अजय सिंह चौहान | मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले से होकर बहने वाली नर्मदा नदी के किनारे पर, हिंगलाजगढ़ के घने जंगलों और पहाड़ियों में से एक पहाड़ी, जिसको हिंगलाज पहाड़ी के नाम से पहचाना जाता है उस सूनसान पहाड़ी पर देवी माता का एक ऐसा मंदिर है जिसके बारे में माना जाता है कि यह मंदिर अति प्राचीन और पौराणिक युग का मंदिर है।
यह मंदिर कितना प्राचीन है इस बात के कोई निश्चित प्रमाण और तथ्य मौजूद नहीं हैं। लेकिन, जो तथ्य मौजूद हैं उनके अनुसार मौर्य वंश के प्रांभिक दौर के साम्राज्य से भी पहले से हिंगलाज माता का यह मंदिर यहां मौजूद था। जबकि, वर्तमान में यहां जो दुर्ग है उसे भी इसी हिंगलाज माता के नाम से ही हिंगलाजगढ़ दुर्ग या हिंगलाजगढ़ किला कहा जाता है।
स्थानिय लोगों में हिंगलाज माता के इस मंदिर को लेकर मान्यता है कि यह मंदिर 52 शक्तिपीठों में से ही एक है। हालांकि, सर्वमान्य तौर पर इसे शक्तिपीठ के रूप में तो नहीं माना जाता है, लेकिन, स्थानिय स्तर पर यहां यह मान्यता है काफी प्रचलीत है। इसके अलावा, हिंगलाजगढ़ की हिंगलाज माता को मौर्य वंश यानी क्षत्रिय वंश की कुलदेवी के रूप में माना जाता है।
फिलहाल, पौराणिक मान्यताओं और कई साक्ष्यों के आधार पर हिंगलाज माता का शक्तिपीठ मंदिर इस समय पाकिस्तान के कब्जे वाले बलुचिस्तान प्रांत में स्थित है। लेकिन, यहां इस मंदिर के बारे में जो तर्क और सबूत दिए जाते हैं उसमें सबसे खास और सबसे महत्वपूर्ण है कि यहां से प्राप्त देवी की अति प्राचीन काल की कुछ प्रतिमायें शक्ति के विविध स्वरूपों को दर्शाती हैं। और इन देवी प्रतिमाओं में भी गौरी प्रतिमाओं की संख्या अधिक है। इस स्थान से गौरी की जितनी भी प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं उस प्रकार की या उस समय की कोई भी अन्य प्रतिमायें कहीं और से या किसी अन्य स्थान से अभी तक प्राप्त नहीं हुई हैं।
रहस्यमयी दिव्य आत्माओं का स्थान है हिंगलाजगढ़ किला | Hinglajgarh Fort History
मात्र इतना ही नहीं, बल्कि इस स्थान से सप्तमातृकाओं की भी प्रतिमायें प्राप्त हो चुकी हैं। इसके अलावा शक्तिपीठों से जुड़ी मान्यताओं के अनुसार जब से शक्तिपीठों में तान्त्रिक पूजा का समावेश हुआ तभी से हिंगजालगढ़ में भी कलाकारों और शिल्पकारों के द्वारा पौराणिक काल में कई योगिनी प्रतिमायें निर्मित की गयी। और उसी के फलस्वरूप यहां से भी अपराजित, वैनायकी, काव्यायनी, भुवनेश्वरी और बगलामुखी आदि देवियों की प्रतिमायें प्राप्त हुई।
हिंगलाजगढ़ नामक यह दुर्ग कितना प्राचीन है इसके कोई निश्चित या ऐतिहासिक व अभिलेख और साक्ष्य फिलहाल उपलब्ध नहीं है। लेकिन, यहां से प्राप्त विभिन्न प्रतिमाओं में से अधिकतर प्राचीनतम प्रतिमायें तो 5वी और 6वीं शताब्दी से लेकर 14 ई. तक की बताई जाती हैं।
