बात उन दिनों की है जब मुस्लिम आक्रन्ताओं के प्रति देश में एक विशेष प्रकार की “घृणा” फ़ैल चुकी थी। जाहिर सी बात सी बात है कि यदि किसी व्यक्ति, या समुदाय विशेष से किसी को घृणा हो जाती है तो फिर वह हद से अधिक और जन्मजात होकर रह जाती है। लेकिन यदि कोई आप की या हमारी उसी घृणा का फायदा उठाकर उसे हमारे ही खिलाफ एक हथियार के रूप में इस्तमाल करे तो यह कितना खतरनाक हो सकता है, और हुआ भी ठीक उसी प्रकार से। यानी मुस्लिम आक्रन्ताओं के प्रति हिन्दुओं के मन में फैली उस “घृणा” को एक षड़यंत्र के तहत अंग्रेज़ों ने मोहनदास करमचंद गांधी के माध्यम से कुछ इस प्रकार से तड़का लगाकर कुप्रचारित किया कि वही “घृणा” धीरे-धीरे न सिर्फ एक “कुप्रथा” बन कर सामने आने लगी बल्कि हिन्दुओं को ही आपस में एक दूसरे का शत्रु बनाने लग गई।
दरअसल, हिन्दू समुदाय के अंदर फैली उसी “घृणा” को गाँधी जी के सहयोग से धीरे-धीरे “छुआछुत की कुप्रथा” बता कर इतना प्रचारित किया कि अब वो वास्तविक स्तर पर एक कुप्रथा बन कर आम हिन्दुओं की ज़िंदगी में उतर चुकी है। जबकि इतिहास के तमाम प्रमाण चीख-चीख कर कह रहे हैं कि गांधी के पहले तक भी छुआछुत जैसी कोई सामजिक समस्या हिन्दू समाज में नहीं देखी गई थी। लेकिन जैसे ही एक षड्यंत्र के तहत मोहनदास करमचंद गांधी के माध्यम से इसे लगातार प्रचारित किया गया, एकाएक हिन्दुओं के प्रति नफरत का यह बोझ “कुप्रथा” बनती गई।
हालाँकि, न तो छुआछुत जैसी कुप्रथा इतिहास में पहले कभी थी और न ही गांधी के समय थी। आज तक भी आम हिन्दू घरों या परिवारों में इसका चलन देखने को कहीं नहीं मिलती। लेकिन यह सच है कि हिन्दू समाज का जो परिवार या जो कोई व्यक्ति इस षड्यंत्र को समझ नहीं पाया वह इसके षड्यंत्र में फंसता चला गया, जैसे कि स्वयं मोहनदास करमचंद गांधी भी इसके षड्यंत्र में फंस गए और खुद भी इसका दुष्प्रचार करने लगे।
हालांकि संविधान ने छुआछुत को एक कुप्रथा के तौर पर मान्यता देकर देश की जनता को बांटने का कार्य किया है। इसे हम एक षड्यंत्र भी कह सकते हैं उन लोगों के द्वारा जो संविधान के निर्माता रहे हैं। लेकिन, यदि छुआछुत को एक कुप्रथा मान भी लिया जाय तब भी कोई भी देश के किसी भी कोने में रहने वाला एक आम हिन्दू परिवार इसे दिल से स्वीकार करने को राजी नहीं है।
यदि हम इसके प्राचीन इतिहास में जाएँ तो वहां भी इसके ऐसे कोई प्रमाण नहीं हैं, और ना ही किसी प्रकार की कोई विशेष जातियां हुआ थीं जो आज हमें देखने और बदनाम करने के लिये मिलती हैं। सभी जानते हैं कि जाती प्रथा को अंग्रेज़ों ने ही विकसित किया और उसका प्रचार किया और वो भी मोहनदास करमचंद गांधी को मोहरा बना कर।
प्रमाणिकता के आधार पर यदि हम भारत के पिछले हजारों वर्ष के इतिहास को पढ़ते हैं तो हमें पता चलता है कि सम्राट शांतनु ने एक मछूवारे की पुत्री सत्यवती से विवाह किया था। इस हिसाब से उस मछूवारे की पुत्री सत्यवती भी अछूत ही कहलाई, और तब से लेकर आजतक वही परंपरा होनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। क्योंकि सम्राट शांतनु ने ही नहीं बल्कि उनके राजपरिवार ने भी उस अछूत मछूवारे की पुत्री सत्यवती को स्वीकार कर उसे रानी मान लिया था।
आज जिसे छुआछुत की कुप्रथा कहा जाता है यदि उस समय होती तो एक सम्राट किसी मछूवारे की पुत्री से विवाह नहीं करता। क्योकि उस दौर में तो दोगले और सेक्युलर समाज का ऐसा किसी कोई दबाव भी नहीं हुआ करता था। और तो और मछूवारे की पुत्री सत्यवती और सम्राट शांतनु का बेटा ही भविष्य में भारतवर्ष का राजा बने इसलिए भीष्म ने विवाह न करने और आजीवन संतानहीन रहने की “भीष्म प्रतिज्ञा” ले डाली, जो की हम सभी जानते की।
यानी उसी एक साधारण मछूवारे की पुत्री सत्यवती का पुत्र बाद में भारतवर्ष का सम्राट बना। आज की भाषा में कहें तो उस “अछूत” मछूवारे की उसी पुत्री सत्यवती के बेटे बाद में क्षत्रिय बन गए, जिनके लिए भीष्म आजीवन अविवाहित रहे, क्या उनका शोषण होता होगा?
