वैवाहिक रीति-रिवाजों और पद्धतियों में परंपरा, धर्म, जाति एवं आस्था के ऐसे बंधन होते हैं जो मात्र एक दम्पत्ति के लिए ही नहीं अपितु उनसे जूड़े सम्पूर्ण समाज के लिए भी अपनेपन का ऐहसास दिलाते हैं। रीति-रिवाजों का अभिप्राय होता है कि आप जिस समाज में रहते हैं वह आपका है एवं आप उस समाज के हैं। चाहे ये रीति-रिवाज दुनिया के किसी भी धर्म, जाति अथवा भौगौलिकता से जुड़े हों सभी का अपना महत्व एवं पहचान है। अर्थात् आप अकेले नहीं हैं, आप एक सामाजिक प्राणी हैं एवं आपकी एक पहचान भी है। और यह पहचान आपका धर्म है, आपकी जाति है, आपकी संस्कृति है अर्थात् सगे-संबंधी तथा मित्र सभी अपने ही लोग हैं तथा आप भी उन सभी के हैं।
दुनिया के प्रत्येक धर्म, समाज एवं जनजातियों में विवाह के कुछ न कुछ परम्परागत व धर्म पर आधारित नियम होते हैं जिनका निर्वाह करना भी आवश्यक होता है। आदिम समूहों में भी विवाह की पद्धतियां बड़ी ही रोचक एवं मौलिक होती हैं। और इन पद्धतियों का निर्वाह करने अथवा न करने वाले व्यक्तियों के साथ समाज आमतौर पर आदिम समूहों में दण्ड और उदारता का व्यवहार भी करता है। इसे आदिम समूहों की विशेषता ही कही जानी चाहिए।
लगभग सभी भारतीय आदिम समाजों में प्रत्येक युवक-युवती को ऐसे अवसर प्रदान किये जाते हैं जिससे ये अपना मनपसंद साथी चुन सकें। बैगा जनजाति में लड़की भागकर लड़के के घर के पीछे खड़ी हो जाती है। और यदि लड़का दरवाजा खोलने के बाद लड़की को हल्दी के छींटे दे तो उसके भांवर उसी समय गांव के पंचों की उपस्थिति में कर दिये जाते हैं। इसमें पंच ही मां-बाप की भूमिका निभाते हैं और लड़की के मां-बाप की भी जरूरत नहीं होती। इसके लिए उन्हें मात्र सूचना दी जाती है कि उनकी लड़की अब पंचों की हो गई है और वे उसका विवाह कर रहे हैं। यह एक रिवाज है।
आदिम जातियों में लड़की का घर से भाग जाना कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया जाता, बल्कि लड़के-लड़की का पता लग जाने के बाद उनका विवाह प्रचलित परम्परा एवं रीति-रिवाजों के अनुसार कर दिया जाता है। झाबुआ क्षेत्र के भीलों में ऐसी प्रथा आम है। इसके लिए हाट-बाजार, सामूहिक नृत्य, पर्व-त्यौहार, मड़ई जैसे उत्सव एवं अवसर युवक-युवतियों के मिलन स्थल होते हैं, और यहीं से इन जोड़ीदारों के मन में जीवन भर साथ-साथ रहने के संकल्प का सूत्रपात होता है।
मध्यप्रदेश और राजस्थान की सीमा से सटे कोटा जिले के सीताबाड़ी स्थल पर सहरियों का इस तरह का एक वार्षिक मेला प्रतिवर्ष जेठ माह में वट पूजनी अमावस्या से दस दिन के लिये आयोजित होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार वट पूजनी अमावस्या के दिन सावित्री ने अपने मृत पति सत्यवान को पुनः जीवन दिलाने के लिये सीताबाड़ी में वट की पूजा की थी। इसी विश्वास के साथ आदिवासी युवक-युवतियां इस दिन यहां अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं।
सीताबाड़ी का यह मेला सहरियाओं के नाम से विख्यात है। जून की तपती दोपहरी में यहां जामुन, आम और वटवृक्षों की घनी छाया में बैलगाड़ियों के नीचे विश्राम करते दाल-बाटी बनाते, श्रंगार प्रसाधन खरीदते, सजे-धजे हजारों सहरिया नर-नारी इस मेले को अपनी उपस्थिति से रंगीन और उन्मुक्त बनाते हैं।
