श्यामा प्रसाद मुखर्जी की बनायीं जनसंघ के उत्तर प्रदेश के महासचिव एवं संघ के प्रखर विचारक एवं लेखक दीनदयाल उपाध्याय एक दार्शनिक की भांति भारतीय राजनीति में याद किये जायेंगे। दीनदयाल की जिस विचारधारा को अपनाते हुए पिछले दशकों में भारतीय जनता पार्टी संघर्षरत रही उसी का परिणाम है कि भाजपा आज भारत में राजनैतिक वर्चस्व प्राप्त कर चुकी है और विपक्ष लो लगभग समाप्त कर चुकी है। उपाध्याय का मानना था कि धर्म ही एक मात्र वृति है जो पूरे भारत को एक सूत्र में बाँध सकती है।
दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि हमारा धर्म हमारे राष्ट्र की आत्मा है। बिना धर्म के राष्ट्र जीवन का कोई अर्थ नहीं रहता । भारतीय राष्ट्र न तो हिमालय से लेकर कन्या कुमारी तक फैले हुए भूखंड से बन सकता है और न तीस करोड़ मनुष्यों के झुण्ड से । एक ऐसा सूत्र चाहिए जो तीस करोड़ को एक दूसरे से बाँध सके, जो तीस कोटि को इस भूमि में बाँध सके। वह सूत्र हमारा धर्म ही है । बिना धर्म के भारतीय जीवन का चैतन्य ही नष्ट हो जायेगा, उसकी प्रेरक शक्ति ही जाती रहेगी। अपनी धार्मिक विशेषता के कारण ही संसार के भिन्न भिन्न जान समूहों में हम भी राष्ट्र के नाते खड़े हो सकते हैं। धर्म के पैमाने से ही हमने सबको नापा है। धर्म की कसौटी पर ही कसकर हमने खरे खोटे की जांच की है। विवाह, संतानोत्पत्ति, स्नान भी हम धार्मिक कार्य समझ के ही करते हैं।
भारत का राष्ट्र जीवन युग युग में भिन्न भिन्न स्वरुप में व्यक्त हुआ है ।इसके मूल में उसकी धर्म भावना ही रही है।भारत धर्म प्राण देश है ।राम, कृष्ण, युधिष्ठर, श्रवण कुमार धर्म का ही रास्ता अपना रहे हैं इसीलिए पूजनीय हैं। हमारे राजनैतिक आचार्यों ने भी राजनीति पर धर्म का पुट चढ़ाया है. शुक्राचार्य और चाणक्य धर्महीन राजनीति के पोषक नहीं हैं। शिवाजी और गुरु गोविन्द सिंह राजनैतिक नहीं धार्मिक नेता हैं। दयानन्द और विवेकानंद के कार्यों का पूर्ण प्रभाव भारत राष्ट्र पर है । गाँधी के भारतव्यापी प्रभाव के पीछे उनका महात्मापन ही है। भारत में नैतिकता के सिद्धांतों को धर्म के रूप में माना जाता है, यानि जीवन के नियम।धर्म के लिए निकटतम समान अंग्रेजी शब्द ‘जन्मजात कानून’ हो सकता है. हालाँकि यह भी धर्म के पूरा अर्थ को व्यक्त नहीं करता है. चूँकि धर्म सर्वोच्च है, हमारे राज्य के लिए आदर्श ‘धर्म का राज्य’ होना चाहिए।धर्म ही हमें गंगा को पवित्र मानना सिखाता है और हमारा धर्म ही चारों धामों की यात्रा के द्वारा पूरे देश का भ्रमण करवाता है।
