अपने समाज में एक पुरानी कहावत प्रचलित है कि दुखी से दुखी व्यक्ति भी मरना नहीं चाहता और उसकी इच्छा यही रहती है कि उसे किसी तरह दुखों से छुटकारा मिल जाये और वह स्वस्थ होकर लंबा जीवन जिये। यह बात तो सभी को मालूम है कि जिसने जन्म लिया है, उसका अंत निश्चित है। बस, यही बात निश्चित नहीं है कि उसकी अंतिम यात्रा कब होगी? इस मामले में प्रकृतिसत्ता थोड़ी दयालु है, उसने प्रत्येक जीव-जन्तु की सांसें निर्धारित कर दी है। अब यह प्राणियों पर निर्भर करता है कि वह अपनी सांसों का उपयोग करता है या दुरुपयोग। उपयोग से मेरा आशय यह है कि जो अपनी सांसें जितना बचायेगा, उसका जीवन उतना ही बढ़ता जायेगा किंतु जो अपनी सांसों को जितनी जल्दी खर्च करेगा, उसका अंतिम समय उतना ही निकट आता जायेगा।
वैसे तो, हमारी सनातन संस्कृति में एक कहावत बहुत प्रचलित है कि ‘हानि-लाभ, यश-अपयश, जीवन-मरण’ सब विधि हाथ। कहने का आशय यह है कि उपरोक्त बातें मनुष्यों के हाथ में होने की बजाय विधाता के हाथ में हैं किंतु जीवन-मरण के संदर्भ में परमसत्ता ने प्राणियों के लिए थोड़ी गुंजाइश छोड़ रखी है। इतनी सी भी गुंजाइश या यूं कहें कि छूट प्राणियों के लिए कम नहीं है। यह बात तो अटल सत्य है कि सांसों की गणना निर्धारित है किंतु उसमें कितनी बचत की जा सकती है, बस उतना ही प्राणियों के हाथ में है।
चूंकि, सृष्टि में मानव सबसे समझदार प्राणी है, बाकी जीव-जन्तुओं से इस मामले में भले ही कोई उम्मीद न की जा सके किंतु मानव जाति से यह उम्मीद तो की जा सकती है कि प्रकृति सत्ता ने जो थोड़ी-बहुत लाभ की गुंजाइश प्रदान की है, निश्चित रूप से मानव उसका लाभ उठा सकता है। सही अर्थों में कहा जा सकता है कि यह एक खाता है, खाते में जमा पैसा जितना अधिक खर्च किया जायेगा उतना ही जल्दी समाप्त होगा और जितना धीमी गति से खर्च होगा, उतने ही अधिक दिन तक खाते में पड़ा रहेगा।
जब यह बात सर्वविदित है कि सृष्टि का कोई प्राणी, चाहे वह किसी भी रूप में हो, मरना नहीं चाहता और लंबा जीवन जीना चाहता है तो उसके लिए उसे प्रयास करना चाहिए। चूंकि, मानव को छोड़कर किसी अन्य प्राणी में उतनी बुद्धि-विवेक नहीं है तो इस तरह की उम्मीद सिर्फ मानव से ही की जा सकती है। इस संबंध में मानव की बात की जाये तो उसे यह अच्छी तरह पता है कि उसे एक न एक दिन जाना ही है। ऐसी स्थिति में मानव की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह धर्मानुकूल जीवन व्यतीत करते हुए प्रकृतिसत्ता में पूर्ण समर्पण एवं आस्था का भाव रखते हुए अपने कर्म फलों को अर्जित करे। हालांकि, यह भी परम सत्य है कि प्रकृतिसत्ता द्वारा रचित माया-माोह आदि परिवर्तनशील है और जिनमें कभी भी एकरूपता नहीं रहती।
अकसर यह देखा गया है कि बुद्धि-विवेक से रहित प्राणी भी किसी संकट या मृत्यु की आशंका को भांपकर अपनी राह बदल लेते हैं। उदाहरण के तौर पर चींटियों का दायें-बायें, इधर-उधर होना, दीमकों का एक दूसरे को संदेश देना, मच्छरों का उड़ना, जंगलों में जानवरों का किसी सशक्त जानवर को देखकर इधर-उधर भागना आदि से यह जाना-समझा जा सकता है कि जीवन बुद्धि-विवेक से रहित प्राणियों को भी कितना प्रिय है। वैसे तो किसी भी प्राणी के लिए जीवन-मृत्यु प्रकृतिसत्ता द्वारा रचित जीवन चक्र का एक हिस्सा है।
