
संसार में असंख्य व्यक्ति हैं, भिन्न-भिन्न रंग, रूप, रुचि-स्वभाव और मानसिक विकास के हैं, पृथक् पृथक् आदर्श और उद्देश्य वाले हैं, रहन-सहन और आदतों में अलग-अलग हैं। ये व्यक्ति बाहर से सब एक-से ही लगते हैं, पर मन, बुद्धि और स्वभाव से बिलकुल भिन्न हैं। इनके आचरण में जमीन-आसमान का अन्तर है। कुछ से आप के जीवन में नया उत्साह और उन्नति के लिये नवप्रेरणा मिलती है, दूसरों से कोई कुरुचि या विषैली आदत मिल सकती है। अतः अच्छे-बुरे, ऊँचे-नीचे, उन्नतिशील और पतनोन्मुख आदमियों की पहचान बड़ी जरूरी है। आप अच्छे विचार और शुभ संकल्पों वाले व्यक्तियों के सत्संग में रहें और इनसे बचें-
उत वा यः सहस्य प्रविद्वान् मर्तो मर्तं मर्चयति द्वयेन।
अतः पाहि स्तवमान स्तुवन्तमग्ने माकिर्नोदुरिताय धायीः ॥
(ऋग्वेद १।१४७।५)
अर्थात् – आप उन व्यक्तियों से सदैव दूर रहें, जो दूसरों की निन्दा और परच्छिद्रान्वेषण में ही लगे रहते हैं, क्योंकि उनके साथ रहने से अपना स्वभाव भी वैसा ही त्रुटिपूर्ण बन जाता है।
ऐसे व्यक्ति सदा दूसरों की कटु आलोचना और खराबियाँ निकालने में ही लगे रहते हैं। उनमें नैतिक, सांसारिक, व्यापारिक और आत्मिक कोई भी लाभ नहीं होता। उनके संग से पर-दोष-दर्शन की क्षुद्र तथा नीच प्रवृत्ति बढ़ती है।
हम जैसे लोगोंके साथ दिन-रात रहते हैं, गुप्तरूपसे उनके विचार और आदतें भी ग्रहण करते जाते हैं। गुण-अवगुण सब संक्रामक हैं। इसलिये निन्दा करनेकी क्षुद्र प्रवृत्तिवाले व्यक्तियोंसे सदा बचना चाहिये।
अज्ञानियों और मूढ़ जनोंसे दूर रहें!
दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान् दशमे युगे।
अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः ॥
(ऋग्वेद १। १५८।६)
अर्थात् – अज्ञानी व्यक्ति (अपनी मूढता, अज्ञानता, संकुचितता और अल्पज्ञता के कारण) लोभातुर होकर रोग-शोक से दुःख पाते हैं, किंतु धर्मनिष्ठ पुरुष और विज्ञान बढ़ाकर स्वयं बन्धनमुक्त रहते हैं तथा दूसरों को भी संसार-सागर से पार ले जाते हैं।’
अज्ञान से अदूरदर्शिता उत्पन्न होती है। अविकसित व्यक्ति की दर्शन-पद्धति संकुचित रहती है। वह उन चीजों को अनावश्यक महत्त्व देता है, जिनका वास्तव में साधारण-सा स्थान है। अज्ञानी लोग, गुण, कर्म और स्वभाव के स्थान पर पूर्वपुरुषों और माता-पिता के द्वारा अर्जित सम्पत्ति से मनुष्य की उच्चता-नीचता परखते हैं। वे अपनी भेंड़चाल से समझदार आदमियों को भी गुमराह करते हैं।
नादान दोस्त से समझदार दुश्मन ज्यादा अच्छा है, क्योंकि हमें सदा उससे चौकन्ना रहना पड़ता है।
हम साधु पुरुषों के ही साथ रहें !
आप समझदार, विद्वान्, शान्त और संतुलित रहने वाले व्यक्तियों के ही साथ रहें, जिससे आपको सुरुचि और सज्ञान मिले, उसीका सत्संग करें। झगड़ालू और उत्तेजक स्वभाव वालों से दूर रहें।
मा नो अग्नेऽव सृजो अघायाऽविष्यवे रिपवेदुच्छुनायै।
मा दत्वते दशते मादते नो मा रीषते सहसावन् परा दाः ॥
(ऋग्वेद १। १८९।५)
अर्थात् – याद रखिये, इस समाज में आपके चारों ओर अच्छे-बुरे सभी प्रकार के आदमी हैं। यहाँ मंगल मृदु स्वभाव वाले सज्जन पुरुष भी हैं और बाघ, सर्प, बिच्छू आदि हिंसक विषैले जीव-जन्तु भी बड़ी संख्या में छिपे हुए हैं। बल्कि ये दूसरी कोटि में विषैले व्यक्ति अधिक हैं और आपको परेशान करने का मौका ढूँढ़ते रहते हैं।
इसलिये समझदार मनुष्य को चाहिये कि इन असाधुओं से बचकर साधु-पुरुषों का साथ करे, शुभकर्मों को ही ग्रहण करे और दुष्कर्मों से दूर रहे।
हमारे कर्म का कभी नाश नहीं होता। कल्याणकारी धर्म-कर्म, दूसरों की सेवा और सहायता, पुण्य-कार्य सदा ही देर-सबेर फलदायक होते हैं। इस लोक और परलोक में धर्मको ही सबसे श्रेष्ठ कहा है। बुद्धिमान् धर्म से बढ़कर किसी को बड़ा नहीं कहते-
धर्म एव कृतः श्रेयानिह लोके परत्र च ।
तस्माद्धि परमं नास्ति यथा प्राहुर्मनीषिणः ॥
अर्थात् – धार्मिक प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों के साथ रहिये। उनसे आपको जीवन और जगत्सम्बन्धी उत्तमोत्तम रहस्य प्राप्त होंगे। उनके आचरण, वाणी, कर्म से आपके उन्नतिशील जीवन को प्रेरणा प्राप्त होगी।
आयुर्नसुलभं लब्ध्वा नावकर्षेद् विशांपते।
उत्कर्षार्थे प्रयतेत नरः पुण्येन कर्मणा ॥
अर्थात् – यह दुर्लभ आयु पाकर मनुष्य को कभी पाप-कर्म नहीं करना चाहिये। समझदार व्यक्ति को सदा ही पुण्यकर्मों से अपनी और समाज की उन्नति के लिये कार्य करना चाहिये।
हम कटुवचन बोलनेवालोंसे दूर रहें!
