वर्तमान स्थितियों में देखा जाये तो भारत सहित पूरी दुनिया छोटी-बड़ी तमाम समस्याओं की वजह से परेशान है। लोगों का सुख-चैन गायब हो चुका है। सब कुछ होते हुए भी लोग बेचैनी के आलम में जीने के लिए विवश हैं। अब सवाल यह उठता है कि इन समस्याओं से कैसे उबरा जाये? चूंकि, अतीत में भारत विश्व गुरु रह चुका है। ज्ञान, विज्ञान, शिक्षा, संस्कृति एवं संस्कार में भारत ने अपनी भूमिका निभाते हुए विश्व का नेतृत्व किया है, ऐसे में भारत से पूरी दुनिया को काफी उम्मीदें हैं। वैसे भी पाश्चात्य संस्कृति से लोगों को ऊबन होने लगी है। स्वयं पाश्चात्य देशों के लोग भी सुख-शांति की तलाश में भारत की ओर रुख करने के लिए विवश हैं।
पाश्चात्य देशों की बेचैनी के साथ ही अन्य तमाम देशों में भी विभिन्न कारणों से मार-काट मची हुई है। ऐसे में पूरी दुनिया में भारत ही एक मात्र उम्मीद की किरण है। सौभाग्य से इन्हीं परिस्थितियों के बीच मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम बेहद धूमधाम से 22 जनवरी को अयोध्या धाम में गर्भगृह में विराजमान हो गये। प्रभु श्रीराम के गर्भ गृह में विराजमान होने के बाद पूरी दुनिया एवं भारत की नजर प्रभु श्रीराम एवं अयोध्या धाम पर केंद्रित हो गई है। प्रभु श्रीराम की कृपा से अयोध्या धाम को विश्व का सबसे प्रमुख धार्मिक पर्यटन का केन्द्र माना जाने लगा है।
आखिर ऐसा क्या है, जिससे भारत सहित पूरी दुनिया के लोगों की नजर प्रभु श्रीराम की तरफ जा रही है। ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि प्रभु श्रीराम के जीवन चरित्र का विधिवत अध्ययन किया जाये और उसके मुताबिक यदि जीवन जिया जाये तो भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की समस्याओं का समाधान हो सकता है। आज कमोबेश पूरे विश्व की बात की अमूमन प्रमुख देशों में शासन-प्रशासन का कार्य लोकतांत्रिक माध्यम से संचालित हो रहा है।
वर्तमान परिस्थितियों में इस बात की चर्चा बेहद जोरों पर है कि भारत सहित पूरे विश्व की राजनीति यदि प्रभु श्रीराम के आदर्शों पर चल पड़े तो क्या होगा? निर्विवाद रूप से इस प्रश्न का जवाब यह मिल रहा है कि यदि ऐसा हुआ तो भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में सुख-शांति, अमन-चैन एवं अहिंसा का बोलबाला होगा। लोग एक दूसरे को पीड़ा पहुंचाने के बजाय सुख-दुख में सहयोगी की भूमिका में नजर आयेंगे तो आइये, यह जानने की कोशिश करते हैं कि प्रभु श्रीराम के आदर्श, सिद्धांत कार्यप्रणाली, समाज, परिवार, शासन-प्रशासन एवं आम जनता के प्रति उनका नजरिया क्या रहा है? इस संदर्भ में यदि व्याख्या की जाये तो प्रभु श्रीराम के जीवन चरित्र में त्याग ही त्याग है।
प्रभु श्रीराम एक राजा के बेटे थे और एक राजा के दामाद थे किंतु उन्होंने अपने पिता की आज्ञा पर राज सिंहासन के बजाय वन गमन का रास्ता चुना। वचनों से बंधे होने के बावजूद चक्रवर्ती राजा दशरथ ने राम को इस बात के लिए उकसाया कि वे उनके खिलाफ विद्रोह करें किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया जबकि अयोध्या की आम जनता चाहती थी कि प्रभु श्रीराम राजा बनें। उस प्रकरण की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस समय प्रभु श्रीराम वन को जा रहे थे तो उनकी मदद के लिए राजा दशरथ धन-दौलत और सेना भेज सकते थे। यदि स्वयं नहीं भेज सकते थे तो अपने अधीनस्थ अन्य राजाओं को उनकी मदद के लिए कह सकते थे किंतु प्रभु श्रीराम ने किसी भी प्रकार की मदद लेेने से मना कर दिया क्योंकि उन्हें अपनी काबिलियत पर पूरा भरोसा था।
