अजय सिंह चौहान | मुंबई के बांद्रा में एक मिठाई की दूकान का नाम ‘कराची स्वीट मार्ट’ होना शिवसेना के उस हेकड़ीबाज छूटभैया नेता को इतनी नागवार गुजरी कि उसने दूकान मालिक से इसका नाम बदलकर कुछ और रखने के लिए कह डाला।
उस व्यक्ति का कहना था कि हमारा वह पड़ौसी देश भारत में आतंकवादी गतिविधियां चलाता है और ये बात हमें पसंद नहीं है। इसलिए तुम्हें ये नाम बदल लेना चाहिए। उस दूकानदार ने भी फिर से किसी नई मुसिबत को दावत देने से अच्छा ये समझा कि इस विवाद को यहीं खत्म कर दिया जाये और आनन-फानन में उसने दूकान के बोर्ड पर लिखे ‘कराची’ शब्द को ढकवा दिया।
सोशल मीडिया के जरिये ये खबर मुंबई में ही नहीं बल्कि देशभर में आग की तरह फैल गई। किसी को ये खबर अच्छी लगी तो किसी को बुरी। सभी अपनी-अपनी राय देने लगे। देखते ही देखते सोशल मीडिया के हर प्लेटफार्म पर इस घटना को लेकर पोस्ट लिखने की होड़ लग गई थी।
आज करीब महीने भर के बाद वो खबर भी बाकी खबरों की तरह ही गायब हो चुकी है। ऐसे में सवाल आता है कि उस दूकानदार ने क्या किया होगा? क्या उसने अपनी दूकान का नाम बदल लिया होगा? या फिर वही नाम चल रहा है?
आज जब मैंने गुगल पर उसी खबर का फालोअप खोजने की कोशिश की तो कम से कम मुझे तो ऐसा कहीं नहीं मिला कि उस दूकान और दूकानदार का क्या हुआ? क्या उसने अपनी दूकान का नाम बदल लिया होगा? या फिर वही नाम चल रहा है?
अब आते हैं हम खबर के पीछे छूपे दर्द के उस अनुभव की तरफ, जो उस दूकानदार ने इस धमकी के बाद झेला होगा। सोचने और करने में तो एक साधारण सी बात है लेकिन, कहा जाता है कि जिसके दांत में दर्द होता है वही उस दर्द को झेलता भी है।
दरअसल, दूकान का नाम बदले की धमकी देने वाली उस खबर से कहीं अधिक दर्दभरी खबर और उसका दर्द तो उस दूकानदार के दिल में है जो आज वह झेल रहा होगा। यहां, उस शिवसैनिक को लगा होगा कि उसने एक महान काम किया है और देशभक्ति का परिचय दिया है।
लेकिन, अब यहां समस्या ये पैदा हो गई कि उस कार्यकर्ता के भीतर सत्ता से उपजी उस हेकड़ी के कारण बेचारे उस दूकानदार का वो सपना टूट गया जो उसने सन 1947 के उस विभाजन के दौर से संजोकर रखा था।
शायद ये बात वो शिवसैनिक जानता ही नहीं होगा कि भारत में आज भी हर साल 14 अगस्त का दिन ‘अखंड भारत स्मृति दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन आम से लेकर खास तक, सभी लोगों को भारत विभाजन की वो दर्दभरी कहानी बताई जाती है और एक बार फिर से भारत को अखंड बनाने के उसी संकल्प को दोहराया जाता है।
लेकिन, अगर महाराष्ट्र के उस शिव सैनिक को भारत के उस इतिहास का थोड़ा भी ज्ञान होता तो शायद वह ऐसा नहीं करता। उसे अगर इतना सा भी पता होता कि किस कारण से और किन परिस्थिति में कराची का अपना सारा कारोबार छोड़कर के वह दूकानदार और उसका परिवार भारत आया होगा।
अपने पूर्वजों की यादों को छोड़कर भारत में आने को मजबूर हुए उस दूकानदार को धमकाने की बजाय, वह शिव सैनिक उसकी पीठ थपथपाता और सबके बीच कहता कि आप वास्तव में एक सच्चे राष्ट्रवादी हैं जो आज तक भी उस दर्द को भूले नहीं हैं, तो वह वास्तव में महान बन जाता।
दरअसल, आज भी उस दूकानदार ने ये उम्मीद लगा रखी है कि या तो वो खुद या फिर उसकी आने वाली पीढ़ी, एक न एक दिन फिर से कराची वापस जा कर वहां अपने उन पूर्वजों को सच्ची श्रद्धांजलि दे पायेंगे और अखंड भारत के उस सपने को साकार कर पायेंगे।
लेकिन, उस शिव सैनिक ने तो अपने उस हेकड़ी भरे चेहरे को सब के सामने लाकर यह जता दिया कि वह ना सिर्फ एक मोहरा है बल्कि, मुंबई में फल-फूल रही अराजकता का एक भाग है।
फिलहाल तो ये बात सभी जान चुके हैं कि मुंबईया राजनीति में ना तो अब राष्ट्र और ना ही राष्ट्रवाद का कोई नाम बचा है और ना ही कोई आधार बचा है। ऐसे में भला अखंड भारत का सपना कैसे देखा जा सकता है?
