अजय सिंह चौहान || आज हम बात करने जा रहे हैं – जयपुर जिले के ढूंढाड़ अंचल में बसे जोबनेर कस्बे में स्थित ज्वाला माता के शक्ति धाम मंदिर के बारे में। लेकिन उससे पहले हम बात करेंगे जोबनेर नामक उस स्थान की जहां यह मंदिर स्थित है। राजस्थान के जयपुर से 45 किमी पश्चिम में स्थित जोबनेर को अति प्राचीन और पौराणिक कस्बा माना जाता है। जबकि, जोबनेर में स्थित ज्वाला माता का यह शक्ति धाम मंदिर अरावली पर्वतमाला के एक पर्वत पर स्थित है। इस शक्तिधाम मंदिर को जोबनेर ज्वालामाता, जालपा देवी या जालपा माता का मंदिर के नाम से भी पहचाना जाता है।
यहां हम जिस शक्तिधाम या शक्तिपीठ मंदिर की बात कर रहे हैं उसके बारे में पुराणों में बताया गया है कि जोबनेर के इस पर्वत पर माता सती का जानु-भाग यानी घुटना गिरा था, इसीलिए इस स्थान को ज्वालामाता या जालपा देवी के नाम से पूजा जाने लगा।
जयपुर से लगभग 45 कि. मी. पश्चिम में ढ़ूंढ़ाड़ अंचल के जोबनेर नामक एक अति प्राचीन कस्बे में स्थित यह शक्तिपीठ मंदिर अत्यन्त प्राचीन और पौराणिक स्थान माना जाता है। अनेकों साहित्यिक ग्रन्थों, शिलालेखों और पौराणिक गं्रथों में इस ज्वालामाता मंदिर की महिमा और जोबनेर नगर की प्राचीनता का पता चलता है। इतिहास में इसे जब्बनकार, जब्बनेर, जोवनपुरी, जोबनेर, जोबनेरि जैसे नामों से भी उल्लेखित किया गया है। इसके अलावा जयपुर के कछवाह शासकों के इतिहास से संबंधित पुस्तक ‘कूर्मविलास’ में इसको इसके अति प्राचीन नाम जोगनेर यानी योगिनी का नगर के नाम से भी बताया गया है। इसके अलावा यह भी माना जाता है कि सृष्टि के आरंभिक दौर में राजा ययाति ने ही इस जोबनेर नगर को बसाया था।
जोबनेर में स्थित ज्वालामाता का यह शक्तिपीठ मन्दिर सनातन धर्म के प्रमुख तीर्थों में से एक और राजस्थान का एक प्राचीन एवं प्रसिद्ध शक्तिपीठ मंदिर है। खास तौर पर राजस्थान के लोक जीवन में इस पवित्र शक्ति मंदिर की मान्यता हजारों वर्षों से चली आ रही है।
पौराणिक ग्रंथों में उल्लेख है कि सदियों से इस मंदिर में प्रतिवर्ष नवरात्र के अवसर पर भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती आ रही है। विशेषकर चैत्र मास के नवरात्र में तो यहां यहाँ एक विशाल मेला भी आयोजित किया जाता है।
प्रत्येक वर्ष चैत्र मास की नवरात्र के अवसर पर यहां लगने वाले मेले में राजस्थान के रंग में सराबोर सांस्कृतिक कला और संस्कृति के संगम का सैलाब नजर आ रहा है। दूर-दूर से आने वाले श्रद्धालुजन मेले में आकर अपने पारंपरिक भोजन दाल-बाटी का विशेष आनंद लेते हैं।
एक अनुमान के अनुसार प्रत्येक नवरात्र के अवसर पर लगभग 2 लाख श्रद्धालुजन यहां माता का दर्शन करने और मेले का आनंद लेने आते हैं। इस अवसर पर यहां कई भक्तगण मनौती के रूप में मंदिर के प्रांगण में अपने बच्चों का मुण्डन संस्कार करवाते हुए भी देखे जा सकते हैं।
इसके अलावा, यहां नवरात्र के विशेष अवसरों पर माता के दर्शन करने आने वाले यात्रियों के लिए भोजन की व्यवस्था के तौर पर कस्बे में जगह-जगह विभिन्न समाजों के द्वारा विशेष भण्डारों का आयोजन भी किया जाता है।