इस मेले में मध्य प्रदेश और राजस्थान से हर उम्र के हजारों सहरिया आदिवासी पहुंचते हैं। यहां वे अपने पूर्वज वाल्मीकी के दर्शन करते हैं और विवाह योग्य युवक-युवतियां अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं और मन्नतें पूरी होने पर मनौतियां भी चढ़ाते हैं। इस जनजाति में ऐसी मान्यता एवं परम्परा है कि यदि कोई युवक इस मेले में किसी युवती के सामने पान या बीड़ी का बण्डल फेंक देता है तो उसका अर्थ माना जाता है कि उसे वह लड़की पसन्द है। और यदि वह युवती इन वस्तुओं को उठा लेती है तो यह इस बात का प्रतीक है कि उस लड़की ने भी उसे अपने जीवन-साथी के रूप में स्वीकार कर लिया है। फिर वह लड़की उस लड़के संग किसी गुप्त स्थान पर भाग जाती है और बाद में उनके अभिभावक परम्परागत तरीके से उनका विवाह कर देते हैं।
सहरियाओं के इस मेले को देखकर झाबुआ के भगोरिया हाट का याद आना भी स्वाभाविक है। भगोरिया जनजाति में किसी मेले या हाट में कोई युवती अपने पसंद के भील युवत को गुलाल लगा देती है तो समझो वह उसका पति हो गया। इसके बाद वे किसी अज्ञात स्थान पर भाग जाते हैं। बाद में पंच और परिवार मिलकर पारंपरिक रीति-रिवाजों से उनका विवाह कर देते हैं। डाॅ. हीरालाल एवं डाॅ. रसेल, जिन्होंने इस जनजाति को नजदीक से जाना है ने इस जनजाति की वैवाहिक परंपराओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि – ‘‘इनमें विवाह अधिकांशतः वयस्क होने पर ही होते हैं किन्तु जहां सवर हिन्दुओं के समीप रहते हैं, वहां इनमें विवाह कम आयु में ही होने लगते हैं। इसका कारण इनके वैवाहिक रीति-रिवाजों में ही पाया जा सकता है, जब विवाह के समय वर-वधू को उनके सम्बन्धियों द्वारा वधू के घर से वर के घर तक कन्धों पर उठाकर लाया जाता है। और यदि वे वयस्क हैं तो इस रस्म के लिए उनके सम्बन्धियों को अधिक श्रम करना पड़ता है।
उड़ीसा या उड़िया प्रदेश में आदिवासियों के प्रत्येक वर्ग के खूंटिया उपवर्ग में कन्या का विवाह वयः सन्धि के उपरान्त करने में कोई बुराई नहीं समझी जाती, लेकिन जोरिया लोगों में यह पाप माना जाता है। इससे बचने के लिए वे कन्या का विवाह उसके रजस्वला होने के पूर्व ही एक तीर के साथ कर देते हैं। यह तीर उस कन्या के हाथ में बांधा जाता है और वह एक वेदी पर लगे महुआ के वृक्ष के सात फेरे लेकर तेल और घी पीती हैं और इस प्रकार विवाह का नाटक रचा जाता है। इसके बाद उस तीर को नदी में फेंककर यह मान लिया जाता है कि उसका पति मर चुका है और बाद में विधवा विवाह की रस्म से उसका विवाह कर दिया जाता है। और यदि उसका यह नकली विवाह (एक तीर के साथ होने वाला विवाह) युवावस्था तक नहीं हो पाता है तो उसे एक रिश्तेदार द्वारा जंगल में ले जाकर किसी वृक्ष से बांध दिया जाता है और यह मान लिया जाता है कि इस वृक्ष से उसका विवाह हो गया है। उसे अपने पिता के घर वापस न लाकर जीजा अथवा दादा समान किसी सम्बन्धी के घर ले जाया जाता है जो उसके साथ हंसी-मजा कर सकते हैं। इसके बाद उसका विधवा विवाह कर दिया जाता है। इस विवाह के अंतर्गत सम्बलपुर के आदिवासियों में तो उसका विवाह पहले औपचारिक रूप से किसी वृद्ध के साथ कर दिया जाता है और फिर विधवा की तरह पुनर्विवाह किया जाता है।
