अजय सिंह चौहान || दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में दिल्ली की सीमा से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर गाजियाबाद के देहात क्षेत्र डासना में चंडी देवी का एक ऐसा मंदिर है जो स्थानीय लोगों में डासना देवी के नाम से प्रसिद्ध है। यह मंदिर त्रेता युग में स्थापित हुआ मंदिर बताया जाता है। इसके अलावा यहां महाभारत के काल से भी जुड़े हुए अनेकों किस्से और किंवदंतिया सुनने को मिलते हैं। मात्र त्रेता युग और द्वापर युग ही नहीं बल्कि अंग्रेजों को भगाने के लिए में भी इस मंदिर स्थल का एक बहुत बड़ा योगदान रहा है।
चंडी देवी या डासना देवी के इस मंदिर के विषय में कहा जाता है कि यह एक ऐसा मंदिर है जिसमें पौराणिक काल से लेकर आजादी की लड़ाई तक के अनेकों रहस्य और और प्रामाण छूपे हुए हैं। यह मंदिर गाजियाबाद से आठ किमी दूर हापुड रोड पर जेल रोड से दक्षिण दिशा में जाने पर डासना कस्बे में पड़ता है।
इस मंदिर में स्थापित देवी चंडी की मूर्ति की एक खास विशेषता यह है कि यह कसौटी पत्थर से निर्मित है। मंदिर के महंत यति नरसिंहानंद सरस्वती जी के अनुसार इस समय जो ज्ञात है उसके अनुसार दुनियाभर में कसौटी पत्थर से निर्मित माता की केवल चार ही मूर्तियां हैं, जिनमें से तीन मूर्तियां भारत के मंदिरों में हैं जबकि जो चैथी मूर्ति है वह इस समय पाकिस्तान में स्थित हिंलाजदेवी की मूर्ति है जो कसौटी पत्थर की बनी है। और जो भारत के मंदिरों में हैं उनमें से एक तो यही मूर्ति है जबकि दूसरी मूर्ति कलकत्ता के दक्षिणेश्वरकाली माता की प्रतिमा है और तीसरी असम प्रदेश के गोहाटी में कामाख्यादेवी शक्तिपीठ की मूर्ति है जो कसौटी पत्थर की बनी है। चंडी देवी की यह मूर्ति कितनी पुरानी है इसका कोई निश्चीत प्रमाण नहीं है।
बताया जाता है कि मंदिर स्थापना से पूर्व भी इस स्थान पर कई ऋषि मुनि तप किया करते थे। और यह एक प्रसिद्ध तपस्थली के रूप में जानी जाती थी। जिसके बाद त्रेता युग में परशुराम ने यहां शिवलिंग की स्थापना की थी।
पुराणों के अनुसार लंकापति रावण के पिता ऋषि विश्रवा ने डासना के इस मंदिर में कई वर्षों तक तपस्या की थी और स्वयं रावण भी यहां पूजा अर्चना करने आया करता था। इस मन्दिर के विषय में पौराणिक मान्यता और महत्व है कि त्रेता युग में जिस समय हिन्दू धर्म का स्वर्णिम युग चल रहा था उस समय यह मन्दिर सनातन धर्म के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक हुआ करता था।
इसके अलावा यह भी माना जाता है कि द्वापर युग में हुए महाभारत युद्ध से पहले माता कुंती और उनके पांचों पुत्र पांडवों ने लाक्षागृह से सकुशल बच निकलने के बाद यहां भी गुप्त रूप से कुछ समय बिताया था। समय-समय पर इस मंदिर का जीर्णोद्धार होता रहा और इसकी पवित्रता जस की तस बनी रही। लेकिन, मध्य युगिन इतिहास के आते-आते भारत के अन्य मंदिरों की तरह ही इस मंदिर पर भी मुगल काल के समय आक्रमणकारियों ने हमले किए और यहां की धन-दौलत और कीमती सामानों को लूटा और मंदिर की इमारत को भी खंडित कर दिया गया।
इतिहासकारों और स्थानीय लोगों के अनुसार मुगल आक्रमणकारियों के द्वारा जब इस मंदिर पर जब हमला किया गया उससे पहले ही यहां के पुजारियों और स्थानीय लोगों ने मिलकर मंदिर की सभी मूर्तियों को मंदिर परिसर के पास के तालाब में छुपा दिया।
समय और इतिहास के अनुसार इस क्षेत्र और संपूर्ण भारत पर मुगलों का कब्जा हो गया और ऐसे में हिंदू धर्म के लगभग सभी स्थलों को नष्ट कर दिया गया और उनमें पूजा-पाठ पर प्रतिबंध लगा दिया गया जिसकी वजह से कई धर्म स्थलों का अस्तीत्व ही समाप्त हो गया और कई तो मलबे के बड़े टीलों में तब्दील होकर रह गए और कई मंदिर हकीकत से गुमनाम होकर इतिहास और किंवदंतियों में ही रह गए। लेकिन स्थानीय लोगों की नजर में इस मंदिर स्थल का टीला और इसका मलबा अब भी पवित्र ही था।
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स्थानीय लोगों का मानना है कि यहां के एक स्थानीय पुजारी स्वामी जगदगिरि महाराज को देवी माता ने सपने में दर्शन दे कर तालाब में मूर्ति होने की बात बताई और उस मूर्ति की पुनः स्थापना के लिए आदेश दिया। स्वामी जगदगिरि महाराज ने अपने उस स्वप्न को जनता के बीच बताया और शीर्घ ही माता की उस मूर्ति को तालाब से निकाल कर पुनः प्राण प्रतिष्ठा कर स्थापित कराया दी। इसीलिए देवी माता के इस प्राचीन में भक्तों की विशेष आस्था है। माता की यह मूर्ति कितनी पुरानी है इस तो किसी को भी निश्चित ज्ञात नहीं है लेकिन इसकी एक खासियत यह है कि माता की यह मूर्ति कसौटी पत्थर की बनी है।
