वर्तमान परिस्थितियों में देखा जाये तो व्यक्ति, परिवार, समूह, समाज एवं राष्ट्रीय स्तर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक जो वातावरण बना हुआ है, उसमें कमोबेश यही देखने को मिल रहा है कि अधिकांश मामलों में जैसे को तैसा की तर्ज पर सबक सिखाने का कार्य चल रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में इस बात की चर्चा पूरी दुनिया में और भी व्यापक रूप से होने लगी है। इससे बड़ी बात यह है कि किसके कंधे पर बंदूक रख कर कौन कब किसके ऊपर चला दे, इसका भी कुछ पता नहीं है।
कहने का आशय यह है कि कोई यदि किसी से किसी प्रकार का बदला लेना चाहता है या किसी रूप में सबक सिखाना चाहता है तो दूसरों की आड़ में यह काम ज्यादा प्रचलन में देखने को मिल रहा है। उदाहरण के तौर पर वैश्विक महाशक्तियों एवं नाटो देशों के झांसे में आकर यूक्रेन आगे तो बढ़ गया किन्तु प्रत्यक्ष रूप से यूक्रेन का साथ देने के लिए न तो अमेरिका आ रहा है न ही कोई अन्य महाशक्ति। और तो और, नाटो देश भी यूक्रेन को आश्वासन ही ज्यादा दे रहे हैं। इस पूरे घटनाक्रम में यह भी कहा जा सकता है कि यूक्रेन के कंधे पर बंदूक रख कर चलाने का काम बहुत व्यापक रूप से हो रहा है। यूक्रेन ने अपना कंधा दूसरों को प्रयोग करने के लिए क्यों दिया, इस बात से कुपित होकर रूस उसे सबक सिखाने का काम कर रहा है।
अमेरिका सहित विश्व के कई देश रूस को विभिन्न प्रतिबंधों के माध्यम से सबक सिखाने में लगे हैं जबकि सच्चाई तो यह है कि किसी भी कार्य की प्रतिक्रिया में यदि कुछ किया जाता है तो वह हमेशा अच्छा ही नहीं होता है। अच्छे कार्य की प्रतिक्रिया में कुछ होता है तो उसे अच्छा माना जाता है और बुरे कार्य की प्रतिक्रिया में कुछ होता है तो उसके दुष्परिणाम ही देखने को मिलते हैं।
वैश्विक स्तर पर महाशक्तियों की बात की जाये तो वे सर्वत्र एवं सदैव यही साबित करने का प्रयास करती हैं कि वे पूरी दुनिया में शांति के लिए कार्य करती हैं और उनके सभी काम सिर्फ शांति के लिए ही होते हैं किन्तु यदि व्यावहारिक धरातल पर देखा जाये तो मामला कुछ और देखने को मिलता है। कोई भी देश यदि महाशक्तियों के इशारे पर नाचने का काम नहीं करता है तो उसे तरह-तरह से परेशान कर सबक सिखाने का कार्य करती हैं।
महाशक्तियों द्वारा कमजोर देशों को सबक सिखाने का काम पूरी दुनिया में बहुत व्यापक स्तर पर देखने को मिला है। आज अमेरिका यूक्रेन को लेकर घड़ियाली आंसू भले ही बहा रहा है किन्तु उसने भी इराक सहित कई देशों को सबक सिखाने का काम किया है। जहां तक रूस की बात है तो वह यूक्रेन पर हमले से पहले 2008 में जार्जिया और 2014 में क्रीमिया पर कब्जा कर चुका है। कुल मिलाकर रूस की इच्छा यही है कि शीत युद्ध के समय सोवियत संघ का जो गौरव था, उसे रूस फिर से हासिल करें। इसी प्रकार यदि देखा जाये तो चीन ने भी तिब्बत सहित छोटे देशों पर कब्जा करने का काम किया है। इन सब कार्यों के लिए ये देश भले ही यह कहें कि उन्होंने छोटे देशों को सबक सिखाने का या उन्हें औकात में रखने के लिए ऐसा किया है तो निश्चित रूप से इन तर्कों में कोई दम नहीं है।
वैश्विक महाशक्तियां दुनिया के देशों को इस बात के लिए समझाती एवं उन पर दबाव बनाती रहती हैं कि वे हथियारों का जखीरा न खड़ा करें। यदि किसी के पास किसी प्रकार के खतरनाक अस्त्र हैं तो उन्हें निरस्त करने का कार्य करें किन्तु स्वयं अपने ऊपर यह नियम लागू नहीं करती हैं। यही महाशक्तियां पूरी दुनिया में सदैव इस प्रयास में लगी रहती हैं कि देश आपस में लड़ते रहें और महाशक्तियां हथियार बेचने का धंधा करती रहें। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि देखने में आता है कि महाशक्तियों का आचरण शोषण का अधिक रहता है। कमजोर देशों की प्राकृतिक संपदा पर आधिपत्य कैसे किया जाये, इस फिराक में महाशक्तियां हमेशा लगी रहती हैं। यदि निष्पक्षता से विश्लेषण किया जाये तो साफ तौर पर देखने में मिलता है कि प्राकृतिक संसाधनों की लालच में महाशक्तियों ने पूरे विश्व में विभाजन की मजबूत नींव डाल दी है।