सवर जनजाति के लोगों में विवाह प्रथा सामान्यतः स्थानीय हिन्दु विवाह पद्धतियों के अनुसार ही होते हैं। दम्पत्ति के वापस लौटने पर वर के घर दरवाजे के सामने सात रेखाएं खींच दी जाती हैं कुछ रिश्तेदार लौटकर आई बारात पर मुठ्यिों से भर कर कुछ चावल फेंकते हैं और दम्पत्ति को वे रेखाएं पार कराकर घर के भीतर ले आते हैं। इस प्रकार इन सात रेखाओं और चावलों के माध्यम से उन्हें बुरी आत्माओं से जो कि उनके साथ घर में प्रवेश कर सकती थीं मुक्त किया जाता है।
सागर की एक जनजाति में यदि वधू का परिवार विवाह भोज दे सकने में असमर्थ होता है तो वे मेहमानों को रोटी के टुकड़े दे देते हैं। जिन्हें वे स्वीकृति के प्रतीक स्वरूप प्रेमपूर्वक अपनी पगड़ी में रख लेते हैं, और उन मेहमानों को जिन्हे भेंट देना अनिवार्य होता है, पांच कोड़ियां दी जाती हैं। इस जनजाति में विधवा विवाह की अनुमति भी है। कुछ स्थानों पर विधवा स्त्री अपने देवर से विवाह के लिये बाध्य होती है, यदि वह युवक इससे इन्कार नहीं करता है तो। किन्तु यदि वह किसी अन्य पुरूष से विवाह करती है तो उसके नये पति द्वारा उसके पिता अथवा उसके मृत पति के परिवार को क्षतिपूर्ति के रूप में कुछ रुपये देना होता है।
इस जनजाति में पति की पहल पर अथवा गंभीर असहमति के आधार पर तलाक की अनुमति भी है। और यदि पत्नी तलाक चाहती है तो अपने पति के घर से भाग जाती है। लड़िया सबरों में तलाक के अवसर पर मृत्यु भोज अर्थात् मरती-जीती का भात अवश्य देना पड़ता है। जबकि उड़िया जनजाति में इस अवसर पर जाति के मुखिया को मात्र एक रुपया दिया जाता है।’’
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सहरियाओं में लड़के-लड़कियों की सगाई की बातचीत दस-बारह साल की उम्र में प्रारम्भ होती है, जिसमें कोई न कोई रिश्तेदार या परिचित मध्यस्थ होता है। एक सर्वेक्षण के दौरान विवाह सम्बन्धी बातचीत में सगाई की रस्म के बारे में एक बुजुर्ग सहरिया महिला ने बताया कि सम्बन्ध तय करने के लिए बीचवान के माध्यम से पहले लड़की के गांव में लड़के को दिखाने के लिए ले जाया जाता है।
लड़की पक्ष की बहू-बेटियां लड़के को देखती हैं, तथा संतुष्ट होने पर लड़के पक्ष के मुखिया आदि को किसी और निश्चित दिन आमंत्रित किया जाता है। लड़के की ओर से लड़का पक्ष का दामाद, स्वयं लड़का, उसका पिता, गांव का पटेल, ग्राम प्रधान तथा कुछ अन्य बुजुर्ग लोग मिलकर लड़की वालों के यहां कुछ नेग जैसे कंघी, मोती, नारियल, कंकु या कुमकुम, बताशा आदि सामान लेकर आते हैं। वे स्वयं लड़की वालों के घर सीधे नहीं पहुंचते हैं, बल्कि गांव पटेल के घर अपना पड़ाव डालते हैं, तथा लड़की वालों के यहां सूचना भेजते हैं। सूचना पाते ही लड़की वाले उन्हें आदर के साथ घर लाते हैं। आटे और हल्दी का चैक बनाकर उस घर में दीपक-कलश की स्थापना की जाती है। इसके बाद दोनों पक्षों के लोग आमने-सामने खड़े होकर राम-रामी करते हैं।
बैठने के पश्चात् लड़के वाले चैक कलश पर रुपये पैसे का सवाया नेग चढ़ाते हैं। यह नेग देवी-देवता, नाई, पंच, सवासा, परधान चैकीदार, कुम्हार, पटेल, गलियारों, दूधभाई आदि के नाम का होता है। तत्पश्चात् दोनों पक्षों के पंच विवाह का दिन और मुहूर्त निश्चित करते हैं, जिसको कि विवाह छेकना कहा जाता है। बाद में लगुन-विचार होता है। इन सभी रीति-रिवाजों में किसी भी ब्राहमण या पंडित की आवश्यकता नहीं होती थी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से हिन्दुओं की देखा-देखी में इस जनजाति ने भी ब्राह्मण अथवा पंडित से मिलकर मुहूर्त निकलवाने प्रारम्भ कर दिए हैं।