इसके अलावा, हिंगलाजगढ़ नामक इस दुर्ग के इतिहास को लेकर जो तथ्य हैं उनके अनुसार यह दुर्ग परमार काल की सामरिक गतिविधियों के अतिरिक्त भी महत्वपूर्ण रहा है। फिलहाल, यह प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता है कि हिंगलाजगढ़ दुर्ग कितना प्राचीन है क्योंकि इसके ऐतिहासिक व अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त नहीं हो सके हैं। लेकिन, यहां से प्राप्त प्रतिमाओं के आधार पर माना जाता है कि इनमें से अधिकतर प्राचीनतम प्रतिमायें हैं जो 5वीं और 6वीं शताब्दी की हैं।
मुगलों और मेवाड़ के राजाओं के बीच वर्ष 1520 से 1752 के दौरान हुए कई छोटे और बड़े सभ्यता संहारक युद्धों का ही परिणाम है कि पश्चिमी मालवा के इस क्षेत्र में भी हर कदम पर पवित्र मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं। हिंगलाजगढ़ का यह किला और इसका साम्राज्य मुगल आक्रांताओं के क्रुरता भरे रक्तपात और उनकी निर्दयता के अलग-अलग रूपों का साक्षी रहा है।
धार के किले में आज भी मौजूद है असली और नकली इतिहास | History of Dhar Fort
लगभग 1,000 वर्ष पुरानी इस वर्तमान दुर्ग संरचना का इतिहास किसी रहस्य और रोमांच से कम नहीं है। मालवा पर शासन करने वाले परमार राजाओं ने 11वीं शताब्दी के अपने शासनकाल के दौरान यहां एक अद्भुत किले का निर्माण कराया था। आज भले ही यह किला एक प्रकार से खंडहर का रूप ले चुका है, लेकिन इसकी बनावट और वैभवपूर्ण शिल्पकारी को देख कर इसके ऐतिहासिक महत्व और बुलंदियों का अंदाजा लगाया जा सकता है।
हिंगलाजगढ़ के इस दुर्ग से प्राप्त कुछ कलाकृतियां प्रदेश के संग्रहालयों में ही नहीं बल्कि विदेशों में आयोजित भारत महोत्सवों में भी प्रदर्शित की जा चुकी हैं। इन मूर्तियों की विशेषता यह है कि आज भी हिंगलाजगढ़ के इस किले में आने वाले सैलानियों से ये प्राचीन मूर्तियां बातें करती सी लगती हैं।
इन सब के अलावा यहां से लगभग 500 से भी अधिक कुछ ऐसी मूर्तियां प्राप्त हुई हैं जो परमार काल की हैं। परमार काल की मूर्तिकला को पूर्व-मध्यकाल की पूर्ण विकसित और अब तक की सबसे विशेष एवं महत्वपूर्ण मूर्तिकलाओं में माना गया है। क्योंकि इन कलाकृतियों में उकेरी गई हर प्रकार की मूर्तियों में शरीर को हल्का तथा इनकी भंगिमाओं को आकर्षक और सूक्ष्म आकार के आभूषणों के साथ दिखाया गया है।
दरअसल यहां से जो भी मूर्तिशिल्प प्राप्त हुई हैं उनमें सबसे अधिक गौरी की मूर्तिशिल्प हैं और इन प्रतिमाओं में उनके विविध रूपों को दर्शाया गया है। इन सभी मूर्तिशिल्पों में शिल्पकार का विषय मुख्यतः मालवा की नारी ही रही है। इन सभी मूर्तियों में चेहरे गोल दर्शाये गये हैं, इनकी ठोड़ी में उभार, भौहें तथा नाक और पलकों में तीखापन दर्शाया गया है। इन सभी प्रतिमाओं के वस्त्र और भूषणों में स्थानीय संस्कृति की स्पष्टतः झलक दिखाई देती है।
