अजय सिंह चौहान || मैंने अपने इसी सीरिज के पिछले 1 से लेकर छठे लेख तक यह बताने का प्रयास किया है कि हिमालय के अदृश्य जीव यानी ऋषि-मुनियों का रहस्य क्या है? और यह संसार उनके बारे में कितनी जानकारियां रखता है? उनकी आयु कितनी है? और वे क्यों और किस प्रकार से अपने आप को इस संसार से दूर रखते है? कैसे आज के जीव विज्ञानी, उन ऋषि-मुनियों की हजारों वर्षों की आयु को लेकर अपनी-अपनी रिसर्च कर रहे हैं। उसलेखकालिंकभीमैंयहाँदेरहाहूँ :-
आयुष्मान भवः, चिरंजीवि भवः, अमृत और अमर जैसे शब्दों का महत्व – भाग #6
और आज, इसी सीरिज के 7वें लेख में, मैं यह बताने का प्रयास कर रहा हूं कि क्या वाकई कुछ ऋषि-मुनियों की आयु हजारों वर्ष तक की भी हो सकती है? क्या उदाहरण के रूप में आज भी ऐसे कुछ ऋषि-मुनी हमारे बीच हैं जो पिछले 500 या 700 सालों से आज भी जीवित हैं या फिर कुछ दिन या कुछ सालों पहले तक भी थे।
हमारा आयुर्वेद शास्त्र कहता है कि, आज के प्रदूषण भरे दौर में भी एक साधारण मनुष्य की औसत आयु लगभग 125 वर्ष तक हो सकती है। लेकिन, अगर वह चाहे तो इसे अपने योगबल से 150 से भी अधिक वर्षों तक ले जा सकता है।
आयुर्वेद शास्त्र यह बात बहुत ही साफ शब्दों कहता है कि- ‘प्राचीन मानव की सामान्य उम्र 350 से 400 वर्षों तक हुआ करती थी।’ हालांकि उस दौर में धरती का वातावरण, खानपान और जलवायु भी एक आम व्यक्ति को इतने वर्षों तक जीवित रखने के लिए उपयुक्त हुआ करती थी।
इस विषय को लेकर जब मैंने, गुगल पर कुछ जानकारियां, कुछ लेख या कुछ दस्तावेज आदि खोजने का प्रयास किया तो मुझे एक आश्चर्यचकित कर देने वाली जानकारी भी मिली, जिसमें यह दावा किया गया है कि प्राचीन काल के लोग मात्र 1 हजार या 5 हजार वर्षों तक ही नहीं बल्कि 84 हजार वर्षों तक भी जिंदा रहने के नुस्खे जानते थे।
दरअसल, प्राचीन और मध्यकाल के उस दौर में, अधिकतर हस्तलिखित दस्तावेज ही होते थे। उनमें से लाखों दस्तावेज तो लुप्त हो गए या फिर जला दिए गए। लेकिन, फिर भी उनमें से कई हस्तलिखित दस्तावेज ऐसे हैं जो आज भी देखने को मिल ही जाते हैं।
ठीक ऐसी ही एक हस्तलिखित पांडुलिपि का दावा किया है, इंदौर के रहने वाले श्री नरेंद्र चैहान जी ने। श्री नरेंद चैहान जी का कहना है कि उनके पास एक ऐसी हस्तलिखित पांडुलिपि आज भी सुरक्षित है जो यह दावा करती है कि इंसान चाहे तो चार या पांच हजार नहीं बल्कि, पूरे 84 हजार वर्षों तक जिंदा रह सकता है। हालांकि, इस दावे में कितनी सचाई है यह तो उस पांडुलिपि पर शोध किए जाने के बाद ही पता पायेगा।
जबकि इसी दावे के अनुसार हमारे पौराणिक ग्रंथों में जिन चिरंजीवियों का जिक्र आता है उनके बारे में तो हम पहले ही बात कर चुके हैं।
ठीक इसी तरह से अन्य जीवों या वनस्पतियों में भी चिरंजीवी होने का प्रमाण हमारे सामने आता है, जिसमें सबसे पहले अमरबेल का नाम सबसे पहले लिया जा सकता है। जबकि अन्य जीव-जन्तुओं में देखें तो समुद्र में पायी जाने वाली ‘जेलीफिश’ नाम की मछली भी एक अमर जीव कहलाती है।
