भगवान् के हाथों में नहीं है कर्म का फल. जी हाँ यही सच है. जबकि सब लोग यही कहते आ रहे हैं कि कर्मों का फल देना भगवान् के हाथों में होता है. क्योंकि कर्मों का फल देना यदि भगवान् के हाथों में होता तो फिर तो भगवान् भी आज के मनुष्य की भांति निरंकुश हो चूका होता. भगवान् श्रीकृष्ण ने साफ़-साफ़ कहा है कि जो जैसा कर्म करेगा उसको वैसा ही फल भी मिलेगा, तो फिर कर्मों का फल देना भगवान के हाथों में कैसे हो गया?
इसका मतलब तो एकदम साफ़ है कि आज जो बीज आप बो रहे हो उसी का तो पौधा उगेगा. वही एक दिन वृक्ष बनेगा और उसी के फल आपको खाने को मिलेंगे. यानी आज जो कर्म आप कर रहे हो उसी का फल तो तुम्हें मिलेगा.
गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी ‘रामचरित मानस’ के माध्यम से यही बताने का प्रयास किया है कि जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल भुगतना भी पड़ता है. इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपने कर्मों का लेखा-जोखा स्वयं ही रखें. हमारा अगला जन्म किस प्राणी के रूप में होगा, यह सब कुछ हमारे कर्मों पर ही निर्भर करता है.
हमारे पिछले जन्मों में किए हुए अच्छे-बुरे हर प्रकार के कर्म फल हमारे भीतर ही संग्रहीत रहते हैं. साधारण भाषा में उन्हें संचित कर्म कहा जाता है, यानी आप का मूल धन. अगले जन्म में उस मूलधन का ब्याज यानी आपके उन्हीं कर्मों का फल मिलता है. इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म को प्रधानता देते हुए यहां तक स्पष्ट कर दिया है कि व्यक्ति की यात्रा जहां से छूटती है, अगले जन्म में वह वहीं से प्रारंभ भी होती है. यानी आप अपने कर्मों के फल को भोगने से बच नहीं सकते. चाहे आप कितने ही जन्म क्यों न ले लें.
जो व्यक्ति प्रकृति के नियमों का पालन करता है. वह प्रकृति का सम्मान करता है. जो व्यक्ति परमात्मा का सम्मान करता है वह दूसरों की पीड़ा को समझता है, और वही व्यक्ति परमात्मा के करीब भी रहता है. यहां ध्यान रखने वाली बात ये है कि परमात्मा भी जब धरती पर मनुष्य के रूप में अवतरित होता है तो वह स्वयं भी उन्हीं सारे नियमों का पालन करता है जो एक सामान्य मनुष्य के लिए उसी परमात्मा ने बनाये हैं. वह स्वयं भी अपनी ही पूजा करता है, ताकि मनुष्य ये जान सके कि उसे क्या और कैसे उन सारे नियमों का पालन करना है जो प्रकृति चाहती है, अर्थात चाहे मनुष्य हो या देवता, अपने कर्मों के द्वारा उस प्रकृति और परमात्मा का पूजन तो करना चाहिए.
अच्छे कर्म यदि व्यक्ति के जीवन को प्रगति की दिशा में ले जाते हैं तो वहीं उसके बुरे कर्म उसे पतन की ओर ले जाते हैं. सनातन धर्म के पुराणों के अनुसार मनुष्य द्वारा किए हुए उसके स्वयं के शुभ या अशुभ कर्मों का फल उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है. तभी तो भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है कि कर्म का सिद्धांत अत्यंत कठोर है.
लोग कहते हैं की कर्म हमारे अधीन हैं, किन्तु उसका फल देना तो भगवन के हाथों में है. लेकिन यहाँ भगवान् ये भी तो कहते हैं कि जो जैसा कर्म करेगा उसको वैसा ही फल मिलेगा. यानी मतलब साफ़ है कि आप आज जो बीज बो रहे हो उसी का तो पौधा उगेगा. वही एक दिन वृक्ष बनेगा. यानी आज आप जो कर्म कर रहे हो उसी का फल तो तुम्हें मिलेगा. तो फिर भगवान् तो तुम्हें वही देगा जो तुमने कर्म किया है. अर्थात कर्म हमारे अधीन हैं तो उसका फल भी हमारे ही अधीन है.
एक बार एक व्यक्ति ने किसी संत से पूछा कि आपके जीवन में इतनी प्रसन्नता, शांति और उल्लास और प्रभु के प्रति इतनी शुद्ध भक्ति कैसे है? इस पर संत ने मुस्कराते हुए कहा कि ये सब तो आप भी पा सकते हो, आप भी कर सकते हो. इसके लिए बस आप अपने कर्मों के प्रति यदि थोड़ा सा भी सजग और सतर्क हो जाते हैं, तो यह सब आप के जीवन में भी आ सकता है, हाँ किसी जीवन में कम तो किसी के जीवन में अधिक. ये सारा खेल तो कर्मों का है. इसमें कुछ भी छुपा नहीं है. मनुष्य कर्म तो अच्छा करता नहीं है लेकिन फल बहुत अच्छा चाहता है, यही उसकी समस्या है. महापुरुष और ज्ञानी जन हमेशा से कहते आ रहे हैं कि अच्छे कर्मों को करने और बुरे कर्मों का परित्याग करने में ही हमारी भलाई है.
– अमृति देवी