वर्तमान परिस्थितियों में देखा जाये तो सोशल मीडिया की सक्रियता और उसके माध्यम से प्रचार-प्रसार की संभावनाओं की वजह से कार्यक्रमों की संख्या अनवरत बढ़ती ही जा रही है। कार्यक्रमों की संख्या निरंतर बढ़ते रहना तो बेहद अच्छी बात है, क्योंकि इन कार्यक्रमों के द्वारा समाज में सक्रियता बढ़ती है, लोगों का आपस में एक दूसरे से मेल-जोल बढ़ता है तथा साथ ही साथ इससे सामाजिक समरसता भी प्रबल होती है किंतु इस मामले में अकसर देखा जाता है कि यदि किसी विशेष ध्येय को लेकर कोई कार्यक्रम किया जाता है तो उसका मूल ध्येय परिवर्तित होकर किसी अन्य दिशा में चला जाता है। कहने का आशय यह है कि कार्यक्रम का स्वरूप होता कुछ और है और हो जाता है कुछ और। इस विषय में एक बात यह भी कही जाती है कि कार्यक्रम का स्वरूप परिवर्तित होने में अनेक प्रकार की परिस्थितियां जिम्मेदार होती हैं। बहरहाल, मेरा आशय मात्र इस बात से है कि ‘जैसा हो विषय, वैसा ही हो कार्यक्रम।’
कार्यक्रमों की बात की जाये तो सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक, शहरी, ग्रामीण, आदिवासी, वनवासी, महिला, दिव्यांग या किसी अन्य विषय पर केंद्रित करके कार्यक्रम किये जायें तो उसमें इस बात का विशेष रूप से ध्यान दिया जाये कि कार्यक्रमों की मंशा वही प्रदर्शित होनी चाहिए जो उसकी विषय वस्तु हो। उदाहरण के तौर पर यदि कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम हो और उसमें राजनीतिक बातें अधिक हो जायें तो उस कार्यक्रम का कोई औचित्य नहीं रह जाता है क्योंकि उस कार्यक्रम में आने वाले अधिकांश लोग कार्यक्रम की भावना को ध्यान में ही रखकर सम्मिलित होते हैं किंतु जब ऐसा नहीं हो पाता है तो कार्यक्रम में सम्मिलित होने वालों को निराशा ही हाथ लगती है। इससे आयोजकों को फायदा होने के बजाय नुकसान अधिक होने की संभावना बन जाती है।
आजकल देखने में आ रहा है कि सेवा के नाम पर प्रतीकात्मक सेवा करने वाले समाजसेवियों की बाढ़ आ गई है। खैर, मैं इस प्रवृत्ति को भी अच्छा ही मानती हूं कि ‘कुछ नहीं से तो कुछ करते रहने की भावना उचित ही होती है।’ वैसे भी, अपने समाज में एक कहावत प्रचलित है कि ‘देखा-देखी पाप और देखा-देखी धरम’ यानी देख कर अच्छे कार्य भी होते हैं और बुरे कार्य भी। अतः प्रतीकात्मक कार्यों का भी अपना लाभ होता है। हालांकि, प्रतीकात्मक सेवा या कार्य करने वालों का अपना एक उद्देश्य भी होता है। उसी के बहाने उन्हें कार्यक्रम की फोटो बनानी होती है और वह फोटो प्रतीकात्मक सेवा करने वालों को जहां बुलाते हैं, किंतु इस संबंध में एक बात का विशेष रूप से ध्यान रखने की आवश्यकता होती है कि कार्यक्रम का स्वरूप वही हो, जो उस कार्यक्रम की मूल भावना हो।
अकसर देखने में आता है कि राजनीतिक लोग अपने को सर्वत्र चमकाने के लिए एक सोची-समझी रणनीति के तहत अधिकांश कार्यक्रमों में घुसने की कोशिश करते हैं। जब वे किसी कार्यक्रम में विधिवत प्रवेश कर लेते हैं तो वे वही करते हैं जो उन्हें करना होता है यानी वे अपनी उपस्थिति भरपूर दर्ज करवा लेते हैं और अपने आकाओं की जोरदार उपस्थिति दर्ज करवा देते हैं। चूंकि, राजनीतिक लोग जब किसी कार्यक्रम में धीरे-धीरे घुसते हैं तो मूल आयोजक भी उनकी मंशा को ठीक से भांप नहीं पाते हैं।