यदि हम प्राचीन इतिहास की इसी प्रकार की अन्य घटनाओं को देखें तो पत्ता चलता है कि महाभारत ग्रन्थ को लिखने वाले महर्षि वेद व्यास स्वयं भी एक मछूवारे थे, लेकिन वे भी एक महान तपस्वी, ज्ञानी और महर्षि बन कर गुरुकुल चलाते थे।
इसी प्रकार से विदुर, जिन्हें महा राजनीतिज्ञ और नीति शास्त्र का महा पंडित कहा जाता है वो भी एक दासी के पुत्र थे, यानी आज की भाषा में कहें तो एक अछूत महिला के पुत्र थे। लेकिन वे भी हस्तिनापुर के महामंत्री बने थे। यानी उस दौर में यदि छुआछूत होती तो क्या इतने महान और क्षत्रिय योद्धाओं के बिच भला ऐसा संभव था की एक अछूत दासी के पुत्र को हस्तिनापुर के महामंत्री के रूप में स्थान प्राप्त हो जाता?
महाभारत का ही एक अन्य उदहारण है कि क्षत्रिय वंश के महाबली और पांच पांडवों में से एक गदाधारी भीम ने हिडिम्बा नाम की एक वनवासी महिला से विवाह किया था। जबकि इस विवाह में उनकी माता और अन्य सभी भाइयों ने ख़ुशी-ख़ुशी अपनी सहमति और सहयोग दिया था।
यदि हम इससे पीछे के यानी अति प्राचीन इतिहास में जाएँ तो हमारे सामने उदहारण आता है कि क्षत्रिय वंश से आने वाले भगवान् श्रीराम के साथ एक वनवासी समाज के व्यक्ति निषादराज गुरुकुल में पढ़ते थे। निषादराज वही वनवासी थे जिन्हें आज हम लोग एक षड़यंत्र के तहत छोटी जाती, पिछड़ी जाति के तौर पर संविधानिक दर्जे के अनुरूप बुलाते हैं।
यदि हम आज के संविधान और प्राचीन वेदों और पुराणों के बिच की खाई को देखें तो पता चलता है कि हमारा वैदिक और पौराणिक काल एक दम आईने की भाँती साफ और स्पष्ट था। उस समय न तो कोई जातियों होती थीं और न ही कोई ऐसी कुप्रथाएं हुआ करती थीं। यानी न तो कोई किसी का शोषण करता था और न ही कोई किसी के साथ भेदभाव करता था। सबको अपनी योग्यता के अनुसार जीवन जीने और काम करने की स्वस्तंत्रता होती थी।
दरअसल, सच तो ये है कि उस वैदिक और पौराणिक दौर में जाति जैसी कोई कुप्रथा थी ही नहीं, बल्कि जिसे आज जाती प्रथा कहा जाता है वास्तम में वो “वर्ण व्यस्था” हुआ करती थी, और “वर्ण व्यवस्था” का अभिप्राया है कि काम के आधार पर व्यक्ति विशेष या फिर समुदाय या व्यक्तियों के दल का गठन किया जाता था। “वर्ण व्यवस्था” में व्यक्तिविशेष या फिर व्यक्तियों के दल को “वर्ण” के आधार पर यानी कार्यक्षमता और दक्षता के आधार पर एक वर्ण से दूसरे वर्ण में दाल दिया जाता था या बदल भी दिया जाता था।
इसी “वर्ण व्यवस्था” को यदि हम आज की आसान और तकनिकी रूप से प्रचलित इकोनॉमिक्स की भाषा में कहें तो यह “डिवीज़न ऑफ़ लेबर” (Division of labour) कहा जाता है। यही “डिवीज़न ऑफ़ लेबर” हिंदी में “वर्ण व्यस्था” कहलाता है। इसी “डिवीज़न ऑफ़ लेबर” यानी वर्णव्यस्था के तहत जब किसी भी बड़े कार्य को छोटे-छोटे तर्कसंगत टुकड़ों या दलों में बाँटककर उसके हर भाग को बिना किसी बाधा के करने के लिये अलग-अलग लोगों को निर्धारित किया जाता है तो इसे हिन्दी में “श्रम विभाजन” और अंग्रेजी में Division of labour या तकनीकि तौर पर हिंदी में “विशिष्टीकरण” और अंग्रेजी में specialization कहते हैं। श्रम का यही विभाजन बड़े कार्य को दक्षता पूर्वक करने में सहायक होता है।