भारत में समाजवाद के चेहरे के रूप में भगत सिंह और लोहिया बड़े नाम हैं। भगत सिंह और लोहिया ने अपने जीवन में धर्म के उस रूप को नहीं अपनाया जो धर्म का रूप हमें अपने चारों तरफ दिखाई देता है।भगत सिंह और लोहिया दोनों नास्तिक थे। लेकिन इस विरक्ति को समझना भी बहुत जरूरी है। भगत सिंह का मानना था कि वह जीवन में धर्म के नशे का सहारा नहीं ले सकते । यह शायद उन पर पश्चिमी विचारकों का प्रभाव ही कहा जा सकता है। हाँ शुरुआती जीवन में उन पर आर्य समाज और सिख धर्म का प्रभाव था जो उनके पत्रों में झलकता है। उन्होने चार्ल्स डेकन को पढ़ा, जोजेफ कोंरेड, सिंकलेर, विक्टर हुगो, हाल केन, रीड, रोपशीन, मैक्सम गोर्की, स्टेपनिक, ऑस्कर वाइल्ड, बकुनिन को भी उन्होने जमकर पढ़ा। मरते वक्त भी वो लेनिन को पढ़ रहे थे। भगत सिंह का मानना था कि सत्य के लिए जीवन न्योछावर, स्वर्ग के लालच और नरक के भय के बिना किया जाय। उनका उद्देश्य उस क्रांति से था जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत कर देगी। वह गोरी बुराई को हटाकर काली बुराई को लाना नहीं चाहते थे। वो तो श्रमिकों के शासन के पक्षधर थे।
महात्मा गांधी के लेख ‘बम की पूजा’ के खिलाफ भगवती चरण वोहरा के लेख को भगत सिंह ने पूरा किया जिसका शीर्षक था ‘बम का दर्शन’। ‘मैं नास्तिक क्यूँ हूँ ?’ लेख केवल एक अंधी मानसिकता का परिचायक नहीं है वो डार्विन की किताब ‘जीवन की उत्पत्ति’, बाकुनिन की किताब ‘ईश्वर और राज्य ’, निरलंब स्वामी की ‘सहज ज्ञान ’ जैसी किताबों से प्रेरित एक वैज्ञानिक तथ्य परक सोंच है, जो धर्म और मिथकीय विचारों को चुनौती देती है। जिसमे अगले जन्म और स्वर्ग की खुशियों का लालच नहीं है। आनुवंशिकता के सिद्धान्त से वो भली भांति परिचित हो चुके थे। भगत सिंह की क्रांति बम और पिस्तौल की क्रान्ति थी ही नहीं, उस क्रांति का बाल काल जरूर लाल खून से भरा हो सकता है लेकिन वो जवान हुई किताबों के बीच उसकी धार विचारों की सान पर तेज हुई। आखिर कैसे खेलने कूदने की उम्र मे एक लड़का भगत सिंह बन गया यह जानना बहुत रोचक भी है और देश के लिए जरूरी भी।
भगत सिंह महज रूमानी आदर्शवादी क्रांति के पोषक भर नहीं थे जब संगठन की जिम्मेदारी उन पर आई तो उनके पास केवल एक ही हथियार बचा जिससे वो विरोधियों का सामना कर सकते थे और वो हथियार था “ अध्ययन करो” ! स्वयं को विरोधियों के तर्कों का सामना करने लायक बनाने के लिए अध्ययन करो ! अपने मत के समर्थन में तर्कों से लैस होने के लिए अध्ययन करो। पकड़े जाने से लेकर फांसी तक वो 716 दिन जेल मे रहे और इस दिनों उनके पढ़ने की भूख को पूरा करना लाहौर की द्वारका दास लाइब्रेरी के लिए भी मुश्किल पड़ा और उन्होने लगभग 300 किताबें पढ़ भी डालीं।
लगभग 170 किताबों की उनकी खुद की भी छोटी सी लाइब्रेरी थी। उनका मानना था कि एक क्रांतिकारी सबसे अधिक तर्क पर विश्वास करता है । वह केवल तर्क और तर्क मे ही विश्वास करता है। किसी प्रकार का गाली दृगलौच या निंदा , चाहे वह ऊंचे से ऊंचे स्तर से की गई हो उसे अपने निश्चित उद्देश्य से वंचित नहीं कर सकती। लाहौर से कलकत्ता भागते वक्त बाल कटाये जाने पर उनके ऊपर सिख धर्म की उठी उँगलियों का जवाब उन्होंने यह कहके दिया कि वह तो सिख धर्म की अंग अंग कटाने की परम्परा के कायल हैं, अभी तो बस बाल कटाये हैं जल्द ही देश के लिए सिर भी कटवाऊंगा।