स्थानीय श्रद्धालुओं का दावा है कि मंदिर में माता की दिव्य प्रतिमा को जितनी बार भी निहारा जाता है प्रतिमा की भाव भंगिमा बदली हुई नजर आती है। मंदिर के महंत का दावा है कि अपने भक्तों द्वारा दी गई सात्विक पूजा को ही देवी माता स्वीकार करती हैं जबकि किसी भी प्रकार की तांत्रिक पूजा को वे स्वीकार नहीं करती हैं।
प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार किसी समय इस क्षेत्र में घना जंगल हुआ करता था और मंदिर के पास के तालाब में एक शेर प्रतिदिन नियमित रूप से पानी पीने आता था। पानी पीने के बाद शेर बिना किसी को कोई हानि पहुंचाए देवी प्रतिमा के सामने कुछ देर तक बैठने के बाद वापस चला जाता था।
बताया जाता है कि उस शेर ने माता की प्रतिमा के सामने ही अपने प्राण त्याग दिए थे। उसकी मौत के बाद स्थानीय लोगों ने विशेष रूप से देवी माता की प्रतिमा के सामने शेर की प्रतिमा को स्थापित करवाया था जो आज भी मौजूद है।
मंदिर में बाला सुंदरी देवी, संतोषी मां, मीनाक्षी देवी, कादंबरी देवी और बड़ी माता के साथ-साथ राम परिवार, शंकर परिवार, नौ दुर्गा, देवी सरस्वती और हनुमान जी की मूर्तियां भी स्थापित है।
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डासना देवी के मंदिर में सन 2018 की शिवरात्री के विशेष अवसर पर पारदेश्वर महादेव शिवलिंग की स्थापना भी की गई है। वाराणसी से विशेष तौर पर आए विद्वानों ने आचार्य रामभुवन शास्त्री के मार्गदर्शन में विधि-विधान से पारदेश्वर महादेव की स्थापना की गई। इस अवसर पर अखिल भारतीय संत परिषद के राष्ट्रीय संयोजक यति नरसिंहानन्द सरस्वती महाराज ने बताया कि यह शिवलिंग 108 किलो पारे से बना हुआ है। पारदेश्वर महादेव की स्थापना के साथ ही अब यह पीठ पूर्ण रूप से शिवशक्ति धाम में परिवर्तित हो चूका है। अब इसे मंदिर नहीं बल्कि शिवशक्ति धाम के नाम से भी जाना जाएगा।
नवरात्र के विशेष अवसर पर यहां दूर-दूर से आने वाले भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है। कई भक्त और श्रद्धालु इस मंदिर प्रांगण में स्थित प्राचिन काल के तालाब में स्नान करते हैं। उनका मानना है कि इसमें स्नान करने से चर्म रोग और कुष्ठ रोग जल्दी ठीक होने लगते हैं। सन 2017 में स्थानीय लोगों के सहयोग से इस तालाब की सफाई की गई और इसका जीर्णोद्धार भी करवाया गया।
प्रत्येक नवरात्रि के अवसर पर यहां नौ दिनों विश्व शांति की कामना के लिए अखंड बगलामुखी यज्ञ का आयोजन किया जाता है। इस दौरान यहां अष्टमी और नवमी के विशेष अवसर पर लगभग दो लाख से भी अधिक भक्त माता के दर्शन को आते हैं। मंदिर के पास ही हर साल रामलीला का मंचन भी किया जाता है।
यह मंदिर पौराणिक और ऐतिहासिक होने के कारण जितना पवित्र और प्रसिद्ध है उतना ही आए दिन विवादों में भी बना रहता है। और इसके विवादों में बने रहने के पीछे का कारण है इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगी वह सूचना जो एक संप्रदाय विशेष को कभी रास नहीं आती है। जी हां, इस मंदिर के प्रवेश द्वार पर स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि – यह तीर्थ हिंदूओं का पवित्र स्थल है, यहां मुसलमानों का प्रवेश वर्जित है। और यही कारण है कि यह मंदिर और इसका यह बोर्ड विवादों में घिरा हुआ है। जबकि स्थानीय मुस्लिम समुदाय इस मंदिर और मंदिर के महंत यति नरसिहांनंद सरस्वती जी से खार खाए हुए बैठा है और आए दिन महंत जी पर हमले होने की खबरें भी आती रहती हैं।
डासना देवी मंदिर के मंहत यति नरसिहांनंद सरस्वती के अनुसार मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए आने वाली हमारी माताओं और बहनों और बाकी श्रद्धालुओं के साथ-साथ मुस्लिम समाज के कई मनचले युवक भी आ जाते हैं और यहां महिलाओं के साथ अभ्रदता करते हैं। वे यहां आकर हिंदू युवतियों को लव जिहाद के जरिए फंसाने की कोशिश करते हैं। जिसके कारण हमने विशेष तौर पर अपने समाज को बचाने के लिए और ऐसे असमाजिक तत्वों पर काबू पाने के लिए मंदिर के बाहर यह बोर्ड लगाया गया है।