भारत सहित पूरे विश्व में समस्याओं का अंबार लगा हुआ है। इन सभी समस्याओं में बेरोजगारी की समस्या सबसे प्रमुख बन गई है। यह समस्या मात्र भारत की ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की बन चुकी है। बेरोजगारी से निजात पाने के लिए लोग अपनी जन्मभूमि एवं भारत भूमि को छोड़ने के लिए विवश होते हैं। जन्मभूमि से मेरा आशय इस बात से है कि अपने ही देश में रोजी-रोटी की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर लोग चले जाते हैं। भारत भूमि की बात की जाये तो तमाम लोग अपना देश छोड़कर रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे देशों में जाकर बस जा रहे हैं। ये दोनों ही परिस्थितियों में व्यक्ति को बहुत पीड़ा होती है। कोई भी व्यक्ति रोजगार की तलाश में यत्र-तत्र चला तो जाता है किंतु इसकी कीमत बहुत अधिक चुकानी पड़ती है। रोजगार की तलाश में आज भारत के कितने गांव खाली हो चुके हैं। उन गांवों के तमाम घरों में कोई दीया-बाती जलाने वाला भी नहीं है। ऐसे गांवों में तमाम घर तो ऐसे हैं जहां सिर्फ बुजुर्ग बचे हैं, उनका काम सिर्फ घर की रखवाली एवं कुल देवी-देवताओं की पूजा-पाठ ही रह गया है। बुढ़ापे में ही लोगों को सहारे की जरूरत सबसे अधिक पड़ती है। कुछ बुजुर्गों की समस्या यह है कि वे अपना घर एवं गांव छोड़कर कहीं जाना भी नहीं चाहते हैं। उनकी इच्छा होती है कि उनका अंतिम समय उनके अपने पुश्तैनी घरों में बीते।
गांवों से शहरों की तरफ जो बेतहाशा पलायन हुआ है, उसके यदि साइड इफेक्ट की बात की जाये तो कम नहीं हैं। गांवों से निकल कर युवा शहरों में जितना कमा रहे हैं, उससे कहीं अधिक गांवों में उनकी खेती-बाड़ी, पशु-पालन आदि का नुकसान हो रहा है। शहरों की आबादी अत्यधिक बढ़ने से यहां आवास, बिजली, स्वास्थ्य, परिवहन, रोजगार, शिक्षा, पर्यावरण, जल, आदि की समस्या बहुत अधिक गहरा गई है। आखिर शहरों की भी अपनी सीमा है, वे भी आबादी का कितना बोझ झेलें। शहरों के मूल निवासियों को लगता है कि बाहर वालों ने उनकी समस्याएं बढ़ा दी हैं तो गांव वालों का कहना है कि यदि गांवों में भी शहरों जैसी सुविधाएं मिलने लगें तो उन्हें शहर जाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी यानी गांवों में भी यदि शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, रोजगार, आवास, बिजली जैसी सुविधाएं भरपूर हों तो गांवों से शहरों की तरफ पलायन होगा ही नहीं। ऐसी स्थिति में बिना किसी लाग-लपेट के कहा जा सकता है कि गांवों से शहरों की तरफ बेतहाशा पलायन से गांव और शहर दोनों का संतुलन बिगड़ गया है। अब ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि इसका समाधान क्या है? गांव और शहर का संतुलन तो किसी भी कीमत पर बनाना ही होगा अन्यथा दोनों यानी गांव एवं शहर दुखी रहेंगे। इस संबंध में जहां तक मेरा विचार है कि गांवों को आबाद करने के लिए कृषि का समग्र उत्थान करना ही होगा। इससे भारत की सभी समस्याओं का न सिर्फ निदान होगा, अपितु भारत अपने स्वर्णिम युग में भी पहुंच जायेगा।