जिस समाजवाद को नेहरू और कांग्रेस से दूर रखने के लिए राम मनोहर लोहिया ने अनेक समाजवादी दिग्गजों से अलग रास्ता अपनाया और जयप्रकाश नारायण, कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव से मनमुटाव झेला आज उसी समाजवाद के उपासक उसे कांग्रेस तक ले आये । डॉ. लोहिया केवल गांधी से ही प्रभावित थे क्यूंकि गांधी दर्शन के साथ कर्म को भी जोड़ते थे और गांधी के बाद उन्हे प्रभावित करने वाला कोई आधा आदमी था तो वो थे आजादी से पहले के नेहरू।
गहराई मे जाकर देखा जाये तो गांधी के मरने के बाद आजाद भारत मे गांधी के बाद गांधी की अहिंसा और सिविल नाफरमानी जैसे बेजोड़ हथियारो का अगर किसी ने ढंग से इस्तेमाल किया तो वह लोहिया ही थे। बस इस सिद्धांतो को समाजवाद का नाम दिया गया लेकिन कहीं हद यह गांधी की विचारधारा का नवीन रूप ही था। गांधी समाजवाद शब्द को इस्तेमाल नहीं करते थे। लोहिया मार्क्स से कभी सहमत नहीं रहे क्यूंकि मार्क्स यूरोप के श्रमिक वर्ग की कार्यकुशलता के ह्रास के प्रति चिंता तो व्यक्त करता है पर उपनिवेशोण से अपने जो स्वदेशी उद्धयोग समाप्त होते हैं, उनकी वह चिंता नहीं करता।
लोहिया का मनाना था कि यह बड़ी मशीनें ही एशिया और अफ्रीका के राष्ट्रिय उद्धोग को नष्ट करने का कारण है। पिछड़े और गरीब लोगों के लिए लोहिया मशीन को घातक मानते थे। वह कहते थे “मैं तो उस परंपरा की कड़ी हूँ जो प्रह्लाद से शुरू होकर सुकरात होते हुये गांधी तक पहुँच चुकी है। मैं चाहता हूँ कि मनुष्य हथियारों या ताकत का उपयोग किए बिना अन्याय एवं शोषण का विरोध करने कि कला सीखे”। उनका मानना था कि जब तक पार्टी के लोग ही अपनी पार्टी के गलत कार्यो कि आलोचना नहीं करेंगे तब तक लोकतन्त्र मजबूत नहीं होगा। लोहिया की समाजवादी विचारधारा के केंद्र में ‘समता’ का सिद्धान्त मुख्य है। आर्थिक समता, सामूहिक समता, समान अवसर और विकल्प की स्वतन्त्रता को लेकर ही समाजवाद के विभिन्न संप्रदायों का गठन बना है।
लोहिया कहते थे कि मैं अणु बम का पुजारी नहीं हूँ मैं हथियारों को बुरा समझता हूँ। मैं हथियारो और अणु बम को बुरा समझता हूँ, मैं चाहता हूँ कि दुनिया ऐसी हो कि जिसमे यह सब खत्म हो जाए। उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया। लोहिया भले ही जीवन भर कट्टर नास्तिक रहे हों लेकिन देखा जाए तो वो अंदर से सिद्धांतो को लेकर सख्त और व्यक्तित्व मे लचीले थे इसीलिए शायद हर साल रामलीला भी लगवाते थे। इसके अलावा भगवान कृष्ण, राम और शिव को लेकर उनका गहरा ज्ञान और तीनों का भारतीय लोकतन्त्र पर प्रभाव को लेकर शोधपरक दृष्टिकोण बेहद रोचक था। लोहिया कहते थे कि “आनंद, प्रेम और शांति का आव्हान तो रामायण में है ही , पर हिंदुस्तान की एकता जैसा लक्ष्य भी स्पष्ट है।
