अजय सिंह चौहान || यहां इस फोटो में जो दिखाई दे रहा है उसके अनुसार ऐसा लगता है मानो कुछ सभ्य और पढ़े-लिखे लोगों ने इस बुजुर्ग व्यक्ति को बड़े ही विनर्मता के साथ बैठने के लिए आग्रह किया होगा तभी तो वह भी बैठा है। वर्ना तो एक भी ग्रामीण व्यक्ति की इतनी हिम्मत कहां होती है कि वह किसी भी बड़े शहर में जाकर वहां के किसी भी सरकारी दफ्तर या फिर किसी भी शहर की किसी भी गली, सड़क या चैराहे को अपना गांव-देहात समझ कर यूं ही आराम से बैठ जाये।
भारत में गांवों की संख्या भले ही अधिक है लेकिन, शहरों के अपने कानून, सभ्यता, संस्कृति और प्रोटोकाॅल होते हैं जो गांवों से एक दम विपरित होते हैं, और उनका पालन करना हर एक ग्रामीण व्यक्ति का संवैधानिक कर्तव्य होता है। किसी गांव या देहात के निवासियों के द्वारा उन कर्तव्यों का पालन न करना और उन्हें तोड़ना या उनके बारे में गलत कहना या उन पर ऊंगली उठाना या फिर उनके खिलाफ आवाज उठाना भी एक अपराध और पाप माना जाता है।
सवाल यह नहीं है कि यहां इस फोटो में दिख रहा व्यक्ति कौन से गांव से है और किन लोगों के पास किस काम से आया होगा, काम हुआ होगा या नहीं, या फिर उसको जो बैठने का सम्मान मिला है वह उसे कितना अच्छा लगा होगा। लेकिन, सवाल तो यह है कि यहां इस फोटो में दिख रहे इस बुजुर्ग ग्रामीण व्यक्ति के बैठने की कला को भले ही आसपास में बैठे कुछ लोग मजाक में ले रहे हैं, लेकिन, बैठने की यह कला एक प्राचीन काल की योग क्रिया है जो शायद इनमें से कोई भी व्यक्ति कम से कम पांच मिनट तक भी नहीं कर सकता।
अगर हम भारत के इतिहास में जायें और फिर देश के वर्तमान हालातों पर भी चर्चा करें तो सन 2011 जनगणना के अनुसार भारत में 766 जिले हैं और अब संभवतः उनकी संख्या और अधिक ही हो गई होगी, जिनके अंदर कुल 6,49,481 गांव बताये जा रहे हैं। ये सभी गांव मिलकर भारत की रीढ़ कहलाते हैं। ऐसे में यदि हमारी रीढ़ यानी हमारे गांव ही आलसी और कामचोर हो जायेंगे तो भला शहरी बाबूओं और नेताओं का पेट कौन भरेगा? यानी भारत में गांवों की संख्या अधिक है और शिक्षा का स्तर आज भी सबसे कम है। इसलिए हमारे देश के गांव न सिर्फ हमारे ही शहरों का पेट भर पा रहे हैं बल्कि भारत से बाहर भी कम से कम एक अरब से अधिक लोगों का पेट भर पा रहे हैं।
एक समय था जब मोहनदास गांधी को स्वयं से ज्ञान प्राप्त हुआ और उन्होंने उसे सबके सामने सुना दिया कि- ‘‘भारत की करीब 70 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या गांवों में निवास करती है इसलिए भारत गांवों का देश है’’। बस फिर क्या था। उनके इस ज्ञान को जानने के बाद उनके आस-पास के कुछ अत्यधिक पढ़े-लिखे लोगों और अन्य शहरी आबादी ने उन्हें ‘महात्मा’ मान लिया उनके अनुयायियों ने उस पर अमल करते हुए देश को दो भागों में बंट दिया। एक बना ‘शहरी भारत’ और दूसरा ‘ग्रामीण भारत’। तभी से गांवों को एक अलग ही देश के रूप में माना जाने लगा। भारत यदि एक होकर भी ‘‘कर्मयोगी’’ और ‘‘भोगी’’ के तौर पर दो भागों में बंटा तो भले ही सीमारेखा न खिंची कई, लेकिन, सभ्यता, संस्कृति और भाग्य तथा दुर्भाग्य आदि का तो बंटवारा हो ही गया था, जैसे कि भारत और पाकिस्तान के बीच मजहबवाद और सैक्युलरवाद के रूप में दो हिस्से हुए।