यहां पूरे विश्व को नसीहत लेने की बात यह है कि जहां आज के वातावरण में सगे भाई एक-एक इंच जमीन के लिए आपस में लड़ रहे हैं और एक दूसरे की जान के दुश्मन बने हुए हैं वहीं अयोध्या के राजमुकुट को चारों भाई ठोकर मार रहे थे और उन चारों भाइयों में इस प्रकार की प्रतियोगिता चल रही थी कि त्याग के मामले में कौन कितना आगे निकल सकता है? जगत जननी माता जानकी एक राजा की बेटी थीं तो एक राजा की पुत्रवधू थीं, उन्होंने महलों के ऐशो-आराम की बजाय अपने पति के साथ वन जाना ही उचित समझा।
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि माता जानकी एवं लक्ष्मण को वन जाने का आदेश नहीं हुआ था फिर भी उन्होंने वन गमन का ही निर्णय लिया। यहां यह सब लिखने का आशय मेरा इस बात से है कि काश आज के शासक यानी नेता राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न एवं सीता जैसा आचरण प्रस्तुत करते तो क्या किसी भी प्रकार की समस्या उत्पन्न हो सकती है। प्रत्येक भारतवासी के मन में यह लालसा जागृत होती है कि काश राजनीति भी प्रभु श्रीराम के आदर्शों पर चल पड़े तो समस्त समस्याओं का समाधान हो जायेगा।
आज की राजनीति में जहां लोग अपने परिवार को ही अपने लिए खतरा मान रहे हैं, रिश्तों की मर्यादा तार-तार हो रही है, ऐसे में रिश्तों की मर्यादा को बरकरार रखने के लिए प्रभु श्रीराम एवं अयोध्या राज परिवार के आदर्शों पर चलने की नितांत आवश्यकता है। प्रभु श्रीराम अपनी सगी माता के कहने पर नहीं बल्कि सौतेली माता कैकेई की इच्छा का पालन करने के लिए वन गये थे। वन से जब वे वापस आये तो सबसे पहले वे माता कैकेई से ही मिले। इसे कहते हैं, एक आदर्श विचार एवं सोच। पिता, पुत्र, भाई, पति, प्रजा पालक एवं असहाय-असमर्थ के पक्ष में प्रभु श्रीराम के जो विचार एवं आदर्श थे और कदम-कदम पर उन्होंने जिस प्रकार मर्यादा का पालन किया, उसी वजह से उन्हें पुरुषों मे उत्तम यानी पुरुषोत्तम कहा गया। प्रभु श्रीराम की तरह आज के समय में यदि लोग अपने को मर्यादित रखें तो क्या किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि राजनीति भी यदि प्रभु श्रीराम की तरह रिश्तों की मर्यादा को ध्यान में रखकर चला जाये तो क्या किसी का शोषण हो सकता है? कदापि नहीं? इसी प्रकार राम की सौतेली माता सुमित्रा का पुत्र होने के बावजूद लक्ष्मण जी सदैव प्रभु श्रीराम के प्रति ही समर्पित रहे और सीता जी ने वन में जाकर एक प्रति व्रता नारी का परिचय दिया।
प्रभु श्रीराम के जीवन से हमें इस बात की सीख मिलती है कि किसी कमजोर एवं लाचार को सताने की क्या सजा मिलती है? प्रभु श्रीराम ने बालि का वध करके उसके भाई सुग्रीव को राजपाट वापस दिलाया और बालि के पुत्र अंगद को ससम्मान सुग्रीव को सौंपा। प्रभु श्रीराम के बाण से घायल होने पर जब बालि ने प्रभु श्रीराम से पूछा कि ‘‘हे नाथ आप ने मुझे क्यों मारा तो प्रभु श्रीराम ने कहा कि हे बालि तूने अपने छोटे भाई की पत्नी को अपने पास रखा है जबकि छोटे भाई की पत्नी को अपने पास रखना महापाप है। इसी पाप की सजा तुम्हें मिली है।’’