राष्ट्रवादी हरकतों के लिए राष्ट्रीयता की भावना का होना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। और राष्ट्रीयता की ये भावना राष्ट्र को समर्पित किसी भी व्यक्ति या समुदाय के किसी भी सदस्य के लिए हो सकती है। जबकि इस शिव सैनिक ने ना सिर्फ उस राष्ट्रवादी का सपना तोड़ा है बल्कि उसके जैसे उन लाखों लोगों का भी सपना तोड़ दिया है जो वहां से भारत आये थे।
उस समय, उस शिव सैनिक ने ना तो ये बात सोची और ना ही जानने की कोशिश की होगी, कि आखिर वह दूकानदार भला बंटवारे के इतने वर्षों बाद तक भी उस कराची नाम को लेकर क्यों बैठा है? वह दूकानदार उसके आगे गिड़गिड़ा रहा है फिर भी उसे ये बात समझ तक नहीं आई कि देशभक्ति का असली हकदार तो ये दूकानदार है ना कि या सत्ता की हेकड़ी दिखाने वाल वह शिव सैनिक खुद।
उस दबंग शिवसैनिक को, उसके आकाओं से कुछ ना कुछ पुरस्कार तो मिल ही गया होगा। लेकिन, एक बार फिर से उस दूकानदार को अपनी उन उम्मीदों और यादों से हाथ धोना पड़ गया जो उसने बंटवारे के बाद से अब तक भी लगा रखी थीं।
आजादी की लड़ाई में योगदान देने वालों में से एक श्री अरविंद घोष ने सन 1947 के उस दौर में कहा था कि भारत का ये विभाजन मात्र एक दिखावा और ये तो अस्थाई है, और अस्थाई बातें कभी भी स्थायी नहीं रहतीं, इसलिए एक न एक दिन भारत फिर से अखंड होकर ही रहेगा।
शायद कराची से आये उस दूकानदार को अब तक भी यही उम्मीद रही होगी कि श्री अरविंद घोष के वे शब्द जो उन्होंने बंटवारे के दौरान कहे थे वे एक न एक दिन सच साबित होंगे।
तो सवाल ये उठता है कि भला श्री अरविंद घोष को सन 1947 के उस भारत विभाजन के समय, ना जाने ऐसा क्यों लग रहा था कि ये विभाजन मात्र एक दिखावा है और यह अस्थाई है? और अस्थाई बातें कभी भी स्थायी नहीं होतीं ऐसा क्यों सोचा होगा उन्होंने? और फिर एक न एक दिन भारत उसी तरह से अखंड होकर ही रहेगा, ऐसा क्या देख लिया था या सुन लिया था श्री अरविंद घोष ने उस वक्त?
शिव सैनिक की उस धमकी के बाद भी, वो दूकानदार आज शायद यही सोच कर बैठा होगा कि हम कराची से आए हैं या हमें मजबूरी में आना पड़ा है, और हम फिर से वापस कराची जाएंगे ऐसी इच्छा रखना कोई गुनाह तो नहीं है।
दरअसल, इसमें हिंदुओं की मजबूरी कह लो या फिर बेवकुफी। हिन्दू समाज के द्वारा बंटवारे के उस दौर के राजनीतिक नेतृत्व की दलाली, कमजोरी या मजबूरी के कारण ही तो उसे अपने ही देश से भाग कर यहां आना पड़ा था। हमें एहसानमंद होना चाहिए कि यहां आकर भी उसने अपने पूर्वजों के उस नाम को और उनकी यादों को मिटने नहीं दिया।
चलो मान लिया कि अगर उस दूकानदार की आने वाली पीढ़ियां भी यही संकल्प लेकर चले तो इसमें बुरा क्या है? दूकान का नाम ‘कराची’ रखना क्या गलत है?
