
मरघट वाले हनुमान मंदिर का पौराणिक, प्राचीन और मुग़लकालीन इतिहास
अजय सिंह चौहान | राजधानी दिल्ली के कश्मीरी गेट नामक एक व्यस्त और भीड़ वाले स्थान के पास स्थित “मरघट वाले हनुमान मंदिर” का प्राचीन इतिहास बताता है की यह मंदिर पांडवकालीन है, अर्थात यह मंदिर महाभारत काल में स्थापित हुआ था। पौराणिक तथ्यों के अनुसार पांडवों ने जब इंद्रप्रस्थ यानी जो आज की दिल्ली है उसको बसाया था। और उन्होंने यहाँ मात्र यही एक मंदिर नहीं बल्कि ऐसे अन्य अनेक देवालयों की भी स्थापना की थी, जिनमें से मरघट वाले हनुमान जी का यह मंदिर भी एक है। इसके अलावा कालका जी मंदिर और कनाट प्लेस में स्थित “बाल हनुमान मंदिर” भी एक है।
दिल्ली में ऐसे ही और भी कुछ विशेष मंदिर थे जिनकी पांडवों ने स्थापना की थी लेकिन बोद्ध आक्रमणों और फिर मुग़ल आक्रमणों के काल में उनके अस्तित्व भी समाप्त होते चले गए और संभवतः उन्हीं में से एक और वर्तमान में जिसे “झंडेवाली माता मंदिर” के नाम से जाना जाता है वह भी एक हो सकता है। क्योंकि वहां भी प्राचीन मंदिर के साक्ष्य मिल चुके हैं। यदि हमारे पुरातत्व विभाग ने वहाँ से प्राप्त प्रमाणों की जांच की होती तो संभवतः इस बात के संकेत और प्रमाण स्पष्ट तौर पर मिल चुके होते की झंडेवाली माता मंदिर भी कितना प्राचीन है।
राजधानी दिल्ली में स्थित मरघट वाले हनुमान जी के इस नाम की उत्पत्ति के विषय में कहा जाता है की मंदिर के पास ही में प्राचीन काल में एक शमशान यानी मरघट भी हुआ करता था और जो की आज “निगमबोध घाट” के नाम से जाना जाता है इसलिए उसी के नाम से बाबा जी को यह नाम मिला है। यही कारण है की हनुमान जी को यहाँ “मरघट” यानी शमशान वाले हनुमान जी कहा जाने लगा। भारत के प्रथम अंग्रेज पुरातात्विविद कनिंघम सहित इतिहासकार पी.एन. ओक ने भी अपनी पुस्तकों में लिखा है कि पांडवों ने जब इन्द्रप्रस्थ की स्थापना की थी तो यमुना नदी के किनारे, जहां आज निगमबोध घाट है ठीक इसी स्थान पर हनुमान जी का आशीर्वाद और भगवान् श्री कृष्ण की सहायता से एक यज्ञ किया था जिसे “अश्वमेघ यज्ञ” कहा जाता है। इसीलिए आज भी हिन्दुओं में अंतिम क्रिया के लिए निगमबोध घाट का महत्त्व बहुत अधिक है।
मरघट वाले हनुमान जी के इस मंदिर और इसकी स्थापना के बारे में मान्यता है कि हनुमान जी आज भी यहाँ साक्षात वास करते हैं और उनके दर्शनों के लिए आने वाले श्रधालुओं तथा साधकों को मन की शान्ति देते हैं और पास ही के मरघट में आने वाली मृतात्माओं को मुक्ति भी प्रदान करते हैं।
मरघट वाले हनुमान जी के बारे में मान्यता है कि यहाँ स्थापित हनुमान जी की यह मूर्ति स्वयंभू है यानी स्वयं प्रकट हुई मूर्ति है। जबकि कुछ लोगों का ये भी कहना है कि पांडवों ने जब यहाँ हनुमान जी की स्थापना की थी तो उस समय यहाँ जो एक शिला हुआ करती थी उसी में उन्होंने हनुमान जी का अहवान किया और हनुमान जी ने स्वयं को इसमें स्थापित कर लिया था।