आज के भी नेता यदि इसी भाव से राजनीति करें तो राजनीति व्यभिचार मुक्त हो जायेगी। राम राज्य में यदि भ्रष्टाचार एवं बेईमानी की बात की जाये तो इसकी कोई गुंजाइश ही नहीं थी, क्योंकि उस समय जो जितने में था, उसी में संतुष्ट था। जब किसी के मन में संतुष्टि का भाव उत्पन्न हो जाये तो वह चोरी, बेईमानी से स्वतः दूर जाने लगेगा। प्रभु श्रीराम के जीवन से हमें यही सीखने को मिलता है। नारी का सम्मान कैसे किया जाये, यह प्रभु श्रीराम के जीवन चरित्र से बहुत ही अच्छी तरह सीखा जा सकता है। महाप्रतापी राजा रावण ने माता सीता का अपहरण किया तो प्रभु श्रीराम ने माता सीता की खोज में लंका पर चढ़ाई कर दी और रावण को मृत्यु दंड दिया। लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद उन्होंने उस पर कब्जा करने के बजाय रावण के धर्मपरायण भाई विभीषण का राज्याभिषेक कर दिया। यदि वे चाहते तो लंका को अयोध्या का उपनिवेश भी बना सकते थे किंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया जबकि आज के दौर में चीन जैसे विस्तारवादी देश दूसरे देशों की जमीन कब्जा करने के लिए बेचैन हुए जा रहे हैं। रूस एवं यूक्रेन का युद्ध भी कुछ इसी प्रकार का संदेश देता है।
नैतिकता की दृष्टि से यदि भगवान श्रीराम की बात की जाये तो आज के विश्व को उनके आदर्शों पर चलने की आवश्यकता है। लंका से वापस आने के बाद एक अयोध्यावासी ने सीता जी पर टिप्पणी की, इससे व्यथित होकर प्रभु श्रीराम अयोध्या का सिंहासन त्यागने को तैयार हो गये किंतु जब माता जानकी को उनकी व्यथा का पता चला तो वे स्वयं अयोध्या छोड़ने के लिए जिद करने लगीं। अंततोगत्वा उन्होंने श्रीराम की अनिच्छा के बावजूद अयोध्या का राज महल छोड़ दिया और महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहने लगीं। इसी आश्रम में उन्होंने लव-कुश को जन्म दिया और उनका पालन-पोषण किया, जो आगे चलकर महान योद्धा बने।
माता जानकी ने वन में रहकर जिस प्रकार लव-कुश का पालन-पोषण करके सुयोग्य, शिक्षित एवं संस्कारित बनाया उससे भी हमें कुछ सीखने की जरूरत है। महर्षि वाल्मीकि के संरक्षण में रहकर लव-कुश जितने महान योद्धा बने, उससे यही साबित होता है कि प्रतिभा सिर्फ सुख-सुविधाओं की मोहताज नहीं है। उसे ग्रहण करने के लिए संस्कारों एवं योग्य गुरुओं (शिक्षकों) की आवश्यकता है। काश, हमारे राजनीतिज्ञ यदि इस बात पर जोर देते कि हमें अपने देश की उन प्रतिभाओं का विकास करना है जिन्हें संसाधनों के अभाव में योग्य गुरु नहीं मिल पा रहे हैं।
प्रभु श्रीराम के जीवन चरित्र की यदि व्याख्या की जाये तो कहा जा सकता है कि वे सामाजिक समरसता के प्रतीक थे। उन्होंने निषादराज को गले लगाया, माता शबरी के जूठे बेर खाये। सुग्रीव, जामवंत, हनुमान, बंदरों, भालुओं एवं आदि के सहयोग से वन में 14 वर्षों का समय न सिर्फ व्यतीत किया बल्कि इनके सहयोग से लंका पर विजय भी प्राप्त की। वे चाहते तो अयोध्या से सेना बुलवाकर लंका पर विजय प्राप्त कर सकते थे किंतु उन्होंने इन वनवासियों पर ही भरोसा किया और ये वनवासी उनके भरोसे पर खरा भी उतरे।