इसे “डिवीज़न ऑफ़ लेबर”, वर्णव्यस्था या फिर “विशिष्टीकरण” कहा जाता है। लेकिन इसी को अंग्रेज़ों ने गांधी के साथ या गांधी के समय में षड्यंत्र के चलते हिन्दुओं से घृणा के परिणामस्वरुप जातिवाद बना कर पेश कर दिया। हैरानी की बात तो ये है की इसमें गांधी जी खुद भी उलझ कर रह गए। इसका कारण था कि गांधी जी खुद भी न तो भारतभूमि की जड़ों से जुड़े थे और न ही उन्हें हिन्दू समाज का कोई वास्तविक ज्ञान था। वे तो बस एक लकीर के फ़क़ीर थे। जो लकीर अँगरेज़ खींचते जाते थे गांधी जी उसपर चलते जाते थे। फिर वह लकीर किसी भी दिशा में क्यों न जा रही हो।
“श्रम विभाजन” को आज की आसान परिभाषा में कहें तो किसी फैक्टरी या दफ्तर में काम करने वाला कोई कारीगर जितना कुशल होता जाता है उसको उतना ही पदोन्नत कर उसका उत्साह और कुशलता के अनुसार उपयोग किया जाता है। ठीक यही व्यस्था व्यवस्था उस समय तक भी लेकिन अंग्रेज़ों ने उसे जातिवाद में बदल दिया और हिन्दुओं को आपस में ही लड़ा दिया।
जातिवाद के विषय में वैदिक और पौराणिक युग से निकल कर जैसे-जैसे हम मध्य और आधुनिक इतिहास की और कदम रखते हैं तो वहां भी हमारे सामने ऐसे कई उदहारण आते हैं जिनमें जाती प्रथा का कोई प्रमाण नहीं मिलता। जबकि अंग्रेजी के Division of labour (डिवीज़न ऑफ़ लेबर) या हिन्दी के “श्रम विभाजन” जैसे शब्दों का उदहारण अनेकों बार मिलता है।
सबसे ख़ास और सबसे सटीक उदहारण के तौर पर हमें मिलता है कि प्राचीन भारत के एक सबसे बड़े जनपद मगध पर जिस नन्द वंश का राज रहा वो आज के हिसाब से जाति से नाई थे। दरअसल, नन्द वंश की शुरुवात राजा महापद्मनंद से होती है जो कि “श्रम विभाजन” के आधार पर एक नाई थे। जबकि उस समय के “श्रम विभाजन” के हिसाब से ये उनकी जाती नहीं बल्कि ये उनका व्यवसाय मात्र था। नन्द वंश चाहता तो अपने व्यवसाय के तौर पर वो पंडित भी बन सकते थे या फिर कोई और। इसी प्रकार से वे बाद में अपनी योग्यता के आधार पर राजा बन गए। फिर आगे चलकर उनके बेटे भी राजा हुए, बाद में वे सभी क्षत्रिय ही कहलाये।
नन्द वंश के बाद मौर्य वंश का उदय हुआ और उसने पूरे देश पर राज किया। मौर्य वंश की शुरुआत चन्द्रगुप्त से हुई, जो कि एक मोर पालने वाले साधारण वनवासी परिवार से थे। योग्यता के आधार पर ही चाणक्य नामक एक ब्राह्मण ने पूरे देश का सम्राट बनाने में उस वनवासी चन्द्रगुप्त मौर्य की मदद की। अर्थात यादि उस समय भी छुआछूत या जातिप्रथा होती तो क्या वह ब्राह्मण किसी वनवासी या किसी आदिवासी को अखंड भारत का सम्राट घोषित करते?
