अजय सिंह चौहान || आज की आधुनिकता को पश्चिम सभ्यता का पर्याय माना जाता है लेकिन हमारी परंपराएं इतनी वैज्ञानिक हैं कि आज विज्ञान भी देर से ही सही पर इस बात को स्वीकार करने लगा है। एक समय था जब हम पूर्ण रूप से आर्गेनिक खेती करते थे किन्तु पश्चिम ने इसमें दखल दी और कहा कि खेतों में थोड़ा-थोड़ा पेस्टीसाइड भी डालो। हमने थोड़ा-थोड़ा करके सारा ही पेस्टीसाइड अपना लिया। आज वही पश्चिम हमारी आॅर्गेनिक खेती को अपनाकर उसका लाभ ले रहा है जबकि हम आज भी उसी जहरीले पेस्टीसाइड को अपनाये हुए हैं। हम वही जहरीला अनाज खाते जा रहे हैं और पश्चिमी लोग हमारी परंपरागत तकनीक को अपनाकर उससे प्रसन्न हैं।
इसी प्रकार से पश्चिम ने कहा कि मोटे अनाज को त्याग दो और गेहूं, मैदा आदि का आटा खाओ। हमने फिर वही किया और अपने पारंपरिक भोजन के प्रकार को छोड़ कर पश्चिमी शैली के अनाज और खान-पान को अपना लिया जबकि आज वही पश्चिम मिलेट यानी मोटा अनाज खाने की बात करने लगा है जबकि हमारे बच्चे मोटे अनाज को ठीक से जानते भी नहीं हैं। इसी प्रकार से हम अपने स्वास्थ्य के लिए आयुर्वेद पर निर्भर थे और खुशहाल थे लेनिक पश्चिम ने इसमें भी दखल दी और कहा कि एलोपेथी को भी अपनाओ। आज वही पश्चिम आयुर्वेद को अपना चुका है और हमारी हर्बल का पूर्ण रूप से लाभ ले रहा है जबकि हमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार कर अपने परंपरागत आयुर्वेद को त्याग दिया और खतरनाक एलोपेथी को अपना लिया है।
अनादिकाल से हम प्रकृति की पूजा करते आ रहे हैं जिसमें हमने पेड़-पौधे, नदी, धरती यहां तक की पत्थरों की भी पूजा के माध्यम से साक्षात ईश्वर को प्रसन्न किया किंतु पश्चिम ने कहा कि ये सब मूर्खता और जाहिल होने की निशानी है। हमने वो भी मान लिया और आज वही पश्चिम क्लाइमेट चेंज की बात करते हुए हमारी प्रकृति की रक्षा के लिए हम पर ही दबाव बना रहा है। आश्चर्य है कि हम फिर भी उनके षड़यंत्रों को नहीं समझ पा रहे हैं।
एक समय था जब हमारे घरों के हर सदस्य योग और ध्यान-साधना किया करते थे। योग और ध्यान-साधना के माध्यम से हम शरीर के साथ मन और ज्ञान को भी कंट्रोल में रखते हुए सादगीभरा जीवन जीना जानते थे। पश्चिम को ये भी रास नहीं आया, इसलिए उन लोगों ने हमारी सरकारों के माध्यम से हम पर दबाव बनवाया और कहा कि मसल पाॅवर के लिए योग और ध्यान-साधना नहीं सिर्फ कसरत ही काफी है। आज भी हम उनकी बातों में आकर वही कर रहे हैं और ध्यान-साधना को नहीं अपना पा रहे हैं। जबसे हमने ध्यान-साधना को त्यागा है तब से हम मानसिक बीमारियों से ग्रस्त होते जा रहे हैं जबकि आज वही पश्चिम मानसिक बीमारियों से ग्रस्त हो योग और ध्यान करने लगा है और स्वयं को स्वस्थ महसूस करने लगा है।
एक समय था जब पश्चिमी सभ्यता पाषाण युग में जी रही थी किंतु उस समय भी हमारे यहां ऋषि यानी हमारे वैज्ञानिक उस स्तर पर पहुंच गए थे जहां वे इंद्रियों तक को समझ गए थे कि मानव शरीर और उसकी जरूरतें कुछ और नहीं बल्कि इन्ही इंद्रियों के बेकाबू और काबू करने का खेल मात्र है और कैसे इन पर काबू पाया जा सकता है? कैसे मन को एकाग्र किया जा सकता है? कैसे मन पर काबू पाया जा सकता है? आज भी अधिकतर विदेशी जब किसी आध्यात्मिक नगरी में जाकर साधु-संतों से मिलते हैं तो यही सवाल करते हैं कि इतने वर्षों से उन्होंने कैसे बिना काम-वासना के जीवन को खुशहाल तरीके से जिया है? कैसे वे इस पर काबू पाते हैं?
भले ही पश्चिम ने हमारे हर ग्रंथ का मजाक बनाया और उसको मात्र मेथालाजी कहा, लेकिन आज तो हम स्वयं भी उन्हीं की भांति अपने धार्मिक ग्रंथों को मेथालाजी ही कहने लगे हैं। मेथालाजी यानी मिथ, मिथ यानी मिथ्या, मिथ्या यानी झूठा अर्थात हम जिस धर्म को और जिन धर्म ग्रंथों को पढ़ते और मानते हैं? पूजते हैं उनको पश्चिम मेथालाजी अर्थात मिथ्या कहता है जबकि वे अपने ग्रंथ को कभी मेथालाजी नहीं मानते।
हमारे शास्त्र स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि राजा को कौन से काल और कौन से नक्षत्र दशा में शपथ लेना चाहिए। दिन में शपथ लेने वाला राजा अधिक समय तक खुशहाल तरीके से शासन चला सकता है जबकि सूर्यास्त के बाद शपथ लेने वाला आधुनिक नेता ये बातें जानता ही नहीं है कि शपथ लेने का सही समय क्या है। आश्चर्य तो इस बात का भी होता है कि उनके सलाहकार भी नहीं जानते।