आम तौर पर राजनीतिक दलों में कौन, किस पद पर है, इसी से उसके रुतबे, पार्टी में पहुंच और प्रभाव का मूल्यांकन एवं विश्लेषण किया जाता है। सामान्यतः पार्टी के अधिकांश कार्यकर्ता ऐसा नहीं मानते, क्योंकि उनको लगता है कि पार्टी में कुछ प्राप्त करना सेटिंग एवं संबंधों के अलावा कुछ भी नहीं है यानी ‘गुरु बलवान, तो चेला पहलवान’ वाली कहावत चरितार्थ होती रहती है। दिखावे के तौर पर यदि कोई ‘गुदड़ी का लाल’ किसी तरीके से थोड़ा कामयाब हो जाता है तो वर्तमान दौर में उसे हाशिये पर पहुंचने से देर नहीं लगती।
पार्टी के नेता भले ही यह कहें कि टीम में सर्वश्रेष्ठ लोगों का चयन किया गया है किंतु वास्तव में ऐसा हो नहीं पाता है क्योंकि टीम का चयन करते समय क्षेत्र, जाति, समाज, आदि का भी ध्यान रखना पड़ता है। ऐसे में यह कहना नितांत मुश्किल है कि टीम में जो लोग स्थान पाने में कामयाब हो जाते हैं, वे सर्वश्रेष्ठ लोग ही होते हैं। बहरहाल, जो भी हो, पार्टी में बड़ा पद पाने के लिए बहुत व्यापक स्तर पर लोग लाॅबिंग करते हैं, अपने आकाओं से पैरवी करवाते हैं और तरह-तरह से जितने प्रयास कर सकते हैं, करते हैं। इन्हीं परिस्थितियों में दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्री वीरेंद्र सचदेवा जी कार्यकर्ताओं को सलाह दे रहे हैं कि वे पद नहीं काम पर जोर दें यानी कार्यकर्ता ‘पद’ की बजाय काम मांगें। कहने के लिए तो यह बात बहुत अच्छी है किंतु इस पर यदि थोड़ा सा भी अमल हो जाये तो इसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी।
पार्टी में गुदड़ी के लाल जिस प्रकार निरंतर हाशिये पर जा रहे हैं, यह पार्टी के लिए निहायत ही चिंता की बात है, क्योंकि गुदड़ी के लालों की भी समाज में अपनी प्रतिष्ठा होती है। ऐसे लोग जब समाज में जाते हैं तो इन्हें देखकर तमाम लोग उत्साहित होते हैं और अन्य लोग पार्टी से जुड़ने के लिए लालायित एवं प्रेरित भी होते हैं। पार्टी में ऐसे एक-दो उदाहरणों से बात बनने वाली नहीं है, ऐसे लोगों की संख्या कम से कम तीस प्रतिशत होनी ही चाहिए। जबकि इनकी संख्या पहले 90 से 100 प्रतिशत हुआ करती थी। वर्तमान समय में आम जनमानस में एक धारणा बनी हुई है कि जो संसाधनों से परिपूर्ण नहीं हैं, वे राजनीति में आने के बारे में सोचें ही नहीं यानी ऐसी स्थिति में सिर्फ धन बली ही राजनीति में कब्जा करेंगे। अब तो संगठन में भी संसाधनों की चर्चा होने लगी है। संसाधनों का लाभ कुछ लोगों को मिल भी जा रहा है।
संगठन में कुछ लोग ऐसे भी मिल जायेंगे जो अपने संसाधनों की बदौलत महत्वपूर्ण पदों पर आ तो जाते हैं किंतु आने के बाद कोई भी बैठक एवं कार्यक्रम बिना चंदागिरी के संपन्न नहीं कर पाते हैं। संसाधनों से परिपूर्ण लोग भी यदि चंदागिरी से संगठन चलायेंगे तो ऐसी स्थिति में मौका उन्हें दिया जाना चाहिए जिनको संगठन चलाने में महारत हासिल हो। चंदागिरी से संगठन तो कोई भी चला सकता है।
पहले तो ऐसे बहुत से लोग होते थे जो समाज उत्थान के लिए अच्छे राजनीतिक कार्यकर्ताओं और संगठनों को बढ़ावा देते थे और निरंन्तर उनका समय-समय पर परीक्षण भी करते रहते थे परंतु अब तो राजनीति को व्यवसाय के रूप में जबसे माना जाने लगा है तब से पद-लोलुप कार्यकर्ताओं की भरमार हो गई है जबकि, इन पद-लोलुप कार्यकर्ताओं की जमीन पर न तो कोई पकड़ है और न ही जनाधार है। ऐसी स्थिति में संगठन को न सिर्फ नुकसान होता है अपितु राजनीति में शुचिता लाने के उद्देश्य को भी ग्रहण लगता है।