कभी-कभी देखने में आता है कि धार्मिक आयोजनों में अश्लील डांस एवं अश्लील गानों की भरमार हो जाती है, ऐसी स्थिति में स्थितियां यहां तक पहुंच जाती हैं कि मार-पीट हो जाती है और शासन-प्रशासन को भी आना पड़ता है। अश्लील डांस और गाने की वजह से धार्मिक कार्यक्रमों में भगदड़ मचे तो इसे किसी भी रूप में अच्छा नहीं कहा जा सकता है। यदि आयोजन धार्मिक है तो उसका स्वरूप पूर्ण रूप से धार्मिक ही होना चाहिए, क्योंकि उस आयोजन में जो भी लोग आते हैं वे उसी भावना से आते हैं, जब उन्हें उनकी भावना के अनुरूप आयोजन नहीं मिलता है तो उनके मन-मस्तिष्क में क्या गुजरता होगा, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। अतः, आवश्यकता इस बात की है कि कार्यक्रम जिस भी मिजाज का हो, उसका स्वरूप बरकरार रहना चाहिए।
आजकल तमाम राजनीतिक कार्यक्रम ऐसे देखने को मिल जाते हैं जिसमें गायकों, कलाकारों एवं अन्य सेलेब्रिटी की भरमार हो जाती है। ऐसी स्थिति में यह अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है कि जो जन समुदाय राजनीतिक कार्यक्रम में आया है वह राजनीतिक हस्तियों की वजह से आया है या उनके आने का कारण लोक कलाकार हैं। ऐसी स्थिति में तमाम आयोजकों का स्पष्ट रूप से कहना होता है कि नेताओं का भाषण लोग कम ही सुनते हैं इसलिए गायकों एवं अन्य कलाकारों को बुलाना जरूरी हो जाता है। ऐसी स्थिति में इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है कि आयोजकों का मन कितना पाक-साफ होता है और उनके मन में क्या चल रहा होता है? आयोजक अपने को चाहे जितना भी चालाक समझ लें किंतु जनता-जनार्दन सब जानती है इसीलिए तो जनता को जनार्दन या भगवान कहा जाता है।
इस संबंध में अपने समाज में एक अति प्राचीन कहावत प्रचलित है कि ‘जो जैसा है, वैसा ही दिखेगा।’ पी.आर. कंपनियां किसी भी मामले को चाहे जितना भी मैनेज कर लें, किंतु उसमें वे थोड़ा सा ही तब्दीली ला सकती हैं, उसकी मूल भावना को एकदम से बदल नहीं सकती हैं। कुल मिलाकर इसे यूं भी कहा जा सकता है कि पी.आर. कंपनियां अपनी मैनेजमेंट क्षमता के दम पर किसी गदहे को खच्चर बनाकर तो पेश कर सकती हैं किंतु घोड़ा नहीं बना सकती हैं। ऐसे उदाहरण समाज में सर्वत्र देखने को मिल जायेंगे।
आजकल बहुत व्यापक पैमाने पर संुदरियों की प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं। इन प्रतियोगिताओं में क्या होता है, यह सभी को पता है किंतु ऐसे कार्यक्रमों के बारे में बताया एवं प्रचारित किया जाता है कि इससे राष्ट्र एवं समाज का नाम खूब रोशन होगा। इन कार्यक्रमों के आयोजक क्या दिखाना चाहते हैं, इसका अंदाजा मात्र इस बात से लगाया जा सकता है कि मीडिया एवं सोशल मीडिया में जिस प्रकार की तस्वीरें प्रचार के तौर पर दिखाई जाती हैं, वही उस कार्यक्रम की मूल भावना होती है यानी आयोजकों की नजर में यदि महिलाओं के द्वारा अर्ध नग्न प्रदर्शन न कराया जाये तो सौंदर्य प्रतियोगिताओं का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है। अब इन आयोजकों से यदि यह पूछा जाये कि सौंदर्य क्या होता है, क्या उन्हें उसकी वास्तविकता पता है?