तब से लेकर आज तक भारत के गांवों की संस्कृति, सभ्यता, पहनावा, खान-पान, बातचीत, बैठना-उठना, भाषा और बोली सब कुछ दो हिस्सों में बंट गया। सभ्यता-संस्कृति को बचाने की जिम्मेदारी और शहरी आबादी के पेट को भरने का दायित्व गांवों के हिस्से में आ गया। जबकि आधुनिकता, प्रगति, उन्नति, डवलपमेंट, अच्छी सड़कें, अच्छे से अच्छा यातायात, अच्छे मकान, अच्छे दफ्तर, अधिक से अधिक बिजली की सप्लाई, अच्छी शिक्षा, अच्छे पहनावे, अच्छा खान-पान, शावर बाथ के लिए अधिक से अधिक पानी का उपयोग और न जाने क्या-क्या। यानी विलासिता के जितने भी माध्यम और तरीके हो सकते हैं वे सब के सब यहां जोड़े जा सकते हैं, क्योंकि वे सबके सब शहरी आबादी के हिस्से में आ गये। और ये सब जरूरी भी था।
एक और बात जो सबसे अधिक कही जाती है, वो ये कि उन दिनों गांवों की आबादी अधिक होने और उसका पढ़ा-लिखा न होने के कारण ‘महात्मा’ उन्हें ये सारी सुविधाएं मुहैया नहीं करा सकते थे जो की शहरों में होती हैं। क्योंकि यदि ऐसा होता तो वे भी पढ़ लेते और कानून जान लेते, विलासिता से यदि वे लगाव कर लेते तो भारत की रीढ़ आलसी और कमजोर हो जाती। इसलिए सबसे पहले शहरों को इसका लाभ दिया गया। क्योंकि यही सब विलासिता यदि गांवों को भी मिल जाती तो दुनिया का पेट कौन भरता? गमलों में तो सिर्फ कुछ फूल-पत्तियों को ही उगाया जा सकता है, उसके लिए भी माली अंगल को बुलाना पड़ता है।
और क्योंकि शहरों को इसलिए विकसित करना था, ताकि एक अलग ही किस्म का सभ्य समाज खड़ा किया जा सके जो कि उस समय भारत के भविष्य के लिए सबसे आवश्यक था। ताकि आज की तरह विश्व की महाशक्तियों की आंख में आंख डाल कर बात कर सके। और क्योंकि ग्रामीणों को इस विषय में कुछ भी नहीं मालूम होता है कि राजनीति कैसे करनी होती है, देश कैसे चलाना होता है, नीतियां कैसे बनानी होती है, कैसे नियम-कानून बनाते हैं और कैसे उनका पालन करवाया जाता है। इसलिए उन्हें शहरों से दूर ही रहने दिया गया।
हालांकि, ये भी सच है कि हमारे संविधान निर्माताओं और नीति निर्माताओं ने कहीं न कहीं उन ग्रामीणों को भी अपना माना था तभी तो उनको भी किसी न किसी बहाने से कभी-कभी परदेश में यानी शहरों में आने-जाने का अवसर दिया है। यानी उन ग्रामीणों की भूमि के मामले, न्याय व्यवस्था के मामले, बैंकों के चक्कर लगाने के लिए, सरकारी लोन, घर के जरूरी सामान आदि के लिए शहरों में ही व्यवस्था कर दी ताकि वे भी शहरों से जुड़े रहें और उन्हें ज्ञात रहे कि उनकी जड़ें मात्र गांव की चारदिवारियों तक ही नहीं बल्कि आस-पास के चमचमाते शहरों से भी जुड़ी हैं।
संविधान निर्माताओं और नीतियों के जानकारों ने योजनाओं को जमीन पर उतारा तो उन्होंने सबसे पहले इन ग्रामीणों के बारे में भी सोचा, ताकि किसी न किसी बहाने से किसान इसके लिए अपने गांवों से निकल कर शहरों के चक्कर काटने के लिए विवश किये जायेंगे और परेशानी झेलने के लिए मजबूर किये जायेंगे, कमाई से अधिक खर्च करेंगे और अपनी जेब ढीली करेंगे, छोटे से छोटे काम के लिए भी बाबूओं को रिश्वत देंगे तभी वे जान पायेंगे कि कोर्ट-कचहरी क्या होता है, शहरों में रहने वालों को भी कितनी तकलीफें उठानी होती हैं, कितने लोगों के बीच रहना होता है। किस प्रकार से शहरों में पढ़े-लिखे लोगों का गिरोह काम करता है, वगैरह-वगैरह के बारे में जब वे अपने गांवों के लोगों के साथ अपने अनुभवों को बांटेंगे और बात करेंगे तभी तो वे भी जान पायेंगे कि शहरों से अधिक अच्छे तो हमारे गांव ही हैं जहां आज भी एक दूसरे को जानते नाम से जानते हैं। वर्ना तो शहरों के लोग तो सिर्फ काम से ही एक दूसरे को जानते हैं।