मानव जीवन का यदि विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में आता है कि मानव मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से एवं विज्ञान के माध्यम से मृत्यु को जानने और उस पर आधिपत्य स्थापित करने का प्रयास अनादि काल से ही अनवरत कर रहा है परंतु योग-ध्यान से आध्यात्मिक जगत में इस बात के अनेक उदाहरणों के साथ उस ज्ञान का भंडार छिपा हुआ है जिससे इस बात की पुष्टि हो जाती है कि प्रकृति सत्ता द्वारा निर्धारित जीवन काल को लंबा तो खींचा जा सकता है किंतु उसे अमरत्व नहीं प्रदान किया जा सकता। इस लेख में मैं इसी बात पर चर्चा करूंगी कि जीवन लंबा कैसे जिया जाये? सांसों की बचत कर जीवन को लंबा बनाने के लिए हमारे पूर्वजों, ऋषियों-मुनियों, महात्माओं एवं महापुरुषों ने अनेक उपाय बताये हैं।
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आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि हम सभी उस पर अमल करें, और अपने जीवन को लंबा बनायें। जीवन को लंबा बनाने के मामले में प्रकृति की तरफ से जो थोड़ी सी छूट मिली है, मानव जाति को उसका अवश्य लाभ उठाना चाहिए। उज्जयी प्राणायाम, कपाल-भाती, ॐ का ऊच्चारण, लंबी सांसों का खींचना-छोड़ना, अनुलोम-विलोम, सुदर्शन क्रिया, अर्हं ध्यान योग, सोहम् ध्यान, शंख बजाना, मौन क्रिया, सुर साधना आदि ऐसे उपाय हैं जिनकी मदद से जीवन को लंबा बनाया जा सकता है। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि मानव को किसी भी तरह सांसों पर पकड़ बनाना है। जो जीव-जंन्तु सांसों पर अपनी पकड़ नहीं बना पाते हैं उनका जल्दी अंत हो जाता है। उदाहरण के तौर पर कुत्ता बहुत तेज गति से सांस लेता है, इससे उसकी निर्धारित सांसें जल्दी ही समाप्त हो जाती हैं और जिसका परिणाम यह होता है कि उसकी उम्र बहुत कम होती है, इसके विपरीत कछुआ, जिसकी सांसों पर पकड़ मजबूत है।
सासों पर पकड़ मजबूत होने के कारण कछुआ अपनी सांसों को संचित कर लेता है, जिसका परिणाम यह होता है कि वह काफी लंबा जीवन जीता है। इसका यदि विश्लेषण किया जाये तो सारी बातें स्वतः स्पष्ट हो जाती हैं। एक सामान्य व्यक्ति प्रति मिनट 15 बार सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया करता है। इस तरह वह पूरे दिन में लगभग 21,600 बार सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया करता है। कुत्ता एक मिनट में लगभग 60 बार सांस लेता है वहीं दूसरी तरफ हाथी, सांप तथा कछुआ प्रत्येक मिनट 2 से तीन बार सांस लेते-छोड़ते हैं। जल्दी-जल्दी सांस लेने-छोड़ने के कारण कुत्ते की उम्र औसतन 10-12 वर्षों की होती है जबकि कछुआ, हाथी तथा सांप की आयु सीमा लगभग सौ वर्ष से अधिक ही होती है। इस प्रकार सांस लेने एवं छोड़ने का संबंध हमारी उम्र सीमा के साथ-साथ स्वास्थ्य के स्तर पर भी गहरा प्रभाव डालता है।
वैसे भी, सांस लेने और छोड़ने का हमारे मन-मस्तिष्क और भावों पर गहरा प्रभाव होता है। भय, क्रोध, तनाव तथा कुंठा की स्थिति में सांसों की गति तेज हो जाती है जबकि मन में नकारात्मक विचार एवं प्रवृत्तियां आती हैं तो सांस लेने व छोड़ने की गति तेज हो जाती है। लययुक्त, गहरी तथा धीमी श्वसन प्रक्रिया से मन को शांत, स्थिर तथा एकाग्र बनाया जा सकता है। सांसों पर यदि नियंत्रण की बात की जाये तो उदर श्वसन एक कारगर उपाय हो सकता है। सही मायनों में देखा जाये तो उदर श्वसन सही सांस लेने और छोड़ने की सीखने का पहला चरण है। उदर यानी पेट से सांस लेना सर्वदृष्टि से लाभदायक है। तनाव, अस्वास्थ्यकर आदतें, बैठने का गलत ढंग और तंग पोशाक के कारण हमारी पेट से सांस लेने की क्षमता कम हो जाती है जिससे हमें अनेक शारीरिक रोगों और तनाव का सामना करना पड़ता है। सभी रोगों, मानसिक तनाव, कुंठा, क्रोध तथा भय से मुक्ति का सरल उपाय उदर श्वसन ही है। इसके अतिरिक्त वक्षीय श्वसन एवं यौगिक श्वसन भी सांसों पर नियंत्रण के प्रमुख उपाय हैं।