दुनिया के देश महाशक्तियों के इर्द-गिर्द घूमते रहे और शांति कायम करने के नाम पर महाशक्तियां और भी मजबूत होती गईं। महाशक्तियां अपने घटक देशों को वहीं से कमाकर उन्हें उधार देकर उन्हें अपने अधीन करती गयीं किन्तु विकास की गति जैसे-जैसे रफ्तार पकड़ती गई और पारदर्शिता का वातावरण बनने लगा तो महाशक्तियों की असलियत घटक देशों के समक्ष आती गई और उनकी कथनी-करनी सबके सामने आ गई। अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कुछ महाशक्तियों ने विस्तारवाद का खेल खेलना जारी रखा, चाहे वह चीन हो या रूस या फिर अन्य कोई देश। चीन तो अभी भी विस्तारवादी मानसिकता के साथ ही आगे बढ़ रहा है।
भारत सहित विश्व में व्यापक परिस्थितियों एवं समस्याओं का विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में आता है कि अधिकांश समस्याएं व्यक्तिवाद, परिवारवाद, समूहवाद, जातिवाद, संप्रदायवाद, नस्लवाद, आतंकवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद, गोत्रवाद, कुल-खानदानवाद सहित तमाम वादों पर ही आधारित मिलेंगी। यह भी अपने आप में पूरी तरह सत्य है कि किसी भी वाद में यदि किसी भी प्रकार की कोई चूक होती है तो उस चूक की प्रतिक्रिया में सबक सिखाने का कार्य आरंभ हो जाता है जबकि यह सभी को पता है कि इससे किसी भी समस्या का समाधान होने वाला नहीं है। उदाहरण के तौर पर अभी हाल ही में पश्चिम बंगाल के वीरभूम में घटित घटना को लिया जा सकता है। एक पार्टी में वर्चस्व को लेकर एक नेता की हत्या कर दी गई तो सबक सिखाने के मकसद से उससे भी भीषण घटना को अंजाम दे दिया गया किन्तु इससे समस्या का समाधान रंच मात्र भी नहीं हुआ बल्कि समस्या और भी विकराल हो गई।
अभी हाल ही में भारत में पांच राज्यों के चुनाव हुए जिसमें भारतीय जनता पार्टी पर कुछ लोगों ने यह आरोप लगा दिया कि उसने धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण किया जिससे वह चुनावों में विजयी हुई किन्तु जिन लोगों ने यह आरोप लगाया उन्हें यह समझना चाहिए कि क्रिया की प्रतिक्रिया जरूर होती है। चाहे कोई करे या नहीं। मैं यह बात बिना किसी लाग-लपेट के कहना चाहती हूं कि हिन्दुस्तान की राजनीति में सेकुलर दलों ने धर्मनिरपेक्षता की आड़ में मुस्लिम तुष्टीकरण का जो खेल खेला है, उसकी आग में वे झुलस रहे हैं।
यह सब लिखने का मेरा आशय यही है कि सेकुलर दलों ने अतीत में जो कुछ किया है, आज उसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ रही है। हालांकि, भारतीय जनता पार्टी ने सेकुलर दलों को सबक सिखाने के मकसद से कुछ भी नहीं किया। भाजपा ने सिर्फ देशवासियों को तथाकथित ढोंगी किस्म की धर्मनिरपेक्षता के प्रति आगाह किया। देश की जनता जब वास्तविकता से रूबरू हुई तो सेकुलर दलों की जमीन खिसकने लगी। यहां भी मेरा यही कहना है कि भाजपा ने यदि किसी भी दल को सबक सिखाने के मकसद से कुछ किया होता तो वह भी आम जनता की पसंद नहीं बन पाती इसीलिए जनता को जनार्दन की संज्ञा दी गई है। किसी भी बात में जनता जब अपना निर्णय देती है तो बहुत सोच-समझ कर देती है।