शाम को या दूसरे दिन लड़की पक्ष वाला दामाद जंगल से पीपल के पांच पत्ते लाता है और उनसे वह ढाई-ढाई पत्तों के दो दोने बनाकर चैक में रख देता है जिनमें हल्दी की गांठ तथा दूब रखी जाती है और इन दोनो में लड़के वाले यथाशक्ति कुछ पैसा डालते हैं। गांव का पटेल लड़के तथा लड़की के पिताओं को एक-एक दोने प्रदान करता है। दामाद दूध का लोटा देता है, दूध की धारा दोने में छोड़़ी जाती है। इसके बाद दोनों पक्षों के दोने परस्पर समधियों द्वारा बदल दिये जाते हैं और फिर दोनों पक्षों के दामादों को यह दोने सौंप दिये जाते हैं। दोनों दामाद अपने-अपने परिजनों को यह दोने स्पर्श कराते हैं। लड़का पक्ष की ओर से लाई हुई नेग जिसे चीठा कहते हैं, की वस्तुओं को लड़की के आंचल में डाल दिया जाता है। इसे गोद भराई कहते हैं। सहरियाओं में गोद भरने की रस्म को आधा विवाह मान लिया जाता है।
इस प्रकार से इसे सगाई का तय होना माना जाता है। इस रस्म के बाद समधी गले मिलते हैं, खुशी मनाते हैं, दारू पीते हैं तथा एक साथ भोजन करते हैं। सहरिया जनजाति की सगाई में आजकल हिन्दुओं के रीति-रिवाजों का प्रभाव कुछ-कुछ देखा जा सकता है।
सगाई होने के बाद यदि लड़की अपनी मरजी से किसी ओर के साथ विवाह कर लेती है तो लड़की की छोटी बहन से विवाह कर सारे विवाद को निपटा लिया जाता है। हालांकि सगाई तोड़ना सहरिया समाज में महापाप माना जाता है। और ऐसा करने वाले के लिए दंड स्वरूप उसके सामाजिक बहिस्कार की भी परंपरा है।
गोंड, बैगा, मुरिया आदि जातियों में पहले सम्बन्ध मामा-बुआ के घर से शुरू होते हैं। लड़की लेने का पहला अधिकार मामा या बुआ के लड़के को होता है। जबकि सहरियाओं में ऐसे सम्बन्ध मान्य नही हैं। इसी कारण सहरिया हिन्दू विवाह पद्धति से सर्वाधिक प्रभावित हैं, और उन्होनें हिन्दुओं के रीति-रिवाज और आचरणों को भी आत्मसात कर लिया है। सहरियाओं में विधवा विवाह की स्थिति में महिला की मरजी पर सब कुछ निर्भर है।
सगाई के परंपरागत रीति-रिवाजों के बाद विवाह का समय आता है और इसमें भी सहरिया समाज शत-प्रतिशत अपनी ही विवाह पद्धतियों को अपनाता है तथा उसमें बाहरी सभ्यता का कोई हस्तक्षेप भी नही होने देता है। इस जनजाति में विवाह को मुख्यतः पांच भागों में बांटा गया है, जिसमें सगाई विवाह को प्रमुख माना गया है और यह विवाह दम्पत्ति के लिए भी तथा उनसे जुड़े अन्य सभी के लिए खुशियों से भरा होता है। इसके अतिरिक्त अन्य विधवा विवाह, खेंका विवाह, झगड़ा विवाह तथा झार फेरा के नाम से जाना जाता है।
सगाई विवाह –
इसमें हिन्दू परम्परा की तरह ही दोनों पक्षों की रजामंदी के अनुसार ही सगाई की रस्म अदा की जाती है तथा उसके लगभग एक वर्ष के अन्दर विवाह भी कर दिया जाता है। इस जनजाति में यह पद्धति अधिक मानी जाती हैं। क्योंकि इसमें लड़के-लड़की की मर्जी के साथ माता-पिता की स्वीकृति भी होती है। ऐसे विवाह को सफल विवाह भी माना जाता है। हिन्दू परम्परा की तरह ही सहरिया लोग भी देव उठनी ग्यारस से ही विवाह प्रारम्भ करते हैं तथा देव शयनी एकादशी के बाद विवाह की तिथि पंच मिलाकर तय करते हैं या फिर किसी