अपने मन पर काबू पाने के लिए सबसे पहले उन व्यवहारों पर आत्म नियंत्रण करना जरूरी है जिन्हें आप बदलना चाहते हैं। सांसों पर नियंत्रण के वैसे तो बहुत सारे उपाय हैं, सभी का अलग-अलग विश्लेषण करना एक लेख में संभव नहीं है किंतु कुछ बातों का जिक्र करना बेहद जरूरी है। इन उपायों पर यदि गौर किया जाये तो एक अकेला शब्द ओ3म् (ॐ) 11 रोगों का नाश करता है। ॐ का उच्चारण शरीर को सर्व दृष्टि से लाभ प्रदान करता है। प्रातः उठकर पवित्र होकर यदि 5, 7, 11 या 21 बार अपने समयानुसार ॐ का ऊच्चारण किया जाये तो धीरे-धीरे थायरायड, घबराहट, तनाव, खून के प्रवाह, पाचन शक्ति, स्फूर्ति, थकान, नींद आदि के मामले में काफी लाभ मिला है और इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सांसों का संचय भी होता है।
ॐ के ऊच्चारण की तरह ही शंख बजाना भी सांसों के संचय एवं स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत लाभकारी है। सनातनी परिवारों और मंदिरों में सुबह-शाम शंख बजाने का प्रचलन है। कोई भी व्यक्ति यदि प्रति दिन शंख बजाता है तो उसे बहुत लाभ होता है। रोजाना शंख बजाने से गुदाशय की मांसपेशियां मजबूत बनती हैं। शंख बजाने से मूत्र मार्ग, मूत्राशय, पेट का निचला हिस्सा, ड्रायफ्राम, छाती और गर्दन की मांसपेशियां मजबूत होती हैं। इन अंगों के लिए शंख बजाना तो रामबाण के समान है। शंख बजाने के क्रम में सांसें जब लंबी होती हैं तो इससे सांसों की बचत भी होती है। शंख में सौ प्रतिशत कैल्सियम होता है। रात को शंख में पानी भरकर रखें और सुबह उसे अपनी त्वचा पर मालिश करें। इससे त्वचा संबंधी रोग दूर हो जाते हैं। शंख बजाने से चेहरे, श्वसन प्रणाली, श्रवण तंत्र तथा फेफड़ों की बहुत बढ़िया एक्सरसाइज होती है। जिन लोगों को सांस से संबंधित कोई समस्या हो तो उसे शंख नहीं बजाना चाहिए। हर रोज शंख बजाने वाले लोगों को गले और फेफड़ों के रोग नहीं होते। इस प्रकार देखा जाये तो शंख बजाने के अनेक लाभ हैं और इससे सांसों पर नियंत्रण भी पा सकते हैं। हड्डियों की मजबूती, गूंगेपन, आमातिसार, पाचन, भूख बढ़ाने, बल, वीर्यवर्धक, श्वसन, काश जीर्ण ज्वर, पेट दर्द आदि में भी शंख बजाने से बहुत लाभ होता है।
शंख बजाने की ही तरह यदि सांस रोककर रखने का अभ्यास करें तो इससे न सिर्फ जीवन लंबा होगा, अपितु स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। मेदांता फाउंडर तथा मैनेजिंग ट्रस्टी लंग केयर फाउंडेशन में चेस्ट सर्जरी इंस्टीट्यूट के अध्यक्ष डाॅ. अरविंद कुमार के अनुसार कोविड-19 के 90 प्रतिशत मरीजों ने फेफड़ों में तकलीफ का अनुभव किया था और आज भी वे उससे जूझ रहे हैं। उनके अनुसार यह फेफड़े का संक्रमण होता है जिसमें फेफड़े की छोटी-छोटी हवा की जगहें जिन्हें एल्वियोली कहा जाता है, संक्रमित हो जाती हैं। कम अनुपात में कोविड-19 के मरीजों को आक्सीजन के सहारे की जरूरत पड़ती है, जब सांस लेने में कठिनाई गंभीर रूप ले लेती है। सांस रोककर रखने का अभ्यास एक ऐसी तकनीक है जो मरीज को आक्सीजन आवश्यकता को कम कर सकती है और उन्हें अपनी स्थिति की निगरानी करने में मदद दे सकती है।
