बात सन् १३२५ की है। मुहम्मद-बिन-तुगलक द्वारा अपने बाप की हत्या करने के बाद वह, स्वघोषित सुल्तान बन बैठा। इस “नरभक्षी” पशु के काले कारनामों के बारे में इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी लिखता है कि, यह सुल्तान, अविवेकी, अदूरदर्शी, अव्यावहारिक, झक्की तथा क्रूरता का जीता जागता प्रतीक था जिसके जीवनकाल में ही, सल्तनत की सत्ता पर इसकी पकड़ बेहद ढीली पड़ चुकी थी।
एक अन्य इतिहासकार “इब्न-बतूता” भी लिखता है- “मुहम्मद तुगलक को खून बहाना सभी बातों से अधिक पसन्द है, एक खेल की भांति। उसका उग्र व क्रूर कारनामा दुनिया में विख्यात हो चुका है। सुल्तान तुगलक मामूली भूलों के लिए भी बहुत बड़ी सजा देता था। अपने विद्रोहियों को तो वह सीधे मौत की सजा ही सुना देता था। विद्वान, धार्मिक या फिर कुलीन किसी को भी नहीं छोड़ता था। सैकड़ों हिन्दुओं को रोजाना जंजीरों में जकड़कर उसके सभा हाल में लाया जाता जिनके साथ वह मौत और जिंदगी के खेल खेलता था। बाकी को या तो बड़ी पीड़ाएं दी जाती थीं या उन्हें कोड़े से अच्छी तरह पीटा जाता था।”
खुद इतिहासकार बरनी भी मानता है कि “सुल्तान मुहम्मद तुगलक के दिमाग ने अपना सन्तुलन खो दिया था। अत्यन्त आवेश की दुर्बलता व क्रूरता में वह बहुत कठोर हो गया था।” क्योंकि सत्ता संभालते ही उसने जनता पर बेवजह के ५ से १०% टैक्स बढ़ाकर, उसकी कमर पूरी तरह से तोड़ दी। लोग भीख माँगने तक पर उतर आये, तथा काफी लोगों ने तो विद्रोह भी कर दिया था। लेकिन उसे इससे कोई मतलब ही नहीं था, क्योंकि वह जो कहता, जो भी फैसले लेता था उनमें कोई बुराई, कोई कमी नहीं होती थी।
यहां हम मुहम्मद-बिन-तुगलक के इस उदाहरण से यह भी कह सकते हैं कि वर्तमान में भी या तो मुहम्मद-बिन-तुगलक खुद जिंदा है या फिर उसका वही मुगलकालीन शासन आज भी सन 1947 के बाद से जस का तस जारी है। फिर चाहे वह संवैधानिक तरीके से हो या फिर शासन व्यवस्था के जरिए। क्योंकि न तो सत्ता बदली है और न ही शासन की व्यवस्था। न तो न्याय मिल रहा है न ही कानून बदले हैं। शासक भले ही बदल रहे हैं, शासकों के वंश भले ही बदल रहे हैं, लेकिन उनके फरमान, उनके फैसले और उनकी अय्याशियां तो आज भी वही देखी जा रही हैं। उनके षड्यंत और उनकी कार्यशैलियों को भी हम उसी प्रकार से देख रहे हैं।
धर्म के नाम पर सत्ता को हासिल करने वाले तुगलक से लेकर आज तक के सभी सुल्तान अपने-अपने धर्म को और अपने-अपने धर्मों की परिभाषा को यदि थोड़ा सा भी जान पाते तो इन सब के डीएनए एक नहीं होते। आंतरिक धर्म की पहचान न तो माथे के त्रिकुंड से है और न ही तलवार से। क्योंकि डीएनए ही तो है जिससे व्यक्ति के आंतरिक धर्म की पहचान होती है।
– अजय चौहान