अपने देश में कोचिंग जिस तरह से उद्योग का रूप लेता जा रहा है, उससे तो यही लगता है कि किसी भी प्रकार की समस्या के लिए कोचिंग बेहद जरूरी है। वैसे भी कोचिंग सेंटरों द्वारा इसी प्रकार का माहौल बनाया जा रहा है। इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आखिर इस प्रकार का वातावरण बना ही क्यों? यदि ऐसा होता तो सब जगह कोचिंग सेंटरों के बच्चे ही सफल होते किंतु मीडिया एवं सोशल मीडिया के माध्यम से अकसर यह जानने एवं देखने-सुनने को मिलता रहता है कि आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चे भी उच्च स्तर की परीक्षाओं में सफल हो रहे हैं।
दरअसल, समाज में ऐसी अवधारणा लगातार विकसित होती जा रही है कि बिना कोचिंग बड़ी कामयाबी हासिल नहीं की जा सकती है, जबकि इतिहास गवाह है कि जिन्होंने यह सोच लिया कि वे बिना कोचिंग के ही कामयाबी हासिल करेंगे तो उन्हें कामयाबी मिल भी जाती है। अपने समाज में एक कहावत प्रचलित है कि ‘मरता क्या नहीं करता’ यानी जो व्यक्ति मरने की कगार पर होता है, वह अपने आप को जीवित रखने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है।
इसी प्रकार जिस बच्चे को यह मालूम है कि उसकी आर्थिक स्थिति कोचिंग की फीस वहन करने की नहीं है और उसमें कुछ करने की ललक है तो वह उसी के अनुरूप परिश्रम करता है और उसे कामयाबी मिल भी जाती है इसीलिए यह जरूरी नहीं है कि बिना कोचिंग के कोई बड़ी कामयाबी हासिल नहीं की जा सकती है। वैसे भी, ऐसा कोई जरूरी नहीं है कि मोटी फीस देकर कोचिंग में पढ़े बच्चे हमेशा कामयाब ही हो जायें, इसलिए इस भ्रम को सर्वदृष्टि से तोड़ने की आवश्यकता है कि कामयाबी के लिए कोचिंग बहुत जरूरी है।
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राजस्थान का औद्योगिक शहर कोटा वर्तमान में कोचिंग उद्योग का रूप ले चुका है किंतु आजकल वहां से भी बहुत अच्छी खबरें देखने एवं सुनने को नहीं मिल रही हैं। कोटा में जो बच्चे कोचिंग कर रहे हैं, उनमें से तमाम बच्चे भीषण तनाव की चपेट में हैं। ऐसी स्थिति में तनावग्रस्त बच्चे कभी-कभी आत्महत्या तक भी पहुंच जा रहे हैं। कोटा में इस वर्ष अभी तक 25 बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं और ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है।
कोटा की समस्या का त्वरित समाधान निकालने के लिए राजस्थान सरकार ने एक समिति गठित की है। हालांकि, ऐसी समितियों और उसकी रिपोर्ट से कोई विशेष उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। कोटा के मामले में त्वरित सुधार की आवश्यकता है। कोचिंग बच्चों के जीवन की आवश्यकता न बन पाये, इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि सरकारी शिक्षा को और सुव्यवस्थित किया जाये और उसमें भी प्राइमरी शिक्षा की तरफ विशेष रूप से ध्यान दिया जाये। बच्चों को बार-बार यह न बताया जाये कि अमुक कोचिंग सेंटर में पढ़ने वाले इतने बच्चे कामयाब हुए बल्कि उन बच्चों के बारे में भी अधिक से अधिक बताने का काम किया जाये जो बिना कोचिंग के कामयाब हुए हैं।
कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि कोचिंग सेंटरों की महानता को बढ़ा-चढ़ा कर बताने की परंपरा से बचा जाये और उन बच्चों को रोल माॅडल के रूप में पेश किया जाये जो अपनी मेहनत से बिना कोचिंग के कामयाब हुए हैं।
– जगदम्बा सिंह