विज्ञान कहता है कि तकनीकी दृष्टी से जेलीफिश की कभी भी मृत्यु नहीं होती। लेकिन अगर कोई दूसरा जीव इसको चोट पहुंचा दे या मार दे, या फिर किसी घटना या दुर्घटना में इसको चोट लग जाये तब तो इसको मरना ही होता है। जेलीफिश के बारे में जीव विज्ञान का कहना है कि ये जीव बुढ़ापा प्राप्त करने के बाद, एक बार फिर से बचपन की ओर लौटने की क्षमता रखता है।
वर्तमान समय में भी अगर हम, बहुत ज्यादा नहीं तो कम से कम 500 या 700 की आयु के उदाहरणों को देखें तो हमें यहां भी कई ऐसे चैंकाने वाले तथ्य मिलते हैं जिनसे यह साबित हो जाता है कि, भले ही हजारों वर्ष ना सही, लेकिन, कम से कम चार सौ या पांच सौ वर्षों तक तो व्यक्ति आराम से जी ही सकता है।
उदाहरण के तौर पर यदि हम गुगल पर ‘त्रैलंग स्वामी’ के नाम को सर्च करें तो यहां उनका जन्म 27 नवंबर 1607 और निधन 26 दिसंबर 1887 बताया जा रहा है। यानी उनका निधन की करीब 280 साल की आयु में वाराणसी में हुआ है। त्रैलंग स्वामी को ‘स्वामी गणपति सरस्वती’ की उपाधी दी गई थी। जिसमें से उन्होंने वाराणसी में सन 1737 से 1887 तक यानी लगभग 150 वर्षों तक जीवन बिताया था। त्रैलंग स्वामी के पिता का नाम नृसिंह राव और माता विद्यावती था। त्रैलंग स्वामी के विषय में विस्तार से जानकारी के लिए ‘वाराणसी के सचल विश्वनाथ’ के नाम से गुगल पर खोजा जा सकता है। त्रैलंग स्वामी की लंबी आयु से जुड़े ये आंकड़ें कोई मनगढ़ंत नहीं बताये जा रहे हैं।
ठीक इसी तरह देवरहा बाबा भी थे, जिनका निधन सन 1990 में हुआ था। उनकी उम्र को लेकर तो यहां तक भी दावा किया जाता है कि वे करीब 900 वर्षों तक जीवित रहे। जबकि, कुछ अन्य लोगों का दावा है कि उनकी आयु 250 वर्ष थी, और कुछ का कहना है कि वे 500 की आयु के थे। हालांकि देवरहा बाबा के जन्म का निश्चित वर्ष ज्ञात नहीं है, लेकिन, देवरहा बाबा के बारे में जो तथ्य और जानकारियां मिलती हैं उनके अनुसार वे हिमालय के किसी दूर्गम और अज्ञात क्षेत्र में रह कर अनेक वर्षों की साधना करने के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया नामक स्थान पर पहुंचे थे।
देवरिया में कई वर्षों तक निवास करने के कारण ही उनको ‘देवरहा बाबा’ की उपाधि दी गई थी। ‘देवरहा बाबा’, महर्षि पातंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में पारंगत थे। इसके अलावा उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि उनको एक विशेष प्रकार की ‘खेचरी मुद्रा’ पर सिद्धि थी, जिस कारण वे अपनी भूख-प्यास और आयु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते थे।
ठीक इसी प्रकार से बंगाल के एक अन्य संत लोकनाथ जी का जन्म भी 31 अगस्त 1730 में हुआ था और 3 जून 1890 को उनका देहांत हुआ था। यानी संत लोकनाथजी करीब 160 वर्षों तक जीवित रहे। एक अन्य संत श्री शिवपुरी बाबा के विषय में भी तथ्य बताते हैं कि उनका जन्म 27 सितंबर 1826 में और निधन जनवरी 1963 में हुआ था। शिवपुरी बाबा भी लगभग 137 वर्षों तक जीवित रहे।
हालांकि, आज भी कई ऐसे संत और ऋषि-मुनि हैं जो सैकड़ों वर्षों से हिमालय के दूर्गम क्षेत्रों में तपस्या कर रहे हैं, उनमें से कुछ के विषय में तो कहा जाता है कि वे आम लोगों के बीच रह कर भी तपस्या कर रहे हैं। लेकिन, किसी भी व्यक्ति को इस बात का एहसाह तक नहीं होने देते कि वे कौन हैं और उनका उद्देश्य क्या है।