मरघट वाले हनुमान जी की इस मूर्ति की विशेषता है की इसमें हनुमान जी का मुख दक्षिण दिशा की ओर है, जबकि अधिकांश मंदिरों में मूर्ति उत्तरमुखी या पूर्वमुखी होती है। और इसमें विराजित हनुमान जी “अक्षय हनुमान” के नाम से भी प्रसिद्ध है।
असल में दक्षिण मुखी हनुमान मंदिरों का रहस्य यह होता है कि दक्षिण दिशा को काल और यमराज का प्रतीक माना जाता है, और हनुमानजी रुद्र यानी शिव के अवतार हैं, अर्थात जो स्वयं काल के नियंत्रक हैं। इसीलिए, दक्षिण मुखी हनुमान जी की पूजा करने वाले को मृत्यु भय, चिंताएं, और सभी प्रकार की नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति मिलती है। हनुमान जी का यह स्वरूप उन समस्याओं का विनाशक है, जो हनुमानजी ने लंका दहन करके किया था, क्योंकि लंका भी दक्षिण दिशा में ही थी।
मरघट वाले हनुमान जी के इस मंदिर के बारे में जानकारों का कहना है कि इसका यह नाम तो वर्तमान में ही प्रचलन में आया है जबकि इसका प्राचीन नाम “पांडव हनुमान मंदिर” या “अंजनानंद हनुमान मंदिर” हुआ करता था। इसलिए प्राचीन और परंपरागत मान्यता के अनुसार, यह मंदिर आज भी उन्हीं के नामों से जाना जाता है। कई प्राचीन ग्रंथों और लोककथाओं में इसे “पांडवकालीन श्रीहनुमान मंदिर” के नाम से संबोधित किया गया है।
यह मंदिर आज भी दिल्ली के सबसे प्राचीन और जीवंत मंदिरों में से एक है और महाभारतकाल से ही इसमें भक्ति-परंपरा भी निरंतर चलती आ रही है। क्योंकि धर्मराज युधिष्ठिर ने जब इंद्रप्रस्थ नगरी की स्थापना की थी तब उन्होंने यहाँ कई देवी-देवताओं के मंदिरों की स्थापना की थी जिनमें से मरघट वाले बाबा यानी यह मंदिर भी एक है।
मंदिर की स्थापना के बाद यहाँ कई सिद्ध और प्रस्सिध ऋषि-मुनि, साधु-संत आदि अपनी साधना और तपस्या आदि के लिए दूर-दूर से आते थे। लेकिन मध्य युगीन बोद्ध आक्रमणों और फिर मुग़ल आक्रमणों के बाद वे यहाँ से पलायन कर गए और फिर धीरे-धीरे मंदिर के आसपास का क्षेत्र मानव बस्तियों में आबाद होता चला गया।
दिल्ली के इस मरघट वाले हनुमान जी के मंदिर की प्रारंभिक और प्राचीन संरचना के बारे में कहा जाता है की पांडवों ने यहाँ अपने समय में इसकी स्थापना के बाद बहुत ही भव्य और दिव्य मंदिर संरचना तैयार करवाई थी। उस समय यह मंदिर बहुत संपन्न भी हुआ करता था।
मुग़ल काल आते-आते यह मंदिर अपना अस्तित्व और समृद्धता को खोता चला गया और आज इसके आसपास विभिन्न प्रकार से सरकारी और गैर सरकारी कब्जे हो चुके हैं। मंदिर के आसपास की भूमि पर घनी आबादी ने घर बना लिए हैं जिसके कारण यहाँ मंदिर की सुन्दरता और खुलापन लगभग समाप्त हो चूका है। मंदिर के पीछे को डेल्ही का एक व्यस्त सडक मार्ग है तो सामने और दायीं-बायीं दिशाओं में आज व्यस्त बाज़ार और आधुनिक भवन निर्माण हो चुके हैं, बावजूद इसके यह मंदिर आज भी अपनी पारंपरिक संरचना और पहचान बनाए हुए है।