पंडित द्वारा बताये गये मुहूर्त के अनुसार ही करते हैं। लगुन, गणेशपूजा, हल्दी, तेल चढ़ावा, मण्डप, बारात आगवानी, भांवर, भोज, विदाई, ससुराल में वर-वधू द्वारा पूजा एवं गौना सहरियों में परम्परागत विवाह की विशेष एवं आवश्यक पद्धतियां हैं तथा सभी विवाह इन्हीं पद्धतियों के अनुसार ही किये जाते हैं। इसमें पुरूष एक से अधिक विवाह तो कर सकता है, किन्तु स्त्री को यह अधिकार नहीं है, क्योंकि स्त्री के दुबारा भांवर नही पड़ते।
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विधवा विवाह –
वैसे तो विधवा के साथ पुनर्विवाह का पहला हक उसके देवर को होता है, किन्तु यदि वह स्त्री किसी अन्य व्यक्ति से पुनर्विवाह करना चाहती है तो उसमें पंचायत तथा समाज के अतिरिक्त किसी को भी कोई परेशानी नहीं होती है। यह विवाह विधवा की मर्जी पर निर्भर होता है। विधवा विवाह में निश्चित दिन पुरूष को केवल विधवा स्त्री के लिए कुछ गहने तथा कुछ कपड़े देने पड़ते हैं और अपनी सुविधा के अनुसार पंचों को भोज खिलाना पड़ता है। कभी-कभी पिता एवं पंचों की सहमति के आधार पर भी किसी योग्य पुरूष के साथ विधवा विवाह कर दिया जाता है।
खेंका विवाह –
यदि विधवा स्त्री किसी अविवाहित पुरूष के घर में बैठ जाती है और पुरूष भी उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार हो जाता है तो उसको खेंका विवाह कहा जाता है। खेंका विवाह में विधवा के आंगन में एक लकड़ी का खम्भा खेंका गाड़ दिया जाता है, इस पर विधवा स्त्री के कपड़े रख दिये जाते हैं या पहना दिये जाते हैं। स्वयं विधवा स्त्री घर के अन्दर बैठी रहती है। इसके लिए उस व्यक्ति को नये कपड़े पहने पड़ते है, जिसपर हल्दी के कुछ दाग लगा दिए जाते हैं। वह विवाहार्थी इस खम्बे के साथ अकेला ही सात फेरे लगाता है। फिर खेंका कपड़े उस स्त्री को पहनाकर गठबन्धन कर दिया जाता है। विवाहित पुरूष भी एक स्त्री के रहते विधवा विवाह कर सकता है। वैसे तो विधवा विवाह को किसी विधुर के साथ ही प्राथमिकता दी जाती है किन्तु इसके लिए कोई अन्य अर्थात विवाहित पुरूष भी तैयार हो जाता है। उस विधवा स्त्री के बच्चों पर हक पूर्व पति के परिवार का ही होता है। सम्पत्ति पर विधवा का अधिकार तब तक नही माना जाता जब तक वह पुनर्विवाह नही करती है। इस बीच छोटे बच्चे बड़े होने तक मां के पास रहते हैं।
झगड़ा विवाह –
इस विवाह के अंतर्गत यदि कोई व्यक्ति किसी विवाहित स्त्री को भगाकर ले जाता है या स्त्री स्वयं प्रेमी के साथ भाग जाती है तो दोनों परिवारों के लोग उन्हें ढूंढकर उनका पुनर्विवाह कर देते हैं। लेकिन इससे पहले उस स्त्री के पूर्व पति को इस नये पति की ओर से झगड़ा देना पड़ता है। और इस झगड़े का निर्णय समाज की पंचायत के द्वारा किया जाता है। यह झगड़ा अर्थात-दण्ड दो-ती सौ रुपयों से लेकर तीन या चार हजार रूपये तक भी हो सकता है तथा इसके साथ ही समाज के लिए भोज और दारू का भी इन्तमजाम करना पड़ता है। पंचायत तथा समाज के सभी निर्णयों को जाति के प्रत्येक सदस्य के लिए पालन करना अनिवार्य होता है। भले ही कोई भी स्त्री यदि किसी पुरूष के साथ अपनी मर्जी से आई हो। इसमें अर्थदण्ड या झगड़ा तो पुरूष को ही भरना पड़ता है।
झार फेरा –