और फिर यहां आकर उसने कोई गलत गतिविधियां, गलत रास्ता या गलत धंधा तो नहीं किया। यहां भी उसने अपनी मेहनत से धीरे-धीरे तिनके जुटाये और छोटा-मोटा धंधा करना शुरू कर दिया। आज वह दूकानदार यहां रह कर भी कम से कम देश की समृद्धि में कुछ तो योगदान दे ही रहा है।
बंटवारे के बाद, सिंध या पंजाब से आए ऐसे हजारों लोगों ने कष्ट सहते हुए देश के कोने-कोने में अपना घर बना लिया है और चुपचाप उस दर्द को सह रहे हैं। और ना सिर्फ दर्द सह रहे हैं बल्कि पड़ौसी देश से आने वाले उन हजारों-लाखों लोगों ने यहां आने के बाद अनेकों व्यावसायिक और शैक्षणिक संस्थान और प्रतिष्ठान अपने दम पर खड़े भी कर लिए हैं, और यहां के हजारों लाखों लोगों को रोजगार भी दे रहे हैं। वो भी पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ।
एक प्रसिद्ध ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन ने अपनी पुस्तक ‘वल्र्ड हिस्ट्री आॅफ इकोनाॅमिक्स’ के जरिए दावा किया है कि ईसा की पहली शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक विश्व व्यापार में भारत की कुल हिस्सेदारी 33 प्रतिशत तक हुआ करती थी जो सबसे अधिक थी।
पड़ौसी देश से मजबूर होकर यहां आये इस हिंदू दूकानदार ने, और इसके जैसे उन अनेकों लोगों ने भी ब्रिटिश अर्थशास्त्री एंगस मैडिसन की उस किताब के अनुसार ही अपने काम-धंधे को जारी रखा और यहां आने के बाद भी, उन हजारों लाखों हिंदुओं की तरह, जो पड़ौसी देश से यहां आकर बस गये थे उन्होंने भारत के इतिहास को शायद बहुत अच्छे से पढ़ा होगा, तभी तो वे उस पर अमल कर रहे हैं।
वर्ना वहां से तो और भी कई ऐसे लोग आये थे जिनको यहां आने की जरूरत ही नहीं थी। फिर भी वे यहां आये। तो फिर उनका योगदान क्या है? किसी ने सोचा भी है इस बारे में?
उस हिंदू दूकानदार के पास ‘मुंबईया सत्ता की हेकड़ी‘ नहीं है तो इसका मतलब ये तो नहीं हुआ कि वो यहां का नागरिक ही नहीं है।
और, अपने पूर्वजों की जिस कर्मभूमि को छोड़ कर वे लोग यहां आये हैं उन स्थानों को याद करना और अपने दर्द को किसी दूकान के साइनबोर्ड पर लिखवा कर रखना क्या देशद्रो हो जाता है?
क्या किसी को वो इतिहास भी याद है कि जिसमें इजरायल के लोग, 1800 सालों तक अपनी भूमि से दूर रहे थे। फिर भी वे हर बार और हर नए साल के दिन, फिर से यरुशलम जाने का वही संकल्प उन 1800 सालों तक दोहराते रहे। तभी तो वे वहां फिर से पहुंच सके और आज एक बार फिर से वे लोग अपने उसी इजरायल को विश्व में एक शक्तिसंपन्न देश बना पाये हैं।
शायद मुंबई के उस दूकानदार को इजराइल का वो इतिहास याद होगा। तभी तो उसने भी अपनी दूकान का नाम अपनी उस जन्मस्थली और अपने पूर्वजों की कर्मभूमि के नाम से रखा।
भारत भूमि पर तो हमेशा से ही सबको जोड़ने वाली जीवन पद्धति का विकास होता आया है। तभी तो भारत की एक अलग पहचान है। भारत की ये पहचान आज किसी व्यक्ति विशेष से नहीं बल्कि हिंदुत्व’ के रूप में होती है।