हमारे समाज में अति प्राचीन काल से ही ‘सोलह श्रृंगार’ की परंपरा प्रचलित है। क्या ये सोलह श्रंृगार कहीं से भी नग्नता, अश्लीलता या फूहड़ता के प्रतीक हैं तो उत्तर यही मिलेगा कि कदापि नहीं, जब सच्चाई यह है कि सौंदर्य पूर्ण वस्त्र में जितना अच्छा लगता है उतना अर्ध नग्न रूप में नहीं इसलिये यह कहा जा सकता है कि सौंदर्य प्रतियोगिताओं में यदि अंग प्रदर्शन होता है तो उसका नाम बदलकर कुछ और कर देना ज्यादा उचित होगा। वर्तमान रक्षामंत्री राजनाथ सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने उत्तर प्रदेश में सौंदर्य प्रतियोगिताओं पर प्रतिबंध लगा दिया था। आज के वातावरण में किसी भी नेता या नेतृत्व में ऐसी विशुद्ध और पवित्र भावना का होना अपने आप में वंदनीय, पूज्यनीय, अनुकरणीय व काबिले-तारीफ है।
वर्तमान परिस्थितियों में देखा जाये तो समाज में ऐसे समाजसेवियों की भरमार हो गई है जिनकी वास्तविक मंशा यह होती है कि सेवा कम हो या ज्यादा या हो ही न किंतु सेवा करते हुए समाजसेवी दिखें जरूर, इसीलिए एक छोटे भगोने में खीर या खिचड़ी बांटकर सैकड़ों फोटो खिंचवा कर सोशल मीडिया में ऐसे डाल दिये जाते हैं, जैसे एक छोटे से भगोने की खीर या खिचड़ी की बदौलत हजारों लोगों की भूखी आत्मा तृत्प हो गई होगी। अस्पतालों में एक ही केला कई लोग मिलकर जब किसी मरीज को पकड़ाते हैं तो यह सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि क्या यह वही भारत है जहां किसी की मदद गुप्त रूप से की जाती थी।
यह सर्वविदित है कि भारतीय सभ्यता-संस्कृति में गुप्त दान एवं मदद को ज्यादा लाभकारी एवं फलदायी माना गया है। हमारी संस्कृति में यह भी कहा जाता है कि दान या मदद यदि प्रचार करके दिया जाता है तो उसका महत्व कम हो जाता है, इसीलिए शायद भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही यह कहावत प्रचलित है कि ‘नेकी कर, दरिया में डाल’ यानी किसी के साथ नेकी कर उसे भूल जाना चाहिए, उसका बखान नहीं करना चाहिए। वास्तव में असली दान वह है, यदि दाहिने हाथ से दिया जाये तो बायें हाथ को भी पता न लगे और ईश्वर ने जो कुछ भी दिया है उसे ही दान या मदद के रूप में देना चाहिए। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि दान की मूल भावना श्रेष्ठ एवं पवित्र होनी चाहिए।
कोई समय वह भी था जब सेवा के नाम पर स्कूल, काॅलेज एवं अस्पताल खोले जाते थे। धर्मशालाएं एवं कुओं का निर्माण होता था और आज दो दर्जन केले बांटने को भी सेवा का नाम दिया जा रहा है। सेवा के भावों को यदि देखा जाये तो हमारा अतीत वर्तमान से बहुत अच्छा था। कुल मिलाकर बिना संकोच के यह कहा जा सकता है कि समाज में अधिकांश मामलों में दिखावे एवं नौटंकी का दौर है। जो जैसा है, वैसा दिखाने के बजाय और कुछ दिखाने का प्रयास किया जा रहा है।
कुछ अलग दिखने के लिए लोग पीआर कंपनियों की गिरफ्त में हैं। कार्यक्रम चाहे जैसे भी हों, किंतु नाच-गाने, अश्लीलता एवं अंग प्रदर्शन बढ़ता ही जा रहा है। कार्यक्रमों के नाम पर लोगों में राजनीतिक महत्वाकांक्षा की भावना निरंतर बढ़ती जा रही है। तमाम लोगों का कहना है कि व्यक्ति की सेवा तो समझ में आती है किंतु समाजसेवा समझ से बाहर है। दिखावे की समाजसेवा से लोग समाज एवं राजनीति में आगे तो बढ़ना चाहते हैं किंतु नेतृत्व के गुणों को अपने में आत्मसात नहीं करना चाहते हैं।