दिल्ली में स्थिति इस मरघट वाले हनुमान मंदिर और बाबा खरक सिंह मार्ग पर स्थित “बाल हनुमान मंदिर” की वर्तमान संरचनाओं का इतिहास काफ़ी रोचक है, क्योंकि ये दोनों ही मंदिर प्राचीन काल से अस्तित्व में थे, लेकिन इनकी वर्तमान संरचनाओं की पहचान मुख्यतः 18वीं शताब्दी के बाद की हैं।
मुग़ल काल के आक्रमणों और लूटपाट के बाद इन दोनों ही मंदिरों की संरचनाओं के पुनर्निर्माण का दायित्व जयपुर नरेश सवाई जयसिंह द्वितीय ने निभाया जब वे दिल्ली आए और उन्होंने यहाँ जंतर-मंतर का निर्माण कराया, तभी इन मंदिरों का भी पुनर्निर्माण करवाया था। उन्होंने इन मंदिरों को नागर शैली के शिखर और मजबूत पत्थर-ईंट की दीवारों के साथ बनवाया था। मरघट वाले हनुमान जी के इस मंदिर का शिखर नागरा शैली में निर्मित है। गर्भगृह का आकार छोटा लेकिन संगमरमर से युक्त अत्यंत सुंदर नक्काशी की हुई है। जबकि कनॉट प्लेस में स्थित बाल हनुमान मंदिर मंदिर की संरचना का नवनिर्माण सवाई जयसिंह के बाद यानी सत्तर के दशक में भी किया जा चूका है।
हालाँकि एक आश्चर्य यह भी होता है कि प्राप्त ऐतिहासिक जानकारियों और आंकड़ों में राजधानी दिल्ली के यमुना बाज़ार क्षेत्र में कश्मीरी गेट नामक एक व्यस्त और भीड़ वाले स्थान के पास स्थित इस प्रस्सिध और सिद्ध मरघट वाले हनुमान मंदिर के इतिहास में न तो बोद्धों का और न ही मुग़लों के आक्रमणों का कोई स्पष्ट और बड़ा उल्लेख मिलता है और न ही इससे जुड़े कोई विश्वसनीय, अभिलेखीय रिकॉर्ड ही उपलब्ध हैं। इसलिए यह कहना या अनुमान लगाना मुस्किल है कि जयपुर नरेश सवाई जयसिंह द्वितीय द्वारा बनवाई गई इस वर्तमान संरचना से पहले यहाँ कैसी और किसके द्वारा बनवाई गई मंदिर संरचना हुआ करती थी और उसका निर्माण कब हुआ होगा।
दूसरी तरफ सरकारी दस्तावेजों और आंकड़ों की बात करें तो आज़ादी के बाद के पुरातात्विक सर्वेक्षण ऑफ इंडिया और दिल्ली पर्यटन विभाग के गजेटियर जैसे सरकारी दस्तावेजों में इस मंदिर का उल्लेख बहुत ही सीमित इसीलिए है, क्योंकि इसको शुरुआत से ही एक जीवंत धार्मिक स्थल माना गया है। इसके अलावा मंदिर की वर्तमान निर्माण संरचना इतनी प्राचीन भी नहीं है की इसके लिए पुरातात्विक विभाग को आगे आना पड़े। यही कारण है कि सरकारी दस्तावेजों में इसे एक जीवंत और परंपरागत धार्मिक स्थान के रूप में ही उल्लेखित किया गया है, न कि पुरातात्विक प्रमाण के रूप में।
