में गढ़मुक्तेश्वर के ब्रजघाट से गंगाजल लाकर उसी अति प्राचीन ‘पुरा महादेव’ मंदिर में जलाभिषेक करते हुए उस परंपरा का पालन करते हुए देखे जा सकते हैं।
इसके अलावा अगर हम देश के अन्य क्षेत्रों की बात करें तो प्रति वर्ष सावन के महीने में देश की कई नदियों के पवित्र जल से अलग-अलग स्थानों के देवालयों में हजारों-लाखों ही नहीं बल्कि देशभर में करीब ढाई से तीन करोड़ सनातनी श्रद्धालु प्रति वर्ष अपने आस-पास के महादेव मंदिरों में जलाभिषेक करते हुए देखे जा सकते हैं।
कांवड़ यात्रा से जुड़े अन्य अनेकों प्रकार के पौराणिक तथ्यों और जानकारों को आधार माने तो उनमें हमें भगवान राम से जुड़े तथ्य भी देखने को मिलते हैं जिनके अनुसार भगवान राम ने भी कांवड़ के जल से भगवान शिव का जलाभिषेक किया था। और यह जलाभिषेक उन्होंने वर्तमान में बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ से जल ले जाकर बाबाधाम के शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।
हालांकि, इसमें हमें भगवान राम से पहले यानी श्रवण कुमार के द्वारा भी कांवड़ यात्रा के बारे में कई बार उल्लेख मिलता है। लेकिन, इसमें हमें श्रवण कुमार के द्वारा भगवान शिव के जलाभिषेक का उल्लेख नहीं मिलता बल्कि कांवड़ यात्रा के तौर पर श्रवण कुमार के द्वारा अपने माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराने के बारे में वर्णन मिलता है। क्योंकि श्रवण कुमार के माता-पिता दोनों ही अंधे थे इसलिए श्रवण कुमार ने उन्हें गंगा स्नान के लिए ले जाने के लिए साधन के तौर पर कांवड़ का प्रयोग किया था।
श्रवण कुमार ने अपने माता-पिता को एक कांवड़ में बैठाकर मायापुरी यानी हरिद्वार लेजाकर गंगा स्नान करवाया था, और वापसी में अपने साथ वे जो गंगाजल भी ले गए थे। उस जल से उन्होंने वहां एक शिव मंदिर में जलाभिषेक किया था, जिसके बाद से कावड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है। कुछ जानकार मानते हैं कि इसी के बाद से कांवड़ यात्रा की नियमित परंपरा की शुरूआत हुइ थी।
प्रति वर्ष सावन मास में मनाया जाने वाला कांवड़ यात्रा पर्व एक पवित्र पौराणिक महत्व का पर्व है। कहा जाता है कि श्रावण मास में भगवान शिव बहुत जल्दी प्रसन्न हो जाते हैं इसलिए इस माह में हर कोई भगवान शिव का जलाभिषेक कर उन्हें प्रसन्न करने के लिए तत्पर रहता है।
जहां एक तरफ सावन मास में पड़ने वाली शिवरात्रि पर ही कांवड़ यात्रा के जल से भगवान शिव का जलाभिषेक करने का विशेष महत्व है वहीं, बिहार और झारखंड में सुल्तानगंज से देवघर तक करीब 100 किमी की यह यात्रा कांवड़ियों द्वारा वर्षभर की जाती है। कई स्थानों पर इसे ‘जल यात्रा’ के नाम से भी पहचाना जाता है। कांवड़ यात्रा में केवल पुरुष ही नहीं बल्कि पैदल चलने में सक्षम महिलाएं और बच्चे भी उत्साहपूर्वक हिस्सा लेते हैं और सैकड़ों किलोमीटर तक कांवड़ का जल लेकर पैदल चलते हुए देखे जा सकते हैं।
कांवड़ यात्रा को लेकर अगर हम हजारों वर्ष पुराने अखण्ड भारत के उस दौर की बात करें तो कांवड़ यात्रा का यह पर्व उन दिनों कुछ अलग ही उत्साह से मनाया जाता था लेकिन, आधुनिक दौर में यह न सिर्फ सिमट चुका है बल्कि आधुनिकता की भेंट भी चढ़ चुका है। बावजुद इसके अब भी कई क्षेत्रों में, और मुख्य रूप से उत्तराखंड में गंगोत्री और गौमुख के बाद हरिद्वार में स्थित हर की पौढ़ी से जल ले कर आसपास के करीब 200 से 300 किमी दूर तक के क्षेत्रों प्रसिद्ध मंदिरों में जलाभिषेक किया जाता है।
इसके अलावा मध्य प्रदेश में नर्मना नदी के जल से भी दूर-दूर के शिव मंदिरों में कांवड़ यात्रा के द्वारा जलाभिषेक किया जाता है। जबकि बिहार और झारखंड में रहने वाले सनातन प्रेमियों के लिए यह हमेशा ही एक परंपरा और उत्साह का माहौल बना रहता है।
भले ही आज कुछ आराजक तत्वों ने कांवड़ यात्रा को अपमानित और बदनाम करने के लिए षड्यंत्र रचने प्रारंभ कर दिये हैं। लेकिन, कांवड़ के द्वारा भगवान शिव का जलाभिषेक करने को लेकर श्रद्धालुओं के उत्साह और भक्ति को देखकर लगता है कि आज भी हिंदू धर्म में आस्था और परंपरा को मानने वालों की कमी नहीं है।
– अजय सिंह चौहान