नेतृत्व के गुणों की बात की जाये तो ऊर्जा, स्नेह और मित्रता, बुद्धिमत्ता, शैक्षणिक योग्यता, समर्पण और दृढ़ संकल्प, शारीरिक शिक्षा, परिश्रम, ईमानदारी, चरित्र आदि गुणों का होना नितांत आवश्यक है। इन गुणों को ग्रहण करने की ललक कितने समाजसेवियों में है, यह अपने आप में एक यक्ष प्रश्न है जबकि सच्चाई यही है कि किसी भी व्यक्ति में यदि इन गुणों का विकास हो जाये तो वह बिना किसी पी.आर. कंपनी के ही स्वाभाविक रूप से ही नेतृत्व के काबिल हो जायेगा।
वीआईपी कल्चर समाप्त करने के नाम पर लाल बत्ती हटा दी गई है किंतु किसी न किसी रूप में वीआईपी संस्कृति आज भी हावी है। धार्मिक स्थलों पर भी वीआईपी दर्शन से लेकर, शादी-ब्याह एवं अन्य कार्यक्रमों में वीआईपी लोगों का जलवा एवं रुतबा सर्वत्र देखने को मिलता है। यह सब लिखने का आशय मेरा मात्र इतना ही है कि जैसा कहा जाता है और दिखाने की कोशिश होती है, वास्तव में व्यावहारिक जीवन में वैसा देखने को नहीं मिलता है।
यह बात सभी को पता है कि ‘सादा जीवन-उच्च विचार’ ही सबसे मर्यादित एवं श्रेष्ठ जीवनशैली है, किंतु कितने लोग इस रास्ते पर चल रहे हैं, यह अपने आप में एक अत्यंत विचारणीय प्रश्न है। जो लोग अपने आपको समाज में श्रेष्ठ समाजसेवी घोषित करने में लगे रहते हैं, उनमें से तमाम लोग हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य भाषण जैसे पाप कर्मों में निरंतर लगे रहते हैं किंतु क्या इन लोगों को इस बात का पता नहीं है कि ऊपर वाले के दरबार में देर भले ही है किंतु अंधेर नहीं है। वैसे भी कहा जाता है कि बुरे कर्मों का नतीजा सभी को भुगतना पड़ता ही है, इससे कोई बच नहीं पाता है। वैसे भी कहा जाता है कि कुदरत की लाठी जब पड़ती है तो उसमें से आवाज नहीं निकलती है किंतु लगती बहुत तेज है। ये बातें सभी जानते हैं किंतु इसके बाद भी तमाम लोग दिखावटी जीवन जीते हैं, यह भी अपने आप में बहुत ताज्जुब की बात है।
भारतीय सभ्यता-संस्कृति में कहा गया है कि नेत्र दान, कन्या दान, रक्त दान, समय दान, धन का दान सहित किसी भी प्रकार का दान यदि किया जाये तो उसके भाव की गहराइयों में डूबकर किया जाये। इसमें इस बात का विशेष रूप से ध्यान दिया जाये कि इस दान से समस्त मानव जाति का कल्याण होगा और इससे अपने आपको पूर्ण संतुष्टि मिलेगी।
आजकल समाज में एक विकृति यह देखने को मिल रही है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में कितनी भी ऊंचाई हासिल कर ले किंतु उनमें से तमाम लोगों की इच्छा यही होती है कि एक बार वे राजनीतिक कामयाबी का आनंद जरूर लें, जबकि अति प्राचीन काल से ही राजनीति एवं सत्ता को नियंत्रित करने का कार्य गैर राजनीतिक क्षेत्र की महत्वपूर्ण शख्सियतें ही किया करती थीं, विशेषकर धर्म सत्ता का नियंत्रण राजसत्ता पर प्रमुखता से होता था किंतु आजकल तमाम धार्मिक शख्सियतें भी राजसत्ता में अपनी किस्मत आजमाने के लिए लालायित एवं बेचैन हैं।
बहरहाल, जो भी हो, मेरा तो अभिप्राय मात्र इतना ही है कि व्यक्ति, समाज, संगठन, कार्यक्रम या किसी भी रूप में कथनी-करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। यदि कथनी-करनी में व्यापक अंतर होगा तो जनता जनार्दन बहुत दिनों तक झेलने वाली नहीं है। इसके साइड इफेक्ट्स धीरे-धीरे देखने को अवश्य मिलेंगे और ऐसा देखने को मिल भी रहा है। आने वाले समय में इसकी प्रतिक्रियाएं बहुत व्यापक स्तर पर देखने को मिल सकती हैं, इसलिए वक्त से पहले सतर्क हो जाना बेहद अच्छा होगा, अन्यथा…।
– सिम्मी जैन
दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।