गांवों का समग्र उत्थान इसलिए भी जरूरी है कि भारत जिस समय दुनिया का विश्व गुरु था, उस समय भारत के उत्थान की प्रमुख वजह यहां की कृषि एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था ही थी। आज भी यदि भारत की अधिकांश आबादी गांवों में रहती है तो क्यों न उसी के विकास में लगा जाये। युवाओं के बाहर जाने से काफी मात्रा में ऐसी भूमि चिन्हित की गई जिसकी देखभाल न होने के कारण बंजर हो रही है या हो जायेगी। काफी भूमि इसलिए भी बंजर हो रही है कि केमिकल, उर्वरक एवं कीटनाशक दवाओं के कारण उसका बहुत अधिक दोहन हुआ है। ऐसी स्थिति में पहली बात तो यह है कि गांवों में कृषि का यदि समग्र विकास करना है तो सबसे पहले बंजर भूमि को यथासंभव उर्वरा भूमि में बदलना होगा, जिससे अनाज का उत्पादन बढ़ाया जा सके।
‘सी.एस.ई.’ और ‘डाउन टू अर्थ’ मैगजीन की ‘‘स्टेट आफ इंडियाज एनवायरमेंट 2017’’ की प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार भारत की जमीन लगातार बंजर होती जा रही है। यह भारतीय कृषि के लिए मूलभूत खतरा है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत की तीस प्रतिशत जमीन खराब या बंजर होने की कगार पर है। भारत का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 328.72 मिलियन हेक्टेयर (एम.एच.ए.) है। इसमें 96.4 एम.एच.ए. बंजर हो गया है। राजस्थान, दिल्ली, गोवा, महाराष्ट्र, झारखंड, नागालैंड, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश में 40 से 70 प्रतिशत जमीन बंजर बनने वाली है। इसके अलावा 29 में से 26 राज्यों में पिछले दस साल के दौरान बंजर भूमि में इजाफा हुआ है। बंजर भूमि को ऐसी भूमि के रूप में परिभाषित किया जाता है जो सूख जाती है और क्षेत्र से नमी खत्म हो जाती है। यह क्षेत्र अपनी वाटर बाॅडीज को खो देता है। साथ ही वनस्पति और वन्य जीव भी नष्ट हो जाते हैं। बंजर जमीन कृषि कार्यों के लिए उपयोगी होती है। इसी कारण देश की 10.98 प्रतिशत जमीन बंजर है।
देश के लिए आज एक प्रमुख बात यह भी है कि खेती से लोग भाग रहे हैं। अच्छे से अच्छे किसान भी अपने बच्चों को न तो किसान बनाना चाहते हैं और न ही गांवों में रखना चाहते हैं। इसका कारण यदि उनसे पूछा जाये तो अधिकांश किसानों का यही कहना होता है कि कृषि अब घाटे का सौदा हो गई है, यहां सिर्फ समय बर्बाद करना है। किसान यदि यह कहने लगे कि वह किसानी करके न तो अपने बच्चों को ठीक से पढ़ा-लिखा सकता है, न ही उनका ठीक से भरण-पोषण कर सकता है और न ही उनका इलाज करवा सकता है, तो ऐसी स्थिति में कृषि करने के लिए आगे बढ़ेगा कौन? कृषि प्रधान देश भारत में कृषि की स्थिति ऐसी क्यों बनी, इसकी गहनता से विश्लेषण की आवश्यकता है। वैसे देखा जाये तो कोई भी समस्या अचानक से नहीं पैदा होती है। ऐसी स्थितियां बनने में वक्त लगता है।
दरअसल, भारत में अंग्रेजी शासन के दौरान सुनियोजित रूप से कृषि को बरबाद करने का कार्य किया गया। अंग्रेजी शासन काल में भारत की साक्षरता दर कम थी और आधुनिक तकनीकी से किसान परिचित भी नहीं थे। भारतीय किसानों की इसी कमजोरी का अंग्रेजों ने लाभ उठाया। एक समय ऐसा था जब भारत कृषि के क्षेत्र में पूरे विश्व में प्रथम स्थान रखता था किंतु आज यह दर्जा चीन ले चुका है। चूंकि, कृषि क्षेत्र से भारत की स्थिति जुड़ी हुई है। यदि कृषि की स्थिति खराब होगी तो भारत की आर्थिक सेहत भी खराब होगी। हालांकि, आजादी के बाद कृषि की सेहत को सुधारने के लिए कई कदम उठाये गये, किंतु उससे बहुत अधिक परिवर्तन देखने को नहीं मिला। इन प्रयासों से किसानों की स्थिति में मुश्किल से 19-20 का फर्क देखने को मिला। कृषि का समग्र विकास न होने से पूरे देश में बेरोजगारी बढ़ी, अमीर-गरीब के बीच खाई और अधिक बढ़ती गई। अमीर और अधिक अमीर होते गये तो गरीब और अधिक गरीब होते गये। ऐसी स्थिति किसी भी देश के लिए बहुत खराब होती है। इससे निजात पाना बहुत जरूरी होता है।
