डॉ॰ स्वप्निल यादव || राबिया की कहानी में जिस असली आज़ादी की बात काही गई है उसको शायद भगत सिंह ने बचपन से ही समझ लिया था। रबिया स्वर्ग को जला देना चाहती थी और नरक की आग पर पानी डाल देना चाहती थी। राबिया चाहती थी कि ईश्वर की उपासना ईश्वर के लिए हो न कि स्वर्ग के लालच और नरक के दर की वजह से। भगत सिंह का भी यही मानना था। उन्हे न स्वर्ग की चाहत थी और न अगले जन्म की। उनका मानना था कि जिस दिन उनके मुह पर काला कपड़ा बांधकर नीचे से तख़्ता खींचा जाएगा वो उनका और उनकी आत्मा का आखिरी दिन होगा।
भगत सिंह कहते थे कि कानून का उद्देश्य स्वतन्त्रता को खत्म करना या रोकना नहीं, बल्कि उसे सुरक्षित करना और विस्त्रत करना है। कितना उपयुक्त समाजवाद का ख्वाब था “प्रत्येक से उसकी योग्यता के अनुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार”। महज़ 23 साल की उम्र में जिस भारत माँ के सपूत ने ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला दी उस भगत सिंह को याद किए बिना भारत की आजादी का इतिहास अधूरा ही रहेगा। बात महज फाँसी चढ़ने की होती तो कतार लंबी है लेकिन माँ के इस लाल ने तो अपनी फांसी की तारीख खुद तय की थी। यह ज़िद भी अजीब ही थी कि असेंबली में बम फेंकने वालों को अपनी गिरफ्तारी देनी होगी और उनमे एक मैं खुद हुंगा, क्यूंकि मुझे जज से बहस करनी है। भगत सिंह की क्रांति बम और पिस्तौल की क्रान्ति थी ही नहीं, उस क्रांति का बाल काल जरूर लाल खून से भरा हो सकता है लेकिन वो जवान हुई किताबों के बीच उसकी धार विचारों की सान पर तेज हुई।
आखिर कैसे खेलने कूदने की उम्र मे एक लड़का भगत सिंह बन गया यह जानना बहुत रोचक भी है और देश के लिए जरूरी भी। भगत सिंह महज़ रूमानी आदर्शवादी क्रांति के पोषक भर नहीं थे जब संगठन की ज़िम्मेदारी उन पर आई तो उनके पास केवल एक ही हथियार बचा जिससे वो विरोधियों का सामना कर सकते थे और वो हथियार था “अध्ययन करो” ! स्वयं को विरोधियों के तर्कों का सामना करने लायक बनाने के लिए अध्ययन करो! अपने मत के समर्थन में तर्कों से लैस होने के लिए अध्ययन करो। पकड़े जाने से लेकर फांसी तक वो 716 दिन जेल मे रहे और इस दिनों उनके पढ़ने की भूख को पूरा करना लाहौर की द्वारका दास लाइब्रेरी के लिए भी मुश्किल पड़ा और उन्होने लगभग 300 किताबें पढ़ भी डालीं। लगभग 170 किताबों की उनकी खुद की भी छोटी सी लाइब्रेरी थी।
उनका मानना था कि एक क्रांतिकारी सबसे अधिक तर्क पर विश्वास करता है। वह केवल तर्क और तर्क मे ही विश्वास करता है। किसी प्रकार का गाली–गलौच या निंदा, चाहे वह ऊंचे से ऊंचे स्तर से की गई हो उसे अपने निश्चित उद्देश्य से वंचित नहीं कर सकती। उन्होने चार्ल्स डेकन को पढ़ा, जोजेफ कोंरेड, सिंकलेर, विक्टर हुगो, हाल केन, रीड, रोपशीन, मैक्सम गोर्की, स्टेपनिक, ऑस्कर वाइल्ड, बकुनिन को भी उन्होने जमकर पढ़ा। मरते वक्त भी वो लेनिन को पढ़ रहे थे।
भाषा की बात करें तो उन्हे हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, संस्कृत, बंगाली और अँग्रेजी मे महारत हासिल थी। जितना पढ़ा तो लिखा भी खूब। किरती, प्रभात, प्रभा, अर्जुन, महारथी, चाँद जैसे अखवारों और पत्रिकाओ मे उन्होने खूब लिखा। उनका पहला लेख हिन्दी संदेश मे छपा। भगत सिंह का मानना था कि सत्य के लिए जीवन न्योछावर, स्वर्ग के लालच और नरक के भय के बिना किया जाय। उनका उद्देश्य उस क्रांति से था जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अंत कर देगी। वह गोरी बुराई को हटाकर काली बुराई को लाना नहीं चाहते थे। वो तो श्रमिकों के शासन के पक्षधर थे।
महात्मा गांधी के लेख ‘बम की पूजा’ के खिलाफ भगवती चरण वोहरा के लेख को भगत सिंह ने पूरा किया जिसका शीर्षक था ‘बम का दर्शन’। ‘मैं नास्तिक क्यूँ हूँ?’ लेख केवल एक अंधी मानसिकता का परिचायक नहीं है वो डार्विन की किताब ‘जीवन की उत्पत्ति’, बाकुनिन की किताब ‘ईश्वर और राज्य’, निरलंब स्वामी की ‘सहज ज्ञान’ जैसी किताबों से प्रेरित एक वैज्ञानिक तथ्य परक सोंच है, जो धर्म और मिथकीय विचारों को चुनौती देती है। जिसमे अगले जन्म और स्वर्ग की खुशियों का लालच नहीं है। आनुवंशिकता के सिद्धान्त से वो भली भांति परिचित हो चुके थे।
लाला रामसरन दास की पुस्तक ‘द ड्रीमलैंड’ की भूमिका मे भगत सिंह ने लिखी। पंजाबी कवि पाश ने लिखा है कि ‘जिस दिन उसे फांसी लगी उसकी कोठरी से लेनिन की किताब मिली थी जिसका एक पन्ना मुड़ा हुआ था। पंजाब की जवानी को उसके आखिरी दिन के मोड़े हुये पन्ने से आगे बढ़ाना होगा’। हाथ मे किताब के बिना भगत सिंह की हर तस्वीर और प्रतिमा अधूरी ही है। देश के युवाओं को खासतौर से जो किसी बदलाव की मशाल लेकर चल रहे हैं या राजनैतिक जीवन जी रहे हैं पहले उन्हे विश्व इतिहास और भारतीय इतिहास का गहन अध्ययन करना होगा तब वह एक पूरी लड़ाई के लिए तैयार हो पाएंगे अन्यथा वह इस तमाम विचार धाराओं मे उलझ के रह जाएंगे और उनका उपयोग बस भीड़ के लिए होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)