जब मैंने गुगल सर्च में एक सवाल टाइप किया कि ‘‘भारत में सबसे भ्रष्ट पत्रकार कौन है?’’ तो उसके जवाब में गुगल ने बहुत ही सटीक जानकारी के साथ तो नहीं लेकिन, कुछ हद तक संतुष्ट करने वाला जवाब भी सामने दिखा दिया। गुगल का जवाब था- ‘‘कोई भी पत्रकार भ्रष्ट नहीं होता। वे पेड होते है। यानी जो उन्हें च्ंल (पैसे देता है) करता है उस हिसाब से रिपोर्टिंग करते है। जिस तरह अन्य प्रकार के कारोबारों में कर्मचारी अपनी ड्यूटी पूरे समर्पण एवं ईमानदारी से करते हैं उसी तरह से पत्रकार भी पूरी ईमानदारी से अपना काम करते हैं।’’
लेकिन, इस उत्तर के बाद भी मेरे मन में यही सवाल उठ रहा था कि इन पत्रकारों को आखिर, इतना पैसा कौन और किस रूप में देते हैं कि जिसके कारण ये पत्रकार अपने ईमान को बेचने को मजबूर हो जाते हैं या फिर कोई अन्य कारण या विवशता खड़ी हो जाती है? क्या कोई माफिया गिरोह इनसे यह काम करवाता है? या फिर राजनीतिक विचारधाराओं के चलते या फिर किसी विशेष धर्म या संप्रदाय के कारण इन पत्रकारों को कभी-कभी अपने कर्तव्यों को एक तरफ रख कर कुकर्मवादी पत्रकारिता करने के लिए विवश होना होता है। सवाल तो बहुत से हैं, उनके जवाब भी हैं। लेकिन, क्या कोई उन्हें सहन कर सकेगा?
दरअसल मुझे लगता है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रसिद्धी के स्तर पर आज भी कम से कम 80 प्रतिशत छोटे स्तर या छोटे नाम वाले ऐसे पत्रकार हैं जो अपन काम को पूरी ईमानदारी से करना चाहते तो हैं लेकिन, क्योंकि वे प्रतिमाह की आय पर होते हैं और यही उनकी एकमात्र जीविका का साधन होता है इसलिए अपने पेट पर लात मारने की बजाय समझौता करने पर विवश हो जाते हैं। कहा जा सकता है कि ये सभी पत्रकार उस दौर में भी ईमानदारी से अपना काम कर रहे थे, और आज भी पूरी ईमानदारी से नहीं तो कम से कम दिल लगाकर तो काम कर ही रहे हैं।
अब बात करते हैं हाईप्रोफाइल पत्रकारिता और पत्रकारों की। वर्तमान दौर में संपूर्ण संसार की आम जनता के माथे पर सोशल मीडिया के रूप में भले ही तीसरी आंख खुल चकी है, लेकिन, भारत में आज भी एक आम आदमी को यह नहीं चल पाता है कि मीडिया के क्षेत्र के अखबारों और न्यूज चैनलों की खबरों में उसकी औकात कितनी है। आज भी हर प्रकार की खबरों में झूठ को इस कदर परोसा जा रहा है कि किसी को पता ही नहीं चल पाता है कि वह सच देख रहा है या फिर झूठ।
एक पत्रकार का कर्तव्य और काम यही होता है कि वह नागरिकों को सच्ची खबरें दिखाये। कर्तव्य इसलिए क्योंकि मीडिया और पत्रकारा दोनों ही लोकतंत्र के चैथे स्तंभ के रूप में स्थिर और अडिग माने गये हैं।
लेकिन, यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एक पत्रकार मात्र वैतनिक कर्मचारी होता है। वैतनिक तो पुलिस भी होती है, किसी सरकारी दफ्तर का क्लर्क भी होता है, और तो और आजकल के बड़े से बड़े नेता भी, यहां तक कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी वेतन पाते हैं। एक जिला जल से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधिश भी वेतन पाते हैं। लोकतंत्र के चैथे खम्बे के रूप में इनमें से यदि हम किसी में भी यूं ही अपने विश्वास को बनाए रखते रहेंगे तो कहीं न कहीं दोष हमारा ही माना जायेगा। क्योंकि वर्ष 1947 के बाद से आज की तारीख तक लोकतंत्र का यह खम्बा कई बार स्वयं भी हिल चुका है और कई पार्टियों और बाहुबलियों के द्वारा बार-बार हिलाया भी जा चुका है।
भले ही लोकतंत्र का यह चैथे खम्बा आज कुछ विशेष कारणों के चलते और अधिक मजबूत हो चुका हो, लेकिन, ध्यान रखें कि इसकी मजबूती अब इसके तने में नहीं बल्कि इसकी गहराई के कारण है, क्योंकि जो वृक्ष या स्तंभ जितना गहरा होता है उतना ही वह मजबूत भी होता है। ऐसे में यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि यदि इस स्तंभ की गहराई अधिक है तो फिर जाहिर सी बात है कि ऊपर से इसकी ऊंचाई बहुत कम हो चुकी है, अर्थात कोई भी इसे लांघ कर इधर से उधर आ जा सकता है।