कुवाणी का प्रयोग करने वाले, सदा दूसरों को गाली देने या कुवचनों का प्रयोग करने वाले असभ्य व्यक्तियों से दूर रहना चाहिये। ये लोग पशुतुल्य होते हैं और मनुष्य की सबसे बड़ी विभूति वाणी का दुरुपयोग करते हैं।
गाली या अश्लील भाषा का प्रयोग करने वाला व्यक्ति अंदर से पशु-प्रवृत्तियों में ही जकड़ा रहता है। गाली समाज के लिये अहितकर है। अंदर छिपे हुए पाप और दुष्ट वासना को प्रकट करने वाला दोष है।
सदा निन्दा, क्रोध तथा कटु वचनों का प्रयोग करने वाले मानसिक दृष्टि से बीमार हैं, वे कुछ भी कर बैठते हैं। उनसे हम सदा दूर ही रहें।
मा नो निदे च वक्तवेऽर्योरन्धीरराव्णे। त्वे अपि क्रतुर्मम ॥
(ऋग्वेद ७। ३१।५)
अर्थात् – ‘हे परमेश्वर ! जो मनुष्य कठोर और निन्दनीय वचन बोलते हों, उनसे हम सदैव दूर रहें। कठोरता, रूक्षता, कर्कशता इत्यादि त्रुटियों से हमारा कोई सरोकार न हो। हमारे सब कार्य आपको ही समर्पित हों अर्थात् हम सदैव शुभकर्म ही करें।’
रूक्षता और कर्कशता आसुरी प्रवृत्तियाँ हैं। ये उस कठोरता की प्रतीक हैं जो असभ्य और दानवी प्रकृति के व्यक्तियों में पायी जाती हैं।
आप सरस और प्रेममय रहें। पीडित और दुःखित के लिये सदा आपका हृदय खुला रहे।
यो मा पाकेन मनसा चरन्तमभिचष्टे अनृतेभिर्वचोभिः ।
आप इव काशिना संगृभीता असन्नस्त्वासत इन्द्र वक्ता ॥
(ऋग्वेद ७। १०४।८)
अर्थात् – मिथ्यावादी और असत्य भाषण करने वाले झूठे व्यक्ति से दूर रहना ही अच्छा है।
झूठा व्यक्ति जब दूसरों को धोखा दे सकता है, तो वह आपका कैसे सगा बन सकता है? जीवन के सैकड़ों कार्य हैं, जो झूठ के कारण हानिप्रद हो सकते हैं। एक झूठ को छिपाने के लिये वह दस नयी और अधिक बड़ी झूठ बोलता है। इसलिये दो-तीन बार परख करने के बाद झूठे का संग त्याग देना ही लाभदायक है।
झूठे का व्यवहार कपटपूर्ण एवं स्वार्थमय होता है। वह स्वार्थसाधन के लिये मित्र तथा सम्बन्धियों से भी विश्वासघात कर सकता है। स्वार्थी और कपटी से सावधान रहें!
यस्तित्याज सचिविदं सखायं न तस्य वाच्यपि भागो अस्ति।
यदीं शृणोत्यलकं शृणोति नहि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम् ॥
(ऋग्वेद १०।७१।६)
अर्थात् – आपको अपनी जीवन यात्रा में ऐसे व्यक्ति मिलेंगे, जो अपने स्वार्थ साधन के लिये किसी से मित्रता कर लेते हैं। फिर जब उनका अपना काम निकल जाता और स्वार्थ सिद्ध हो जाता है, तो उसे त्याग देते हैं। ऐसे कपटी लोगों से एक बार धोखा खाकर सावधान हो जाना चाहिये और फिर कभी उनका विश्वास नहीं करना चाहिये। ऐसे धोखेबाजों को निन्दा और अपयशका भागी बनना पड़ता है।
स्वार्थी और कपटी मनुष्य हमसे दूर रहें। जो दूसरों का अहित ही सोचते हैं और जिनसे जीवन के उत्थान की प्रेरणा नहीं मिलती, वे शुष्क और हृदयहीन हमसे दूर रहें।