भारत की राजनीति में ऐसे भी दल हैं जिन्होंने राजनीतिक लाभ के लिए जातिवाद को खूब हवा दी है किन्तु उन्हीं की देखा-देखी जब अन्य दलों ने भी वही काम करना शुरू किया तो जातिवाद करने वालों का खेल बिगड़ने लगा, क्योंकि ऐक्शन का रियेक्शन स्वाभाविक है किन्तु ऐसा कभी भी सबक सिखाने के मकसद से नहीं होना चाहिए। समस्या के समाधान का रास्ता वास्तविकता के आधार पर चुनना चाहिए। जातिवाद एवं तुष्टीकरण की ही तरह आजकल राजनीति में लोक-लुभावन घोषणाओं एवं मुफ्त में कुछ ले-देकर चुनावी वैतरणी पार करने का प्रचलन तेजी से बढ़ा है किन्तु ऐसा करने वाले दलों की तरह जैसे को तैसा की नीति पर चलते हुए अन्य दल या यूं कहें कि सभी दल करने लगेंगे तो क्या होगा? क्योंकि, कुछ दलों को लगता है कि यदि इस आधार पर चुनाव जीते जा सकते हैं तो वे भी पीछे क्यों रहें? वैसे भी भारत में एक पुरानी कहावत है कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है।
भगवान महावीर ने मानव जाति को ‘अहिंसा परमो धर्मः’ एवं ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धांत यूं ही नहीं दे दिया बल्कि ऐसा उन्होंने बहुत सोच-समझकर दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि हिंसा का जवाब किसी को सबक सिखाने के लिए हिंसा नहीं हो सकती है इसलिए ‘अहिंसा’ के रास्ते पर चलकर हिंसा का जवाब बेहतर तरीके से दिया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर आतंकवाद एवं नक्सलवाद पूरी तरह अभी तक वैश्विक स्तर पर इसलिए नहीं समाप्त किया जा सका है क्योंकि दोनों मामलों में सिर्फ सबक सिखाने का खेल हिंसा के माध्यम से चल रहा है जबकि इसका जवाब सिर्फ अहिंसा ही है यानी भगवान महावीर के सिद्धांतों पर ही चलकर पूरी दुनिया से आतंकवाद एवं नक्सलवाद जैसी समस्या का समाधान किया जा सकता है। इसी प्रकार ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत से भी मानव जाति को यही प्रेरणा लेनी चाहिए कि यदि किसी के जीवन में कोई भी बाधा न डाले तो सभी का जीवन बिना किसी दबाव एवं तकरार के चलता रहेगा मगर आज तमाम मामलों में देखने को मिल रहा है कि लोग अपने दुख से ज्यादा परेशान दूसरों के सुख से हैं यानी कि ईष्र्या का भाव तमाम लोगों को खाये जा रहा है और उनके जीवन में सुख-शांति का अभाव पैदा हो रहा है जबकि हमारे धर्म-शास्त्रों, वेदों-पुराणों में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि ईष्र्या से किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है।
ईष्र्या तो व्यक्ति को जिंदा ही जला देती है। किसी भी परिवार में यदि किसी की हत्या हो जाती है तो उसका बदला लेने का सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी चलता ही रहता है किन्तु अंत में समस्या का समाधान ‘अहिंसा’ के रास्ते पर चलकर ही होता है। यह बात महाशक्तियों को शिद्दत से समझने की आवश्यकता है कि यदि वे शांति की बात करती हैं तो लड़वाने के काम से परहेज करना चाहिए। अमेरिका एवं रूस सैन्य शक्ति की बदौलत पूरी दुनिया पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कब्जा करने की भले ही मंशा रखते हों किन्तु वैश्विक स्तर पर शांति तब तक स्थापित नहीं हो सकती जब तक ये देश अपने नजरिये में बदलाव नहीं लायेंगे यानी भगवान महावीर के ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत को अपना कर ही पूरी दुनिया में शांति स्थापित की जा सकती है और इसके साथ-साथ मानवता का नया अध्याय भी शुरू हो जायेगा।
कुल मिलाकर इस लेख के माध्यम से मेरा कहने का आशय यही है कि भारत सहित पूरी दुनिया में जितनी भी समस्याएं हैं, उनका समाधान ‘जैसे को तैसा’ या ‘सबक सिखाने’ की तर्ज पर नहीं किया जा सकता है। समस्याओं के समाधान के लिए मानवतावादी रुख अपनाकर आगे बढ़ना ही होगा। इस रास्ते पर बढ़े बिना देश-दुनिया में शांति स्थापित नहीं हो सकती है। देर-सबेर इस रास्ते पर आना ही होगा क्योंकि इसके अलावा कोई अन्य विकल्प भी नहीं है।
– सिम्मी जैन