बहरहाल, जो भी हो किंतु दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा जी की बात पर कार्यकर्ताओं को अमल करना चाहिए। ‘पद’ की बजाय ‘काम’ की होड़ होनी चाहिए। तमाम कार्यकर्ता ऐसे होते हैं जो पूर्ण रूप से सीजनल यानी मौसमी होते हैं जो समय-समय पर अवतरित होते हैं और अपने आकाओं के आशीर्वाद से कामयाब भी हो जाते हैं। चूंकि, ये मौसमी होते हैं, कामयाबी मिलने के बाद अदृश्य भी हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में जो कार्यकर्ता ‘काम’ मांगने आयेंगे, उनके लिए काम तो सदैव उपलब्ध रहेगा ही। वैसे भी पार्टी के पास हमेशा कोई न कोई काम रहता ही है। जो कार्यकर्ता यह सोच ले कि उसे पद मांगना ही नहीं है, सिर्फ काम करना है तो ऐसे कार्यकर्ताओं को इगनोर करना बहुत मुश्किल हो जाता है। इगनोर करने पर इनका प्रभाव और भी बढ़ता जाता है। हालांकि, ऐसे कार्यकर्ताओं की चिन्ता करने वाले पदाधिकारी या संगठक लुप्त होते से नजर आ रहे हैं।
कुछ कार्यकर्ता ऐसे भी देखने को मिलते हैं, जो समय-समय पर आने वाले ‘फुटकर’ कार्यों से जुड़कर अपने को सदैव प्रासंगिक बनाये रखते हैं। वैसे भी, पद तो आते-जाते रहते हैं किंतु कार्यकर्ता का पद स्थायी है। कार्यकर्ता वरिष्ठ भी हो सकता है और कनिष्ठ भी, नया भी हो सकता है और पुराना भी किंतु रहेगा कार्यकर्ता ही। वर्तमान परिस्थितियों में आवश्यकता इस बात की है कि पार्टी में ‘पद’ नहीं ‘काम’ मांगने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाये। पार्टी में बहुत सीमित पद होते हैं, सभी कार्यकर्ताओं को पद से नवाज पाना पार्टी के लिए बहुत मुश्किल काम है।
भारतीय जनता पार्टी ही ऐसी राजनीतिक पार्टी है जहां कार्यकर्ताओं को देवतुल्य बोला जाता है और किस कार्यकर्ता का कब भाग्योदय हो जाये, उसके बारे में कुछ कहा भी नहीं जा सकता है किंतु जब कार्यकर्ता को यह लगने लगे कि महत्वपूर्ण मौकों पर संसाधनों से कमजोर कार्यकर्ता मात खा जाता है तो उसके मन में यह भाव पनपने लगता है कि संसाधनों के अभाव में उसका यहां कोई भविष्य तो है नहीं।
ऐसी स्थिति में कमजोर कार्यकर्ता उदासीन होकर बैठ जाता है जबकि संसाधनों से संपन्न अधिकांश कार्यकर्ता पार्टी में अनवरत सेवा करने के बजाय कुछ पाने की इच्छा लिये रहते हैं। उनकी इच्छाएं जब पूरी नहीं हो पाती हैं तो वे दूसरा दरवाजा खटखटाने में भी देर नहीं लगाते हैं किंतु संसाधन वाले कार्यकर्ताओं को जरूरत से अधिक महत्व देने की वजह से जो कार्यकर्ता घर बैठ जाते हैं, उन्हें पुनः खड़ा करने में बहुत दिक्कत होती है, क्योंकि उनकी इच्छाएं समाप्त या सीमित हो जाती हैं। वैसे भी, कोई कार्यकर्ता यदि ‘को नृप होय, हमें का हानि’ यानी कोई भी राजा बने हमें क्या फर्क पड़ता है- वाली स्थिति में आ जाये तो स्थिति और भी खराब होने लगती है।
इन सभी परिस्थतियों से उबरने के लिए सबसे अच्छा तरीका यही है कि ‘पद’ के बजाय ‘काम’ को महत्व दिया जाये और इसी भावना की होड़ भी हो, क्योंकि पद तो सबको भले ही न मिल पाये, किंतु काम तो सभी को मिल ही सकता है। काम के द्वारा कोई भी कार्यकर्ता अपनी काबिलियत को पार्टी के समक्ष साबित कर सकता है। इस संबंध में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि कार्यकर्ता जो भी करें, वह पार्टी सिस्टम के अंतर्गत ही करें यानी अपने को हस्तिनापुर के सिंहासन से बंाधे रखें। हां, इतना जरूर हो सकता है कि हस्तिनापुर से बंधने के बावजूद रक्षा सिर्फ हस्तिनापुर की करनी है, न कि दुर्योधन की।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि कार्यकर्ता अपनी मानसिकता को बदलें और ‘पद’ के बजाय ‘काम’ को महत्व दें, निश्चित रूप से उनकी सभी समस्याओं एवं शंकाओं का समाधान होकर ही रहेगा। दिल्ली प्रदेश भाजपा में इसकी शुरुआत हो चुकी है। देर-सवेर इसका परिणाम देखने को अवश्य मिलेगा।
– हिमानी जैन, मंत्री- भारतीय जनता पार्टी, दरियागंज मंडल, दिल्ली प्रदेश