अब अगर इन सब बाबाओं की आयु के विषय से हट कर एक बार फिर हम आधुनिक विज्ञान की बात करें तो, इंसान की अधिकतम आयु और अमरता के रहस्यों से पर्दा हटाने की दिशा में विज्ञान लगातार प्रयास कर रहा है। और इस विषय में किये जाने वाले विभिन्न प्रयासों में लगभग हर बार, हर विज्ञानी के एक जैसे ही मत सामने आते हैं।
पश्चिमी दुनिया के जीव विज्ञानी, बढ़ती उम्र के प्रभाव को रोकने के लिए आधुनिक विज्ञान में कई तरह की दवाइयों और सर्जरी के विकास में लगे हैं। लेकिन, वे उसमें इतना अधिक कुछ नहीं कर पा रहे हैं जितना की उन्होंने हमारे ऋषि-मुनियों के बारे में सूना और जाना है। इसलिए अब वे अपने उन खोज के कामों में योग, आयुर्वेद और सनातन धर्मशास्त्रों के अध्ययन को भी महत्व दे रहे हैं।
और, इसी विषय पर एक व्यापक सर्वे में पाया गया कि उम्र बढ़ाने वाली ‘गोली’ को बनाना संभव तो है, लेकिन, बिना प्राकृतिक सहयोग के नहीं। और प्राकृतिक सहयोग के सीधा-सा मतलब है आयुर्वेद। और आयुर्वेद का मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि सिर्फ और सिर्फ भारत की भूमि पर पाये जाने वाले पेड़-पौधे ही प्रयोग किये जा सकते हैं। क्योंकि रूस में स्थित साइबेरिया के जंगलों में ‘जिंगसिंग’ नाम की एक ऐसी औषधि पाई जाती है जिसका इस्तेमाल चीन के कुछ ऐसे लोग करते हैं जो अधिक आयु तक युवा बने रहते हैं।
बढ़ती आयु को लेकर कई बार अलग-अलग तरह से वैज्ञानिक खोज हो चुकी हैं, जिनमें से ‘जर्नल सेल’ में प्रकाशित एक रिसर्च की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि बढ़ती उम्र का प्रभाव ‘जिनेटिक प्लान’ का हिस्सा हो सकता है, शारीरिक गतिविधियों का नतीजा नहीं। इसलिए अगर बढ़ती उम्र के असर को उजागर करने वाले विशेष ‘जिनेटिक प्रोसेस’ को ही बंद कर दिया जाए, तो इंसान हमेशा जवान बना रह सकता है।
‘जर्नल नेचर’ में प्रकाशित ‘पजल, प्राॅमिस एंड क्योर आफ एजिंग’ नामक एक अन्य रिव्यू में कहा गया है कि आने वाले कुछ दशकों में इंसान का जीवनकाल बढ़ा पाना संभव हो सकता है। ‘डेली टेलीग्राफ’ नाम के अखबार के अनुसार एज रिसर्च पर डाॅक्टर जूडिथ कैंपिसी का मानना है कि इसमें कोई शक नहीं कि इंसान के जीवनकाल को बढ़ाया-घटाया जा सकता है।
तो ये थी मेरी कुछ तथ्यात्मक जानकारियां जिनको मैंने अपनी एक संक्षिप्त रिसर्च के माध्यम से एकत्र किया है। हो सकता है कि इनमें कई प्रकार की महत्वपूर्ण जानकारियां अधुरी रह गई हों या छूट गई हों, या फिर कुछ तथ्यों से कई लोग सहमत भी न हों। लेकिन, इतना तो तय है कि इस सीरिज के लेख नंबर एक से लेकर लेख नंबर सात तक मैंने जो भी जानकारियां देने का प्रयास किया है उनमें कहीं न कहीं, कुछ न कुछ तो सच्चाईयां जरूर हैं।
फिलहाल मैं इस सीरिज के अपने सातवें लेख तक ही इन जानकारियों को बता पा रहा हूं। हो सकता है कि समय मिलने पर मैं इसी विषय पर कुछ और भी जानकारियां जुटा सकूं, जो इन सबसे अलग हों। धन्यवाद।