माता शबरी के आश्रम में पहुंचने पर जब शबरी ने प्रभु श्रीराम से पूछा कि यदि माता सीता का अपहरण न हुआ होता तो आप यहां न आते, तो प्रभु श्रीराम ने कहा कि माता भ्रम में न पड़ो, मैं तो सिर्फ तुमसे मिलने आया हूं। रावण को तो लक्ष्मण ही परास्त कर सकते हैं। इस प्रकार का भाव यदि आज की राजनीति में आ जाये कि हमें सभी को गले लगाना है, चाहे कोई वनवासी हो, ग्रामवासी, हो गिरिवासी या शहरवासी हो। सभी का विकास समान रूप से हो और जो भी योजना बने, सभी को ध्यान में रखकर।
वैसे भी, पंडित दीन दयाल उपाध्याय जी का सिद्धांत यही है कि शासन-प्रशासन की तरफ से जो भी नीतियां बनें, वे ‘अंत्योदय’ यानी समाज के अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को ध्यान में रखकर ही बनें। जब तक समाज के अंतिम पायदान पर खड़ा व्यक्ति दुखी रहेगा, तब तक मात्र बड़े-बड़े शहरों के विकास के कोई मायने नहीं हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राष्ट्र एवं समाज को यदि सर्वदृष्टि से आगे ले जाना है तो प्रभु श्रीराम के आदर्शों पर चलने के अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। महाकवि कालिदास ने प्रभु श्रीराम के व्यक्तित्व की तुलना हिमालय और सागर के साथ करके बता दिया है कि राम व्यक्ति नहीं राष्ट्र हैं, भारत और उसकी सनातन परंपरा के लिए राम ही राष्ट्र हैं और राष्ट्र ही राम है। भारत के कण-कण में राम हैं। भारत के चरित्र ही नहीं बल्कि भारत के अस्तित्व के आधार राम हैं।
तमाम लोग कहते हैं कि क्या आज के समय में ‘राम राज्य’ की कल्पना की जा सकती है, तो इस दृष्टि से यदि विचार किया जाये तो निःसंदेह कहा जा सकता है कि कुछ भी संभव है, क्योंकि मुगलों एवं अंग्रेजों की एक हजार वर्ष की लंबी गुलामी के बावजूद भारत आज भी अपनी सभ्यता-संस्कृति बचाने में कामयाब है तो कुछ भी असंभव नहीं है। पांच सौ वर्षों के इंतजार के बाद आज प्रभु श्रीराम यदि अयोध्या धाम में विराजमान हुए हैं तो इसके बारे में कितने लोगों ने कल्पना की थी, मगर ऐसा हुआ। बस, आवश्यकता इस बात की है कि उम्मीद कभी नहीं छोड़नी चाहिए। आज के दौर में श्री नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री हैं जो बिना कोई छुट्टी लिये लगातार काम किये जा रहे हैं और वह भी प्रतिदिन 18 घंटे। सकारात्मक भाव से यदि कोई अच्छा काम करने का विचार बना लिया जाये तो कुछ भी असंभव नहीं है।
वैसे भी, जब से अयोध्या धाम में प्रभु श्रीराम विराजमान हुए हैं, तब से भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में इस बात की चर्चा हो रही है कि आखिर राम राज्य है क्या? राम के राज्य में प्रजा कैसी थी और शासन चलाने का आधार क्या था? 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा से पहले मोदी जी ने विधिवत दस दिनों तक व्रत रखा और विधि-विधान से अनुष्ठान पूरा किया यानी यदि कुछ करने का संकल्प ले लिया जाये तो दैवीय शक्तियां उसे पूरा करने में मदद करती हैं। चूंकि, इस समय पूरे विश्व में अधिकांश देशों में शासन-प्रशासन के संचालन हेतु अलोकतांत्रिक व्यवस्था है इसलिए लोकतांत्रिक सिस्टम से जुड़े लोगों की सर्वाधिक जिमेदारी बनती है कि वे प्रभु श्रीराम के आदर्शों पर ही चलकर राष्ट्र एवं समाज का समग्र दृष्टि से कल्याण करें। इस रास्ते पर चलने के अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। देर-सवेर इसी रास्ते पर आना पड़ेगा।
– सिम्मी जैन (दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।)