इन सब के अतिरिक्त इस हिंगलाजगढ़ क्षेत्र से प्राप्त कई वैष्णव प्रतिमाओं में विष्णु के विविध स्वरूपों की प्रतिमाऐं भी देखने को मिलती हैं। इनमें प्रमुख रूप से लक्ष्मीनारायण, गरूड़ासीन विष्णु, योग नारायण, वामन, नृसिंह का अवतार जैसी प्रतिमायें प्रमुख हैं। यहां से अष्टदिकपाल कार्तिकेय, भगवान गणेश, सूर्य देव सहीत अनेक देवी-देवताओं की कुछ ऐसी प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं जो शिलपकार की सूक्ष्म कला और उसके विशाल मानसिकता की को दर्शाती है।
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यहां से प्राप्त सनातन संस्कृति के देवी-देवताओं की प्रतिमाओं सहीत जैन समुदाय की भी कुछ विशेष कलाकृतियां प्राप्त हुई हैं। हिंगलाजगढ़ की मूर्तिकला में इस समुदाय को भी मूर्तिकारों ने विशेष स्थान दिला दिया है जिनमें विशेषकर जैन तीर्थंकर प्रतिमाओं में शांतिनाथ, परश्वनाथ, सुपरश्वनाथ, चन्द्रप्रभु आदि की प्रतिमायें खास हैं।
हिंगलाजगढ़ की इन मूर्तियों को निहारने वाले अधिकतर पर्यटकों के मन में अक्सर यही सवाल उठता है कि जहां एक ओर मुगलकाल के दौर में संपूर्ण भारतवर्ष तमाम तरह से हाहाकार मची हुई थी और मंदिरों तथा मूर्तियों को तोड़ा जा रहा था उन्हें नष्ट किया जा रहा था वहीं भला भारत के मध्य में होने बाद भी ये मूर्तियां सुरक्षित कैसे रह सकीं थीं, तो उनके लिए कई इतिहासकारों एवं स्थानिय लोगों का कहना है कि, दरअसल यह स्थान एक प्रकार से पिछले सैकड़ों वर्षों से निर्जन स्थान के रूप में पहचाना जाता रहा।
उस दौर में भी यहां आस-पास कोई कोई गांव या खेत-खलिहान नहीं था। इसीलिए मुगलकाल के समय संभवतः वे लुटेरे यहां हिंगलाजगढ़ तक बार-बार नहीं पहुंच पाये और यहां की मूर्तिकला को वे उतना नुकसान नहीं पहुंचा पाये जितना की अन्य स्थानों पर उन्होंने किया। हालांकि, वर्ष 1520 से 1752 तक के मुगलकाल के उस सबसे भीषण और सबसे क्रुर, अत्याचार और रक्तपात से भरे दौर में यह स्थान भी सत्ता और संघर्ष के दौरान अछूता नहीं रह सका।
हिंगलाजगढ़ का यह किला मध्य प्रदेश और राजस्थान की सीमा पर पश्चिम मालवा में स्थित है। अपने समय में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाने वाला और लगभग 10 किलोमीटर अर्द्धवृत्ताकार और करीब 300 फीट गहरी खाई से घिरी जिस टेकरी की ऊंचाई पर यह किला बना हुआ है उसके दो तरफ से होकर यहां की चंबल नदी बहती है। इस हिंगलाजगढ़ किले से करीब 35 किलोमीटर की दूरी पर ही गांधी सागर बांध का जलाशय भी है।
आज भले ही यह किला एक प्रकार से खंडहर का रूप ले चुका है, लेकिन इसकी बनावट और वैभवपूर्ण शिल्पकारी को देख कर इसकी ऐतिहासिकता और सामरिक महत्व और बुलंदियों का अंदाजा लगाया जा सकता है।
इस किले तक पहुंचने के लिए यहां के घने अभयारण्य क्षेत्र से होकर जाना पड़ता है। इस किले और यहां की अद्भुत शिल्प कारीगरी को साक्षात निहारे और उसका अवलोकन के लिए बड़ी संख्या में देश-विदेश के इतिहास प्रेमी और पर्यटक आते रहते हैं। यहां आने वाले पर्यटकों के मुख से एक ही बात निकलती है कि हिंगलाजगढ़ किले से प्राप्त पत्थरों की इन मूर्तियों में आज भी प्राण बसे हैं।