
सनातन धर्म के शास्त्रों और भारत के संविधान में सेवा का उद्देश्य और महत्व परस्पर एक दूसरे का पूरक है। वर्तमान में सेवा जहां एक ओर मासिक वेतन पर निर्भर हो चुकी है वहीं सनातन परंपरा और धर्मशासत्रों के अनुसार यही सेवा एक निजी कार्य होता था जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने वर्तमान और पूर्व के कर्मों को यही भोग कर उनसे मोक्ष पाना चाहता था।
सनातन धर्मशास्त्रों के अनुसार सेवा का उद्देश्य और महत्व –
सनातन धर्म में सेवा (सेवा-धर्म) को एक पवित्र कर्तव्य माना जाता है, जो आत्मिक उन्नति, सामाजिक समरसता और ईश्वर की प्राप्ति का साधन है।
भगवद्गीता (18.46) में कहा गया है कि निष्काम कर्म (बिना स्वार्थ के सेवा) आत्मा को शुद्ध करता है और मोक्ष की ओर ले जाता है। सेवा को कर्मयोग का हिस्सा माना गया है, जहां कर्म को ईश्वर को समर्पित किया जाता है।
उपनिषदों और पुराणों में ‘परहित’ को सर्वोच्च धर्म बताया गया है। जैसे, ‘आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च’ (आत्मा के मोक्ष और विश्व के कल्याण के लिए) सनातन धर्म का मूल मंत्र है। सनातन धर्म में सेवा को समाज के कमजोर वर्गों, जैसे गरीब, असहाय और रोगी, के प्रति करुणा और सहायता के रूप में देखा जाता है, जो समाज में एकता और समानता को बढ़ावा देता है।
सेवा से व्यक्ति में करुणा, दया और नम्रता जैसे गुण विकसित होते हैं। यह ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ (विश्व एक परिवार है) की भावना को मजबूत करता है। पुण्य और कर्मफलरू मनुस्मृति और अन्य शास्त्रों में सेवा को पुण्य कर्म माना गया है, जो सकारात्मक कर्मफल देता है।
श्रीमद्भागवतम् में कहा गया है कि जीवों की सेवा ही ईश्वर की सेवा है। भगवान कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि सभी प्राणियों में ईश्वर का वास है, अतः उनकी सेवा ईश्वर की पूजा है। सनातन धर्म में गुरु, अतिथि और जरूरतमंदों की सेवा को विशेष महत्व दिया गया है। जैसे, ‘अतिथि देवो भव’ (अतिथि भगवान के समान है)।
अब अगर यहां हम भारत के संविधान के अनुसार सेवा का उद्देश्य और महत्व देखें तो यहां हमें सेवा का एक अलग ही अंदाज, रूप और महत्व देखने को मिलता है। असल में भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ढांचे के तहत सेवा को सामाजिक न्याय, समानता और नागरिक कर्तव्यों से कानूनों से बंध है। इसलिए इसमें सेवा का उद्देश्य क्या है यह धर्म के आधार पर तय नहीं किया जा सकता।
वैसे तो संविधान की प्रस्तावना में ‘न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व’ को सुनिश्चित करने की बात कही गई है। लेकिन, ऐसा बहुत ही कम देखने और सुनने को मिलता है। संविधान के अनुसार सेवा का उद्देश्य समाज के वंचित वर्गों (जैसे अनुसूचित जाति, जनजाति, महिलाएं, और आर्थिक रूप से कमजोर लोग) को मुख्यधारा में लाना है। लेकिन यहां भी हमें ऐसा कोई ठोस निवारण नहीं मिलता जो यह साबित कर सके कि सैवेधानिक नियमों के तहत की गई सेवा के माध्यम से किसी समाज या परिवार का दूखः-दर्द आदि समाप्त हो गया हो।
राष्ट्र निर्माण के विषय में देखें तो इसमें संविधान के अनुच्छेद 51ए के माध्यम से मूल कर्तव्यों के अनुरूप नागरिकों से अपेक्षा की गई है कि वे राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव और पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य करें। सेवा राष्ट्र के विकास और एकता का आधार है। लेकिन, आज ऐसे बहुत ही कम उदाहरण मिलते हैं जहां सनातन धर्म के अनुसार दिखता है।
लोक कल्याण की बात करें तो संविधान के नीति-निर्देशक तत्व भी सरकार को यह निर्देश देते हैं कि वह जनता की सेवा के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक कल्याण जैसे क्षेत्रों में कार्य करे। लेकिन सामाजिक कल्याण के नाम पर सरकारें, नेता और पार्टियां अपना स्वयं का कल्याण करने में हमेशा सबसे आगे और तत्पर रही हैं।
सनातन के धर्मगं्रथों से हट कर बात यदि संविधान के आधार पर सामाजिक समरसता की करें तो यहां भी संविधान में सेवा को सामाजिक असमानताओं को दूर करने और समाज में समरसता स्थापित करने के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। जबकि आये दिन होने सांप्रदायिक दंगों के नतीजे सबके सामने हैं।
संविधान में नागरिक कर्तव्यों को विशेष तौर पर निर्देशित किया गया है जबकि सनातन परंपरा में कर्तव्यों को निर्देशित करने की आवश्यकता ही नहीं होती है। संविधान में उल्लिखित मूल कर्तव्यों में नागरिकों के कर्तव्या और सेवा भावना निहित है, जैसे कि मानवतावादी मूल्यों को बढ़ावा देना और कमजोर वर्गों की सहायता करना। जबकि सनातन परंपरा में कमजोर वर्ग की व्याख्या नहीं मिलती, केवल वर्णव्यवस्था की व्याख्या मिलती है।
वर्तमान परिस्थितियों में लोकतांत्रिक मूल्यों को सेवा के माध्यम से नागरिक और सरकार मिलकर मजबूत करने का प्रयास करते हैं, जिसमें सामाजिक समानता और अवसरवाद की संभावनाएं शामिल है।
सरकार संविधान द्वारा प्रेरित योजनाएं जैसे मिड-डे मील, मनरेगा और आयुष्मान भारत जैसी सेवाओं के सिद्धांत को लागू करती हैं, जो सामाजिक और आर्थिक उत्थान के लिए हैं। लेकिन, प्राचीनकाल में यहां तक की अभी मात्र कुछ वर्षों और दशकों पूर्व तक भी कई ऐसे समाजसेवी थे जो संस्थाओं और सरकारों से अलग एक प्रकार की सेवा का कार्य करते थे। आज भी उनके प्रमाण हमारे सामने हैं।
हालांकि, सनातन धर्म और संविधान में सेवा का भाव कुछ हद तक समानता को दर्शाता तो है लेकिन, उनके उद्देश्य और मानसिकता मेल नहीं खाते। सनातन धर्म में सेवा का आधार आध्यात्मिक और नैतिक है, जबकि संविधान में यह कानूनी और सामाजिक ढांचे पर आधारित है।
सनातन धर्म में सेवा व्यक्तिगत और स्वैच्छिक हो सकती है, जबकि संविधान में यह नागरिक कर्तव्य और सरकारी दायित्व के रूप में देखी जाती है। सनातन धर्म और भारत का संविधान दोनों ही सेवा को मानव जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं। सनातन धर्म इसे आत्मिक और सामाजिक उत्थान का साधन मानता है, जबकि संविधान इसे सामाजिक न्याय और राष्ट्र निर्माण का आधार बनाता है। दोनों मिलकर यह संदेश देते हैं कि सेवा न केवल व्यक्तिगत विकास के लिए, बल्कि समाज और राष्ट्र के कल्याण के लिए भी आवश्यक है।
– अजय सिंह चौहान
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