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सांसों के संचय एवं स्वास्थ्य को सदैव बरकरार रखने की दृष्टि से अनुलोम-विलोम प्राणायाम भी एक कारगर उपाय है। इसका उल्लेख योग गं्रथों, हठ योग प्रदीपिका, घेरंडा संहिता, तिरुमंदिरम् शिव संहिता, पुराणों और उपनिषदों में भी किया गया है। अनुलोम-विलोम, सांसों की शुद्धि के अलावा एक रूप नाड़ी शोधन भी है जिसका अर्थ है ‘नाड़ियों की शुद्धि’ और इसे आम तौर पर बैकल्पिक नासिका श्वास के रूप में भी जाना जाता है। आम तौर पर उन लोगों को वैकल्पिक नासिका श्वसन सिखाया जाना चाहिए जिन्होंने नियमित आधार पर काफी समय तक आसन का अभ्यास किया है। इसे योग के शुरुआती नौसिखियों को नहीं सिखाया जाना चाहिए। वैसे भी एक स्वस्थ व्यक्ति में सांस लगभग हर दो घंटे में नाक के छिद्रों के बीच बदलती रहती है, इसे नासिका चक्र कहा जाता है। चूंकि, अधिकांश लोग इष्टतम स्वास्थ्य में नहीं होते हैं इसलिए यह समयावधि व्यक्ति दर व्यक्ति में काफी भिन्न होती है और एक नासिका से दूसरी नासिका में जाने में जितना अधिक समय लगता है, यह जीवन शक्ति में कमी का संकेत है। अतः अनुलोम-विलोम की उचित जानकारी लेकर इसे अपने जीवन में अवश्य डालना चाहिए।
विपश्यना ध्यान भी सांसों पर नियंत्रण का एक प्रमुख माध्यम है। विपश्यना ध्यान से तनाव हट जाता है। नकारात्मक और व्यर्थ के विचार नहीं आते, मन में हमेशा शांति बनी रहती है, मन और मस्तिष्क के स्वस्थ होने से इसका असर पूरे शरीर पर पड़ता है। शरीर के सारे संताप मिट जाते हैं और काया निरोगी होने लगती है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि यदि इसे निरंतर किया जाये तो आत्म साक्षात्कार होने लगता है और सिद्धियां स्वतः ही सिद्ध हो जाती हैं। कुल मिलाकर यह सब लिखने एवं बताने का आशय यही है कि सांसों पर नियंत्रण तो जीवन पर नियंत्रण। यह भी अपने आप में सत्य है कि सांसों पर नियंत्रण के लिए हमें अलग से कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। हमारे ऋषि-मुनियों एवं पूर्वजों ने जो भी जानकारी हमें दी है, उस पर हमें सिर्फ अमल करना है। यदि हम उस पर अमल भी न कर सकें तो हमें अपने बारे में मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
अगर हम अतीत में जायें तो लोगों की औसत आयु सौ वर्ष मानी जाती थी और इन सौ वर्षों को चार भागों में बांटा गया था। अब यहां सोचने वाली बात यह है कि उम्र को चार भागों में सौ वर्ष को ही आधार बनाकर क्यों बांटा गया है? इससे यह साबित होता है कि उस समय कमोबेश सभी को यह मालूम होता था कि उनकी सांसे निर्धारित हैं, इसीलिए उन्हें प्राकृतिक नियमों एवं परंपराओं के मुताबिक ही जीवन व्यतीत करना होगा। अतः सभी लोग प्रकृति की शरण में जीवन व्यतीत करते थे और औसतन सौ वर्षों तक जीवित रहते थे। ऐसा आज की भाग-दौड़ वाली जिंदगी में हम लोग भी कर सकते हैं। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि जीवन जीने के तौर-तरीकों को जानने एवं समझने के लिए अपने अतीत में जाना होगा। इसके अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं है। आज नहीं तो कल सभी को इस रास्ते पर आना ही होगा, क्योंकि इस रास्ते पर आने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं है।
– सिम्मी जैन (दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद [ द.दि.न.नि. ] वार्ड सं. 55एस)