‘कृषि में लागत अधिक और लाभ कम’ की बात की जा रही है तो इस तरफ ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। आबादी बढ़ रही है और खेती कम होती जा रही है तो निश्चित रूप से यह चिंता का विषय है। खेती महंगी क्यों हुई और इस क्षेत्र से लोगों ने मुंह मोड़ा तो उसकी तह में जाना ही होगा। इस दृष्टि से यदि चर्चा की जाये तो देखने में आता है कि औद्योगिकीकरण और नगरीकरण के कारण कृषि योग्य भूमि में निरंतर गिरावट आई, पेस्टिसाइड के उपयोग से कृषि लागत में बढ़त हुई, कृषि में निवेश का अभाव, प्रभावी नीतियों का अभाव, प्राकृतिक और आधुनिक संसाधनों के सही उपयोग का अभाव, भारतीय कृषि का काफी हद तक मानसून पर निर्भर होना, भूजल के स्तर में भारी गिरावट, फसल की कीमत किसान द्वारा तय होने की बजाय सरकार और उपभोक्ता मंडी द्वारा तय होना, कर्ज, महंगाई और सूखा से लाचार किसान, विमुद्रीकरण का प्रभाव, सिंचाई सुविधा की कमी, किसान उत्पादक संगठनों की अक्षमता, उर्वरकों की समय पर आपूर्ति न होना, छोटे किसानों की संख्या में लगातार वृद्धि, महाजनों एवं बिचैलियों से किसानों की दुर्दशा सहित तमाम ऐसे कारण हैं जिससे किसानों एवं कृषि की स्थिति खराब होती गई। एक बात अपने आप में यह भी सत्य है कि किसी भी बीमारी की जड़ यदि पकड़ में आ जाये तो उसका इलाज किया जा सकता है किंतु इसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति की जरूरत होती है। यदि दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो कुछ भी किया जा सकता है।
इन परिस्थितियों में प्रश्न यह उठता है कि आखिर कृषि की स्थिति को सुधारा कैसे जा सकता है। इस संबंध में जहां तक मेरा मानना है कि सर्व प्रथम कृषि का खोया सम्मान वापस लाने की आवश्यकता है यानी कृषि के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं धार्मिक पहलुओं की व्याख्या करनी पड़ेगी और लोगों को यह बताना पड़ेगा कि यदि हम अपने पूर्वजों की जमीन पर वापस आकर खेती-बाड़ी एवं देखभाल करेंगे तो हमारे पूर्वज और कुल देवी-देवता प्रसन्न एवं संतुष्ट होंगे। आज की युवा पीढ़ी इस बात को भले ही गंभीरता से न ले किंतु यह सत्य है कि पूर्वज एवं कुल देवी-देवता यदि खुश होते हैं तो समृद्धि के द्वार खुल जाते हैं। इसके अलावा एक महत्वपूर्ण बात यह है कि शहरों में धक्का खाने एवं जलील होने के बजाय गांवों में जाकर सम्मान की जिंदगी जीने का संकल्प ले लिया जाये तो तमाम रास्ते अपने आप खुलने लगते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने गांवों एवं कृषि के विकास के लिए तमाम योजनाओं की शुरुआत की है। इन योजनाओं का लाभ उठाकर लोग गांवों में अपना भविष्य सुधार सकते हैं। सरकार ने कृषि को प्रोत्साहन देने की तमाम योजनाएं गंभीरता से चला रही है। गांवों को समृद्ध बनाने के लिए सिंचाई व्यवस्था, रासायनिक खाद्यों की बजाय देशी खाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी, सड़क, परिवहन आदि की व्यवस्था को दुरुस्त किया जा रहा है। इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि पूरे देश को इस मामले में जागरूक करने एवं बताने की आवश्यकता है कि वास्तव में शहरों के बारे में जैसा सोचा जा रहा है, वैसा है नहीं। दूर से देखने-सुनने में शहर बहुत खूबसूरत लगते हैं किंतु वैसे हैं नहीं। घुमने-फिरने के लिए तो ठीक हैं किंतु स्वास्थ्य की दृष्टि से सदैव के लिए उत्तम नहीं हैं। वैसे भी देखा जाये तो कहा जा सकता है कि शहरों का वजूद भी तो गांवों की वजह से ही है। गांवों में यदि खेती-बाड़ी बंद हो जाये तो शहर वैसे ही बेबश हो जायेंगे।
शहर एवं गांव दोनों आबाद रहें, इसके लिए लोगों के बीच जन जागरण चलाना होगा और ग्रामीणों में इस बात का विश्वास पैदा करना होगा कि गांव शहर से किसी मामले में कम नहीं हैं। हमारे देश में अतीत में गांवों की जो जीवनशैली एवं रोजी-रोटी के साधन थे, उसे पुनर्जीवित करना होगा। अतीत में गांवों में रोजी-रोटी का मुख्य जरिया कृषि हुआ करती थी किंतु उसके साथ-साथ अन्य छोटे-छोटे काम धंधे और भी थे, जो सरकारी निष्क्रियता एवं नीतियों के कारण बंद हो गये। उस पर ध्यान फोकस करने की जरूरत है। ग्रामीण उद्योग-धंधों एवं छोटे-छोटे जो भी काम थे, यदि उन्हें पुनः जीवित कर दिया जाये तो ग्रामीण भारत के प्रति लोगों का रुझान या झुकाव फिर से शुरू हो जायेगा।
इस संबंध में मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि शहर में यदि कोई बीस हजार रुपये प्रति माह कमाता हो, यदि गांव में रहकर उसे दस हजार रुपये की व्यवस्था हो जाये तो वह गांव में रहकर ही अपने आपको सुखी एवं संतुष्ट महसूस करेगा। आज देश में इस बात को प्रचारित-प्रसारित करने की आवश्यकता है कि ऋण लेकर घी पीने की स्थिति ठीक नहीं है क्योंकि चकाचैंध की दुनिया में अकसर धोखा ही मिलता है। लोगों को यह भी समझाना होगा कि सुपर बाजार एवं माल हमेशा ठीक नहीं होते। कोरोनाकाल में स्पष्ट रूप से देखने को मिला कि जिन कंपनियों से आन लाइन आर्डर देकर सामान घर बैठे लोग मंगवा लेते थे, वे काम नहीं आई। काम गली-मोहल्ले के दुकानदार ही आये। कोरोना की पहली लहर में शहर छोड़कर लोग जब गांव जाने लगे तो तब यही कहा गया कि गांवों से नाता जोड़कर रखना चाहिए।
कुल मिलाकर कहने का सीधा सा अभिप्राय यह है कि सरकार गांवों एवं कृषि के समग्र उत्थान पर ध्यान दे, उसके लिए उसे जो कुछ भी करना पड़े प्राथमिकता के आधार पर करे किंतु इसके साथ-साथ समाज को भी गांव एवं कृषि की महत्ता एवं उपयोगिता को स्थापित करने के लिए आगे आना होगा। जो लोग गांव में जाकर स्थायी रूप से बस नहीं सकते, वे व्यक्तिगत स्तर पर गांव एवं कृषि के लिए जो योगदान दे सकते हैं, देना चाहिए। जिस दिन गांवों एवं कृषि के लिए थोड़ा-बहुत सभी लोग अपना योगदान देने लगेंगे तो फिर से यह कहना शुरू हो जायेगा कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। इसी भावना के आधार पर कृषि के समग्र उत्थान से गांव आबाद होंगे। जब गांव आबाद होंगे तो शहर भी आबाद होंगे, क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और इसी समन्वय एवं संतुलन को निरंतर बनाये रखने की आवश्यकता है और यही स्थिति भारत के लिए सर्वोत्तम होगी। इस सर्वोत्तम स्थिति के लिए सबको मिलकर काम करने की आवश्यकता है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर) (पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव, भा.ज.पा.)