यहां हम सीधे-सीधे यह भी कह सकते हैं कि आज के दौर में “लोकतंत्र के चैथे खम्बे” जैसी बकवास करने से कोई लाभ नहीं होने वाला है। क्योंकि आज यदि कोई पत्रकारिता जगत को या पत्रकारों को ‘‘लोकतंत्र के प्रहरी’ “लोकतंत्र का चैथा स्तंभ और ‘‘जनता का सिपाही” जैसे अलंकार देकर उसका सम्मान करते हैं तो सीधे-सीधे यही माना जाता है कि आपके दिमाग में उसी ‘‘पेड मीडिया’’ ने ही ऐसा गोबर डाला है।
आज के मीडिया हाउस अन्य कम्पनियों की भांति ही कारोबारी कम्पनियां हैं इसलिए ये कंपनियां भी मुनाफे के लिए ही कार्य करती हैं, अपने अखबार चलातीं हैं, टीवी चैनल्स चलाती हैं। इनके कर्मचारी सिर्फ और सिर्फ पत्रकारों के रूप में मेहनत करते हैं, लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए बिल्कुल भी नहीं। उदाहरण के तौर पर यहां हम रामायणकालीन उस कालनैमि का नाम भी मीडिया और पत्रकारों के साथ जोड़ सकते हैं।
आज के मीडिया हाउस राजनीतिक दलों के सलाहकार होते हैं, राजनेताओं के प्रवक्ता होते हैं। सीधे-सीधे कहें तो मीडिया सलाहाकार होते हैं। ‘‘पेड न्यूज’’ की खोज भी यही करते हैं और उनका प्रचार भी यही करते हैं। किसी भी बड़े से बड़े राष्ट्रवादी मीडिया घराने या फिर राष्ट्रवादी पत्रकार को यदि उचित लालच दिया जाये और कहा जाये कि वो कल से किसी भी दुश्मन देश के लिए प्रचार करना शुरू कर दे और उसकी जड़ों को यहां मजबूत करने के लिए राजनीतिक क्षैत्र में स्थान बनाने का कार्य करना प्रारंभ कर दे तो उसके लिए बिल्कुल भी नहीं सोचेगा कि वह सही करने जा रहा है या गलत। न तो वह अपनी विचारधारा और धर्म को देखेगा और न ही अपने या अपने देश के भविष्य के बारे में सोचेगा।
एनडीटीवी जैसा मीडिया घराना और इसके सभी कर्मचारी खास तौर पर तथाकथित पत्रकार, रविश कुमार को लेकर एक आम राय है कि यह घोर हिंदू विरोधी ही नहीं बल्कि भारत के विरोध में भी है। लेकिन, यहां हम यदि पेड न्यूज की बात करें तो इसी एनडीटीवी जैसे मीडिया घराने को प्रति दिन के हिसाब से जितने दिनों तक भी एक विशेष पैकेज देकर हिंदुत्व का प्रचार या फिर अन्य किसी भी मनचाही विचारधारा का प्रमोशन करवाया जा सकता है। क्योंकि वह एक कर्मचारी है।
पत्रकारिता के क्षेत्र में इंडिया टीवी के रजत शर्मा के बारे में कहा जाता है कि उनके नाम के लिए सही शब्द ‘‘पेड रजत शर्मा’’ है। इसी प्रकार से पेड रविश कुमार, पेड पुण्य प्रसून वाजपेयी, पेड बरखा दत्त, पेड सुधीर चैधरी, पेड राजदीप सरदेसाई, पेड अर्नव पेड गोस्वामी भी हैं। इस तरह अन्य कई कर्मचारियों के नाम भी हैं जिन्हें आजकल पत्रकारों की श्रेणी में रखकर उन्हें लोकतंत्र का विशेष स्तंभ समझा जाता है। जबकि सही मायनों में ये सब के सब किसी न किसी मीडिया कंपनी के कर्मचारी हैं न कि पत्रकार।
पेड पत्रकारों के षड्यंत्र और हथकंडे वैचारिक तौर पर इतने दमदार और बेदाग स्तर के होते हैं कि उनके चाहने वाले उन्हें हर स्तर पर ईमानदार और राष्ट्रवादी मान कर ही चलते हैं। क्योंकि ऐसे लोग अपने उत्पाद को यानी अपनी खबरों को अपने पाठकों और दर्शकों के दिल-दिमाग में इतनी सफाई से भर देते हैं कि किसी को पता भी नहीं चलता।
दरअसल इसके लिए जिम्मेदार ये पेड पत्रकार नहीं बल्कि उनके चाहने वाले ही होते हैं जो उन पर आंख बंद कर भरोसा करते जाते हैं। उनके चाहने वाले एक दम ऐसे हैं जैसे पिछले सत्तर वर्षों तक कांग्रेस के वोटर रहे हैं और आज भी हैं। सही मायनों में तो आज के पत्रकार सिर्फ पैसों के लिए काम करना जानते हैं, सरकार की गलत नीतियों का विरोध करना या सरकार का सीधे-सीधे विरोध करना अब पत्रकारिता का सिद्धांत नहीं है। आज की पत्रकारित पूरी तरह से चाटुकारिता में बदल चुकी है।
– गणपत सिंह, खरगौन (मध्य प्रदेश)