
राजधानी दिल्ली में, दिल्ली गेट और फिरोजशाह कोटला (History of Firoz Shah Kotla Delhi) क्रिकेट स्टेडियम के निकट प्राचीन किलेबन्दी में एक बस्ती है जिसे “फिरोजशाह कोटला” कहा जाता है। इसके वर्तमान नाम मात्र से ही यह मान लिया गया है कि अपने महल के रूप में इसका निर्माण फिरोजशाह तुगलक ने ही किया था। किन्तु इसकी ऊपरी मंजिल में एक अशोक स्तम्भ दृढ़तापूर्वक गड़ा हुआ जो बताता है की इसका वास्तविक इतिहास क्या रहा है।
सोचने वाली बात है कि अपने क्रूर स्वभाव के लिए जो फिरोजशाह पहले ही के कुख्यात था भला वह ‘हिन्दू’ नाम की किसी भी बात को सहन कैसे कर सकता था। इतिहास में उल्लेख है कि मूर्तिपूजा के अपराधियों को वह जीवित जला दिया करता था। यह विश्वास करना नितान्त तर्कहीन है कि इस प्रकार का शासक स्वयं अपनी ही इच्छा से, अपने ही राजमहल में हिन्दू धर्मोपदेशों से उत्कीर्ण एक अशोक स्तम्भ गड़वा लेगा! इसकी छाया में फिरोजशाह को कभी नींद आ ही नहीं सकती थी।
तथ्य यह है कि स्तम्भ का कटा हुआ शीर्ष भाग दर्शाता है कि अपने धर्मान्ध रोष में फिरोजशाह ने इस स्तम्भ को उखाड़ फेंकने का यत्न अवश्य किया होगा। किन्तु स्पष्ट है कि इससे समस्त महल ही नष्ट हो गया होता और इस महल की छत के निचले भाग में एक बहुत बड़ा छेद बना ही रहता। हताशा हो, उसे इसी ऊँचा सिर किए काफ़िर-स्तम्भ ह महल में रहना पड़ा जो उसे अस्थिरता, विद्रोह और अनवरत संघर्ष के दिनों में एक उपयुक्त स्थान प्रतीत हुआ।
उसके शासन का एक अतिरंजित वर्णन शम्स-ए-शीराज-अफीफ नामक स्वयं नियुक्त, एक चाटुकार तिथि-वृत्तकार ने लिखा है। वह स्वीकार करता है कि उसका पितामह फिरोजशाह का समकालीन था। अफवाहें फैलाने वालों के नित्याभ्यास की ही भाँति वह कल्पित और अतिरंजित वर्णनों के लिए जिन आधिकारिक स्रोतों का उल्लेख करता है उनमें ‘मेरे पिता ने मुझे बताया’ अथवा ‘सुविज्ञ इतिहासज्ञों के आधार पर मैं कहता हूँ…’ आदि अनेक वाक्य भरे पड़े हैं। उस तिथिवृत्त में वह कल्पना करते हुए वर्णन करता है कि किस प्रकार दिल्ली से अति दूरस्थ स्थान पर प्राप्त इन दो अशोक स्तम्भों को उखाड़कर और सैकड़ों गाड़ियों और हजारों मजदूरों को नियुक्त कर इन सबको दिल्ली तक ढोने का कठोर परिश्रम फिरोजशाह ने किया।
दिल्ली में अपने महल में एक काफिर-स्तम्भ को गड़वाने का क्या प्रयोजन था, यह तो केवल खुदा को ही मालूम है। स्पष्टतः यह वर्णन इस तथ्य को झुठलाने का एक यत्न है कि फिरोजशाह को अपने निवास-स्थान के लिए वह भवन चुनना पड़ा जिसमें अशोक स्तम्भ गड़ा हुआ था। अतः यह स्पष्ट है कि या तो स्वयं महाराजा अशोक ने मूलरूप में यह महल बनवाया जो आज छद्मरूप में कोमलकान्त पदावली में फिरोजशाह कोटला कहलाता है, अथवा अशोक के ऊपर स्वाभिमान अनुभव करने वाला कोई परवर्ती क्षत्रिय सम्राट् उस स्तम्भ को उखड़वाकर दिल्ली ले आया और उसने अपने महल में उस स्तम्भ को स्थापित करवा लिया।
बाद में जब फिरोजशाह ने दिल्ली में शासन किया तब उसने उसी महल को, उन संघर्षमय दिनों में कदाचित् सभी स्थानों से बढ़िया आकार का प्राप्त कर, अपना निवासस्थान बना लिया। उसके तिथिवृत्तकार अफीक ने इस तथ्य का कोई स्पष्टीकरण न पाकर कि फिरोजशाह ने एक बलात् अधिगृहीत भवन में निवास किया, इस भ्रम की सृष्टि कर दी, कि यह तो फिरोजशाह ही था जो उस स्तम्भ को दूर से लाया और जिसने उसको अपने महल में गड़वाया था।
राजपूत प्रशस्तियों की साहित्यिक चोरी की गयी –
मेरी उपलब्धियाँ इस निष्कर्ष को भी इंगित करती हैं कि पूर्वकालिक राजपूती अभिलेखों को नष्ट करते समय, अनेक बार मुस्लिम शासक पूर्व-कालीन राजपूतों की यशावली को अपने शासनकाल से जोड़ लिया करते थे। इस प्रकार यह सम्भव है कि अशोक स्तम्भ को किस प्रकार अपने राजप्रासाद में लगाया गया- किसी पूर्ववर्ती राजपूत शासक द्वारा उद्धृत वर्णन महल और उसके कोषागार सहित फिरोजशाह के समय में उसके हाथों में जा पड़ा हो। उस वर्णन की साहित्यिक चोरी की गयी, और उसको फिरोजशाह की स्वयं की उपलब्धियों में जोड़ दिया गया।
जैसा कि स्वर्गीय सर एच. एम. इलियट ने बल देकर कहा है, इसी प्रकार जहाँगीर ने भी अपने शासनकाल को चार चाँद लगाने के लिए, अनंगपाल के शासन के वर्णनों को चुराकर, न्याय- घण्टिका का प्रसंग अपने साथ जोड़ लिया। इससे मुस्लिम-काल के इतिहास का अध्ययन करते समय सदैव मस्तिष्क में रखने योग्य एक नया मूल सिद्धान्त हमें प्राप्त हो गया है। वह सिद्धान्त यह है कि अपने अलोकप्रिय तथा क्रूर शासन को सुप्रिय सिद्ध करने के लिए पूर्व-कालिक राजपूत-गौरव गाथाओं में से सुनहरे पृष्ठों को अपने वर्णनों से संलग्न कर लेना तो मुस्लिम शासकों का नित्य का स्वभाव बन चुका था।
साभार – पी. एन. ओक द्वारा लिखित पुस्तक “भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें” का संक्षिप्त अंश