सभी जानते हैं कि राम हिंदुस्तान के उत्तर-दक्षिण की एकता के देवता हैं । आधुनिक भारतीय भाषाओं का मूल स्रोत रामकथा है। कम्बन की तमिल रामायण, एकनाथ की मराठी रामायण , कीर्तिवास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायण ने अपनी अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया। इसके अलावा तुर्की, थाई, कंबोज और इन्डोनेशिया की रामायण भी ….”। लोहिया अँग्रेजी भाषा के सख्त विरोधी थे वह कहते थे हिन्दी को बचाए बिना देश को बचा पाना नामुमकिन है। वेषभूषा भी हमारी अपनी ही होनी चाहिए। स्त्री के शरीर पर सुहाग की निशानी को वह बंधन मानते थे। जिनका वह सख्त विरोध भी किया करते थे।
लोहिया महिलाओं को किसी भी क्रांति का अविभाज्य हिस्सा मानते थे। उनका मानना था कि जब तक समाज के पुर्नगठन की प्रक्रिया में महिलाएं हिस्सा नहीं लेंगी तब तक समाजवाद को मजबूत नहीं किया जा सकेगा। उनका कहना था भारत की स्त्री को सावित्री नहीं द्रोपदी बनना होगा जो केवल अपने पति की ही जंजीरों मे न जकड़ी रहे बल्कि शास्त्रार्थ भी कर सके। स्त्री कोई जड़ वस्तु नहीं है जो पढ़ लिखने के बाद भी अपने पति की गुलाम बनकर रहे। लोहिया का अधिक उदार व समतामूलक समाज का स्वप्न उन्हें एक आधुनिक चिंतक के रूप में स्थापित करता है।
समाजवाद को लेकर दीनदयाल उपाध्याय का कहना था कि समाजवाद भारतीय संस्कृति और परम्पराओं के लिए पूर्णतया विदेशी है। समाजवाद भारतीय जनता को प्रेरणा देने में असमर्थ रहा है। हमें अन्य विदेशी वादों का सामना करने के लिए किसी और एक विदेशी वाद का सहारा लेने की जरूरत नहीं है।
समाजवाद और पूंजीवाद दोनों ही विदेशी कल्पनाएं हैं। उनका भारत की प्रकृति और परम्परा से कोई मेल नहीं है। वह जनसंघ के माध्यम से राष्ट्र और व्यक्ति दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहे और व्यक्ति के विकास के लिए पूर्ण स्वतंत्रता के हिमायती थे । भारत में पश्चिमी समाजवाद को कम्युनिस्टों ने अपना आधार बनाया । जो कभी भी भारत को एक सूत्र में नहीं बाँध सका ।
भगत सिंह और लोहिया का समाजवाद शायद विदेशी नहीं है। एक दो राज्यों को छोड़कर आज कम्युनिज्म कहीं नहीं बचा। उसके पैर उखड चुके हैं। अगर इतिहास पर नजर डालें तो 70 सालों में कुछ राज्यों को छोड़कर कम्युनिज्म अपने पैर जमा ही नहीं पाया।
चाहें दीनदयाल उपाध्याय हों, भगत सिंह या लोहिया हों सब भारत के प्रमुख विचारक ही हैं और इनके विचार कभी भी अप्रसांगिक नहीं हो सकते, राजनैतिक पार्टियों ने इन तीनों चेहरों को अपनाया तो लेकिन इनके सपनों का भारत अभी भी अधूरा है।
-डॉ. स्वप्निल यादव