विकास के पत्थर पर अपना नाम लिखवाना ही सनातन का आधार नहीं होता है. क्योंकि जिस प्रकार से आज का शासन तंत्र विकास का पहिया घुमा रहा है उसके नतीजों में हमारे सामने जोशीमठ का नक्शा उभर कर आ चुका है. विकास के नाम पर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना सनातन का अंग नहीं है.
मलेच्छ प्रवत्ति आज भारत के राजनैतिक कालनेमियों में घर कर चुकी है. तभी तो “कहीं पर निगाहें और कहीं पर निशाना” वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. भारत भूमि के मूलनिवासी हिन्दुओं को अपनी ही भूमि से खदेड़ने वालों का साथ देने वाले आज के राजनीतिक कालनेमि उन पौराणिक कालनेमियों से कहीं अधिक खतरनाक साबित हो रहे हैं.
आज जिस प्रकार से विकास के नाम पर अपने ही देश और समुदाय को नष्ट करने की प्रवत्ति देखी जा रही है कम से कम हिन्दू धर्म के किसी भी वेद या पुराण में तो इसकी व्याख्या नहीं देखी जा सकती। आज यदि पहाड़ों में बारूद लगाकर विकास का पत्थर गाड़ने की मानसिकता चल पड़ी है तो यह तो मलेच्छों का ही काम हो सकता है. इसको देकर सहज ही कहा जा सकता है कि मलेच्छ प्रवत्ति आज भारत के राजनैतिक कालनेमियों में घर कर चुकी है. विकास के नाम पर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारना सनातन का अंग नहीं है.
हम ये बात अच्छी प्रकार से जानते हैं, कि मानव प्रकृति का हिस्सा है इसलिए प्रकृति और मनुष्य एक दूसरे के पूरक हैं. प्रकृति के बिना मानव की परिकल्पना नहीं की जा सकती. प्रकृति के विषय में कहा जाता है कि यह दो शब्दों से मिलकर बनी है – “प्र” और कृति. “प्र” अर्थात “प्रकृति”, और “कृति” का अर्थ है “रचना”.
प्रकृति से इस समस्त सृष्टि यानी ब्रह्माण्ड का बोध होता है. कहने का तात्पर्य यही है कि प्रकृति के द्वारा ही समूचे ब्रह्माण्ड की रचना की गई है.
प्रकृति दो प्रकार की होती है- एक है प्राकृतिक प्रकृति और दूसरी है मानव प्रकृति. प्राकृतिक प्रकृति में पांच तत्व – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश शामिल हैं. जबकि मानव या मनुष्य की प्रकृति में मन, बुद्धि और अहंकार शामिल हैं. भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश ये पञ्चमहाभूत हैं और मन, बुद्धि तथा अहंकार को मिलाकर आठ प्रकार के भेदों वाली मेरी प्रकृति है.
कहने का तात्पर्य है कि ये आठ प्रकार की प्रकृति ही इस समूचे ब्रह्माण्ड का निर्माण करती है. विज्ञान भी इन तत्वों को अच्छी तरह से मानता है. अर्थात मानव शरीर प्राकृतिक प्रकृति से बना है. प्रकृति के बगैर मानव अस्तित्व की परिकल्पना नहीं की जा सकती. मानव का मन, बुद्धि और अहंकार ये तीनों प्रकृति को संतुलित, संरक्षित या नष्ट करते हैं.
तो ये बात यहाँ साबित हो जाती है की प्रकृति स्वयं अपने अस्तित्व को नष्ट नहीं करती, लेकिन मनुष्य का मन, बुद्धि तथा अहंकार इसके विपरीत जा सकता है, और आज हम उसी का परिणाम देख रहे हैं कि पहाड़ों पर विकास के नाम पर विनाश मचाया जा रहा है. प्रकृति ने नदी का एक मार्ग दिया हुआ है, इसलिए नदी उस मार्ग से भटकती नहीं है, लेकिन मलेच्छ प्रवत्ति अपना मार्ग बदल सकती है.
उपन्यासकार प्रेमचंद के मुताबिक साहित्य में आदर्शवाद का वही स्थान है, जो जीवन में प्रकृति का है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रकृति में हर किसी का अपना महत्व है. एक छोटा-सा कीड़ा भी प्रकृति के लिए उपयोगी है, क्योंकि वह कीड़ा भी उसी प्रकृति का अंग है.
इसी प्रकार से मत्स्यपुराण में एक वृक्ष को सौ पुत्रों के समान बताया गया है. यही कारण है कि हमारे यहां वृक्ष पूजने की सनातन परंपरा रही है. पुराणों में कहा गया है कि जो मनुष्य नए वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षो तक फलता-फूलता है, जितने वर्षों तक उसके लगाए वृक्ष फलते- फूलते हैं.
प्रकृति की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह अपने उत्पादों या अपनी चीजों का उपभोग स्वयं नहीं करती. जैसे – नदी अपना जल स्वयं नहीं पीती, पेड़ अपने फल खुद नहीं खाते. इसका मतलब यह हुआ कि प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती, लेकिन मनुष्य जब प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ करता है तब उसे गुस्सा आता है. जिसे वह समय – समय पर सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान के रूप में व्यक्त करते हुए मनुष्य को सचेत करती है.
जल, जंगल और जमीन जब तक है तब तक मानव का विकास होता रहेगा. मानव जो छोड़ते हैं उसको पेड़ – पौधे लेते हैं और जो पेड़ – पौधे छोड़ते हैं उसको मानव लेते हैं. जल, जंगल और जमीन से ही जीवन है. जीवन ही नहीं रहेगा तो विकास अर्थात बिजली, सड़क आदि किसी काम के नहीं रहेंगे.
यहां यह बात कहने में आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि समुदाय का स्वास्थ्य ही राष्ट्र की सम्पदा है. जल, जंगल और जमीन को संरक्षित करने लिए मन का शुद्ध होना बहुत जरुरी है. मनुष्य का मन प्रकृति में आंतरिक पर्यावरण का हिस्सा है. जल, जंगल और जमीन तो बाहरी पर्यावरण है.
भारतभूमि पर आज की स्थिति को देखकर सहज ही अंदाज़ा लग जाता है कि यहाँ विकास की नहीं संस्कारों की आवश्यकता है. संस्कारों की कमी आज यहाँ के आम आदमी में नहीं बल्कि राजनेताओं और संगठनों, न्यायपालिका चलाने वालों में देखने को मिल रही हैं.
– अमृति देवी