ज्वालामाता का यह मन्दिर अरावली पर्वतमाला के एक विशाल पर्वत शिखर की ढलान के बीचों-बीच बना हुआ है। सफेद संगमरमर से बना ज्वालामता का यह मन्दिर बहुत सुन्दर और आकर्षक लगता है और दूर से ही दिखाई दे जाता है।
इस मंदिर में एक अखंड ज्योति आज भी हमेशा प्रज्वलित रहती है। स्थानिय लोगों के बीच ज्वाला माता के इस मंदिर की शक्तियों और इससे जुड़े ऐतिहासिक तथ्यों को लोककथाओं, लोक गीतों और लोक कहावतों के माध्यम से सुना जा सकता है।
कस्बे की पहाड़ी पर स्थित ज्वाला माता के नाम की महिमा अपार है। कहा जाता है कि सच्चे मन से मन्नत मांगने वाला कोई भी भक्त यहां से निराश नहीं जाता। माता के मंदिर तक जाने से पहले, पहाड़ी के नीचले हिस्से पर बने एक आकर्ष ऊंचे-से चबूतरे पर लांगुरिया बलबीर विराजमान है। यात्रियों को सर्व प्रथम इन्हीं के दर्शन करने का सौभाग्य मिलता है।
ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार इस मन्दिर के सभामण्डप में प्रतापी चैहान शासक सिंहराज का विक्रम संवत् 1022 यानी इसवी संवत 965 की माघ सुदी 12 का एक ऐतिहासिक शिलालेख अंकित है।
हालांकि, दुर्भाग्यवश यह शिलालेख मुगलों के आक्रमण काल के दौरान खंडित हो गया था जिसके कारण इसका संपूर्ण भाग नहीं पढ़ा जा सका। लेकिन, जानकारों का मानना है कि हो सकता है कि इस शिलालेख में अंकित बाकी जानकारियों में मन्दिर के जीर्णोद्धार या पुनर्निर्माण सम्बन्धी घटना का ऐतिहासिक उल्लेख हो।
अरावली पर्वतमालाओं में जहां ज्वालामाता का यह मंदिर स्थित है उससे थोड़ा ऊपर यानी पर्वत के शिखर पर इस क्षेत्र के चैहान शासकों द्वारा निर्मित एक प्राचीन दुर्ग जीर्ण शीर्ण और आधे-अधूरे अवशेषों के रूप में देखने को मिल जाता है।
कहा जाता है कि सन 1641 ई. के लगभग शासक जैतसिंह के शासनकाल में अजमेर के मुगल सेनापति मुहम्मद मुराद जिसे लालबेग भी कहा जाता है ने जोबनेर पर अचानक आक्रमण कर दिया था। उस अचानक हुए हमले से बचने के लिए जैतसिंह ने ज्वाला माता से किसी चमत्कार की प्रार्थना की।
माना जाता है कि ज्वाला माता के चमत्कार से जोबनेर के इन्हीं पर्वतों से मधुमक्खियों का एक विशाल झुण्ड निकल कर आया और आक्रान्ता मुहम्मद मुराद लालबेग की सेना पर पर टूट पड़ा। मधुमक्खियों हमले से डर कर मुगल सैनिक भाग खड़े हुए। इस तरह देवी मां ने प्रत्यक्ष रूप में सहायता कर जैतसिंह को विजय दिलाई। इस युद्ध में उस आक्रांता मुहम्मद मुराद से छीनी हुई नोबत यानी एक बड़ा सा वाद्य यंत्र ज्वालामाता के मन्दिर में आज भी रखा हुआ देखा जा सकता है।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार, सन 1600 के लगभग जगमाल पुत्र खंगार जोबनेर के प्रतापी शासक और ज्वाला माता के परम भक्त के रूप में जाने जाते थे। उनके द्वारा बनवाया गया एक विशाल प्रवेश द्वार आज भी विद्यमान है।
यह प्रवेश द्वार ज्वाला पोल के नाम से जाना जाता है। इस प्रवेश द्वार पर स्वप्न को लेकर एक पंक्ति अंकित है। उस पंक्ति में कहा गया है कि आईजी सपनै राव खंगार कै। इसके अलावा सन 1619 से 1638 के शासनकाल में जोधपुर के महाराजा गजसिंह ने माता के इस मंदिर के जिर्णोद्वार में विशेष योगदान दिया था। इसके अलावा, जोबनेर को जैनधर्म और संस्कृति के प्रकुख केंद्र के रूप में भी जाना जाता है।