महमूद गज़नवी ने मथुरा के विनाश और भव्य मन्दिरों का विशेष वर्णन किया है जिनको बनाने में, उसके अनुसार, दो सौ वर्ष लगे थे। स्पष्ट है कि उसने उन्हें चूर-चूर कर दिया था। अब “मिन-हज-अस्-सिराज़” हमें बतलाता है कि भिलसा यानी आज के विदिशा में भी एक ऐसा ही मन्दिर (Destruction of ancient Hindu temples) जिसके निर्माण में ३०० से अधिक वर्ष लगे थे।
मंदिरों के निर्माण-काल की अवधि को लोग भले ही अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन मान सकते हैं लेकिन उससे दो बातें तो स्पष्ट होती हैं, जिनमें से एक तो यह की मुस्लिम लुटेरे भवन निर्माण कला से इतने अनजान थे कि भारतीय भवनों को आँखें फाड़-फाड़कर ताज्जुब से देखते थे; और दूसरा ये की इतिहास के वर्तमान या आधुनिक शिक्षकों एवं साधारण जनता को यह बात हृदय से निकाल देनी चाहिए कि दक्षिण भारत के समान उत्तर भारत में भव्य और आलीशान मन्दिर (Destruction of ancient Hindu temples) और महल नहीं बनते थे।
विदिशा और मथुरा के भव्य एवम अलंकृत मन्दिरों की उपस्थिति के तथ्यों से प्रमाणित होता है कि उत्तर भारत में भी ऐश्वर्यशाली अनेकों प्रासाद थे। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अद्वितीय ताजमहल और आगरा तथा दिल्ली के गौरवशाली संगमरमर (स्फटिक) के भवन मुस्लिम आगमन से शताब्दियों पूर्व का निर्माण हैं। इसलिए पाठकों को इस सच्चाई से सचेत हो जाना चाहिए कि अकबर और हुमायूँ के मकबरों जैसे असंख्य मकबरे और मस्जिदें भी वास्तव में राजपूतों के महल और मन्दिर ही हैं।
भिलसा को नष्ट-भ्रष्ट करके और लूटकर अपनी अन्धी इस्लामी रोषाग्नि को तुष्टकर अल्तमश उज्जैन की ओर बढ़ा। वहाँ उसने भगवान् शिव के महाकाल मन्दिर का विनाश किया। इस स्थान पर “मिनहज-अस्-सिराज़” एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण विवरण देता है। वह कहता है कि उज्जैन में राजा विक्रमादित्य की एक भव्य मूर्ति थी, जिन्होंने अल्तमश के (१२३४ ई० के) उज्जैन-आक्रमण के १३१६ वर्ष पूर्व संसार पर राज किया था और इन्हीं राजा विक्रम ने हिन्दू सम्वत् चलाया था।
यह हमारा दुर्भाग्य है कि समय-समय पर ऐसे अनेकों प्रमाण मिलते रहते हैं फिर भी विलायती और विलायत पास एजेंडपरास भारतीय विद्वान् विक्रमादित्य के अस्तित्व को ही स्वीकार नहीं करते, या फिर उनको राजा शालिवाहन से मिला-जुला देते हैं जिन्होंने ७८ ई० में एक दूसरा सम्वत् चलाया था।
इस्लामी गुण्डागर्दी के जोश में बड़े धूम-धड़क्के के साथ अल्तमश उज्जैन के महाकाल मन्दिर का शिवलिंग उखाड़कर दिल्ली ले आया। साथ में कुछ ताम्र प्रतिमाएँ भी थीं। इन सभी का उसने क्या किया, यह अज्ञात है। मगर मध्यकालीन मुस्लिम लुटेरे और अत्याचारियों के काले कारनामों को देखकर यह अनुमान सहज में ही किया जा सकता है कि उसने उन्हें मस्जिदों में परिवर्तित हिन्दू मन्दिरों की सीढ़ियों में जड़वा दिया होगा ताकि उनपर अपने जूते पोंछकर मुसलमान लोग नमाज़ पढ़ने भीतर जायें।
अपने जन्मस्थान में प्रतिष्ठित भगवान् श्री कृष्ण की मूर्ति को औरंगजेब ने आगरा की केन्द्रीय मस्जिद की सीढ़ियों में जड़वा रक्खा है। यह मस्जिद भी एक प्राचीन राजपूत महल था। भगवान् कृष्ण के शिक्षा-निकेतन सन्दीपनी आश्रम एवं भक्त कवि भर्तृहरि के मठ आदि उज्जैन के धार्मिक स्थानों को भी मुसलमानों ने अपने हथौड़ों से चूर-चूर कर दिया।
वर्ष में कम-से-कम एक बार हिन्दू हत्या अभियान की आयोजना करना मुसलमानों का पुनीत धार्मिक कर्तव्य था ताकि वे अधिक-से-अधिक हिन्दुओं को हलालकर उनकी स्त्रियों को लूट सकें, मन्दिरों को पाक और साफ़ कर मस्जिद बना सकें, उनके बच्चों का अपहरण कर मुसलमानों की संख्या बढ़ा सकें तथा गाज़ी कहलाकर अधिक-से-अधिक सबाब लूट सकें। यह वार्षिक हिन्दू हत्या अभियान उनका रिवाज हो गया था, जिसका जन्मदाता डाकू सरदार महमूद गज़नवी था।
“भारत में मुस्लिम सुल्तान”, लेखक पी.एन. ओक (पेज 154-155)