यदि लड़की का विवाह तय हो जाने के बाद उसका पिता प्रलोभन में आकर सम्बन्ध तोड़ देता है और किसी अन्य लड़के के साथ उसका विवाह तय कर देता है तो ऐसी स्थिति में पूर्व परिवार वाले अपनी प्रतिष्ठा के लिए उस विवाह के पहले उस युवती का जबरदस्ती अपहरण करा लेते हैं और अपने लड़के के साथ फेरा या भामर करा देते हैं। विवाहित का अपहरण होने पर खेंका विवाह या झार-फेरा कर देते हैं। यहां पूर्व पति के लिए पंचायत के निर्णयानुसार झगड़ा देना आवश्यक है।
गृह-कलह, बदचलनी या फिर आर्थिक कारणों से होने वाले झगड़ों के कारण पति-पत्नी दोनों एक दूसरे को समाज या पंचायत को बिना बताये छोड़ सकते हैं। ऐसे मामलों में पत्नी भागकर मायके अर्थात् पिता के घर चली जाती है या फिर जिससे मन मिल जाता है उसके घर बैठ जाती है। पूर्व पति झगड़ा वसूलने के लिए जाजम बिछाने का निवेदन पंचायत से करता है। कोई लड़की दूसरी जाति के व्यक्ति के साथ विवाह कर लेती है या उसके घर में बैठ जाती है तो उस व्यक्ति को सहरिया समाज में मिलाने की प्रथा भी है। उस व्यक्ति का गोत्र एवं नाम बदल दिया जाता है। इसके लिए एक रस्म अदा की जाती है जिसे गोत्र मिलाना कहते हैं। उस व्यक्ति को जाति में मिलाने के लिए उसे खुले बदन आंगन में एक खटिया पर बैठा दिया जाता है तथा उस खटिया के नीचे एक बड़ी थाली रख दी जाती है। समाज की कुछ महिलाएं उसके सिर पर पानी डालती हैं। यह पानी कुछ इस तरह डाला जाता है कि सारा पानी थाली में ही इकट्ठा हो। इस स्नान के बाद इस पुरूष को नये कपड़े पहनाये जाते हैं और थाली में से थोड़ा-सा पानी लेकर पंचों के सामने उस पुरूष को पिला दिया जाता है और उसको कोई नया गोत्र एवं नाम दे दिया जाता है। सहरियाओं में सोलंकी, राठौर तथा चैहान जैसे कुछ इसी तरह के गोत्र होते हैं।
इसके विपरीत यदि लड़का इस समाज या गोत्र में नहीं आना चाहता है तो सहरिया लड़की का अपने समाज में आना-जाना बन्द कर देते हैं। इसमें पंचायत का कोई भी जोर नहीं चलता। इसमें विवाह से पूर्व यौन सम्बन्धों को मान्यता नहीं है। जबकि कुछ आदिवासियों में विवाह से पूर्व यौन सम्बन्ध की भी अनुमति होती है। लमसेना इसका प्रथम उदाहरण माना जा सकता है। कोरकुओं में विवाह से पहले ही लड़की को गर्भधारण करवाना विवाह का लायसेंस माना जाता है। यदि एक वर्ष में लमसेना ऐसा कर पाता है तो उसका विवाह कर दिया जाता है अन्यथा उसे भगा दिया जाता है। सहरियाओं में लमसेना प्रथा नहीं है लेकिन घर जवाई प्रथा है। घर जवाई न केवल घर संभालता है बल्कि ससुराल की सम्पत्ति पर भी उसका अधिकार होता है। पुत्र न होने की दशा में घर जवाई रखने की आवश्यकता होती है। और कभी-कभी पुत्र गोद लेकर भी वंश को बचाने का प्रयत्न किया जाता है।
सहरिया जनजाति ने हिन्दू विवाह पद्धति तथा रीति-रिवाजों एवं आचरणों को तो कुछ हद तक आत्मसात करने का प्रयास कर किया है किन्तु आज भी वे अपने समाज, रीति-रिवाज एवं मान्यताओं के क्षेत्रियपन के बंधनों से जुड़े हुए हैं। इसीलिए उन्होंने जन्म से लेकर मृत्यु तक के अपने जीवनकाल की लगभग प्रत्येक पद्धति को शत-प्रतिशत आत्मसात किया हुआ है। जबकि आधुनिक मानव सभ्यता ने तो अपनी जीवन-शैली ही नही वरन आधुनिक रीति-रिवाजों को ही प्राथमिकता दे दी है और पुरानी सभ्यता को तो मात्र ‘‘एक पुराना जमाना’’ या ‘‘प्राचीन काल की सभ्यता’’ का नाम दे दिया है।
– अजय सिंह चौहान