भारत के इतिहास में सन 1100 ईस्वी से लेकर 1750 ईस्वी तक, अधिकतर समय, अधिकाँश स्थानों पर मुस्लिम आक्रमणकारियों का समय रहा और कुछ स्थानों पर उनका पूर्ण रूप से भी शासन रहा। अंत में एक बार फिर मराठों का उदय हुआ, बाजी राव पेशवा जो कि ब्राह्मण थे, उन्होंने एक गाय चराने वाले साधारण गायकवाड़ को गुजरात का राजा बनाया और एक चरवाहा जाति के होलकर को मालवा का राजा बनाया नियुक्त किया।
इसी प्रकार से आज हमारे सामने एक बहुत बड़ा उदहारण है अहिल्या बाई होलकर के रूप में, जो खुद बहुत बड़ी शिवभक्त थीं। अहिल्याबाई ने ढेरों ऐसे मंदिर और गुरुकुल बनवाये जो भारत भूमि के लिए उस समय भी अहम् थे और आज भी हैं। अहिल्या बाई ने कई पवित्र नदियों के घाट बनवाये जो आज भी मौजूद हैं।
मीरा बाई जो कि एक राजपूत थी, जबकि “श्रम विभाजन” के आधार पर उनके गुरु रविदास एक चर्मकार थे। यानी चमड़े का कार्य करते थे। जबकि गुरु रविदास के गुरु के तौर पर रामानंद “श्रम विभाजन” के आधार पर एक ब्राह्मण थे। यानी यहां हम ये बात कह सकते हैं कि ऐसे तमाम उदहारण हैं जो श्रम विभाजन, ज्ञान तथा शिक्षा-दीक्षा के आधार पर ही बंटवारा होता था। इसमें कहीं पर भी शोषण और छुआछुत जैसी कोई भी कुप्रथा वाली बात देखने को मिलती।
सही मायनों में तो शोषण और छुआछुत जैसी कुप्रथाों का षड्यंत्रकारी चलन तभी शुरू हुआ था जब भारत में 1857 की क्रांति की चिनगारी भड़की थी। हालाँकि मुग़लकाल में ही इसकी नीव पढ़ चुकी थी लेकिन उस समय तक यह “कुप्रथा” के स्तर पर नहीं थी, लेकिन अंग्रेज़ों ने कुछ विशेष गद्दार भारतियों को अपनी और मिला लिया और उन्हें लालच देकर हिन्दू परिवारों में व्याप्त असंतोष और निराशा जैसे कारणों को ढूंढ-ढूंढ कर अपना हथियार बना कर धीरे-धीरे इस्तमाल करना शुरू कर दिया।
अब अगर हम समस्या की मूल जड़ में जाएँ तो छुआछुत जैसी कुप्रथा का चलन सही मायनों में मुस्लिम आक्रांताओं के विरुद्ध शुरू हुआ था। लेकिन यह कुप्रथा नहीं बल्कि उन मुस्लिम आक्रांताओं के विरोध या बॉयकॉट का एक प्रकार हुआ करता था। मुस्लिम आक्रांताओं का यह विरोध उन हिन्दू परिवारों ने अपनाया था जो खासतौर पर वैष्णोव समाज या ब्राह्मण और पुजारी हुआ करते थे। और करीब करीब हर हिन्दू व्यक्ति और उसका परिवार मुस्लिम आक्रांताओं का विरोध इसलिए करता था क्योंकि वे लोग हिन्दू समाज, रीति-रिवाज, परम्पराओं और खान-पान आदि में एकदम विपरीत हुआ करते थे इसलिए हिन्दू समाज ने उनका न सिर्फ बहिस्कार किया बल्कि उनसे घृणा भी करते थे। लेकिन, अंग्रेज़ों ने उन्हीं मुस्लिमों के साथ मिलकर इस घृणा को एक कुप्रथा का रूप देकर न सिर्फ उसे हिन्दुओं के ही बीच में फैला दिया बल्कि थोप भी दिया और एक अपराध भी मान लिया।
हद तो तब हो गई जब बाद में मोहनदास करमचंद गांधी ने स्वयं भी बिना जाने इसे हिन्दुओं की ही कुप्रथा मान लिया और उसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। “घृणा” जो कभी एक मुस्लिम समुदाय के प्रति हुआ करती थी अंग्रेजों ने धीरे-धीरे उसे एक षड्यंत्र के तहत “कुप्रथा” का रूप दे दिया और आम हिन्दुओं के दिलो-दिमाग में भर दिया। जबकि इतिहास के तमाम प्रमाण चीख-चीख कर कह रहे हैं कि गांधी के पहले तक भी छुआछुत जैसी कोई कुप्रथा चलन में नहीं थी। लेकिन जैसे ही एक षड्यंत्र के तहत मोहनदास करमचंद गांधी के माध्यम से इसे प्रचारित किया गया, एकाएक यह एक कुप्रथा बनती गई।
– अजय सिंह चौहान