मंदिर से जुड़े विभिन्न लेख और प्रमाणों को खंगालने पर इन्टरनेट पर अधिकतर लोकप्रिय और भक्ति से संबंधित लेखों में तो इस मंदिर को यमुना बाज़ार क्षेत्र के कश्मीरी गेट के पास पास स्थित एक प्राचीन मंदिर बताया जा रहा है, लेकिन मध्यकालीन औपनिवेशिककाल से लेकर दिल्ली के आधुनिक समय के गज़ेटियर और पुरातत्व विभाग आदि की सूचियों में इसका कुछ ख़ास उल्लेख नहीं है। हालाँकि मुग़ल काल के दौरान इस क्षेत्र में हिन्दू संत परम्परा से किसी “मर्कटा बाबा” या संत के द्वारा यहाँ एक मंदिर की पुनर्स्थापना या जीर्णोद्धार करने और उसकी देखभाल करने की जानकारी अवश्य मिलती है। आश्चर्य तो इस बात का भी है कि ‘डिजिटल लाइब्रेरी इंडिया’ से प्राप्त और कलकत्ता से वर्ष 1916 में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित 231 पेज की जानकारी के अनुसार दिल्ली की “स्मारक, भारत; ऐतिहासिक इमारतें, भारत; राष्ट्रीय स्मारक, भारत; इस्लामी स्मारकों; हिंदू स्मारक” में भी इस मन्दिर का उल्लेख नहीं दिया गया है, जबकि कनॉट में स्थित प्राचीन बाल हनुमान मंदिर का उल्लेख मिलाता है।
ऐसे में एक बात हो कही जा सकती है की आधुनिक काल की सरकारें चाहे किसी भी अन्य विचार्धावादी हों या हिंदूवादी पार्टियों की ही क्यों न हों, सनातन के धर्मस्थलों का तो दुर्भाग्य ही लिखा हुआ है। ऐसे में उम्मीद यही की जा सकती है की जब तक हमारे सभी मंदिरों से सरकार अपने कब्जे छोड़कर कर उन्हें शंकराचार्य परंपरा को नहीं सौंप देती तब तक इनका उद्धार नहीं हो पायेगा और ऐसे ही एक-एक करके ये मंदिर विलुप्त भी होते जायेंगे।
मंदिर तक कैसे पहुंचे? –
अगर आप दिल्ली आते हैं और इस मंदिर में दर्शन करना चाहते हैं तो मरघट वाले हनुमान मंदिर की दुरी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से मात्र साढे पांच किलोमीटर है। जबकि पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन और लाल किले से भी यह दुरी मात्र ढाई किलोमीटर है। इसी तरह महाराणा प्रताप बस अड्डे से भी इस मंदिर की दूरी मात्र ढाई किलोमीटर ही है। आनंद विहार रेलवे स्टेशन और बस अड्डे से इस मंदिर की दुरी करीब 14 किलोमीटर है। जबकि कनॉट में स्थित प्राचीन बाल हनुमान मंदिर से इस मंदिर की दुरी करीब आठ किलोमीटर है। और पालम के हवाई अड्डे से यह दुरी करीब 25 किलो मीटर है।
मरघट वाले हनुमान मंदिर तक पहुँचने के लिए कश्मीरे गेट मेट्रो स्टेशन सबसे निकटतम स्टेशन है, जो लगभग 1.5 किमी की दुरी पर स्थित है। इसके अलावा लाल किले के मेट्रो स्टेशन से इस मंदिर की दुरी करीब ढाई किलो मीटर है। इसके बाद स्टेशन से, आप मंदिर तक पहुंचने के लिए ई-रिक्शा, या ऑटोरिक्शा आदि तीन-पहिया वाहन या स्थानीय डी.टी.सी. यानी दिल्ली परिवहन निगम की बस भी ले सकते हैं। लेकिन इस बात का ध्यान रखना होता है कि इस मंदिर के आस-पास के क्षेत्रों में आये दिन लंबा-लंबा ट्रैफिक जाम लगता रहता है।