विश्व के किसी भी देश में बेरोजगारी की समस्या और नौकरियां पाने की चाहत हर व्यक्ति को रहती है। विशेषकर, जब उसने उच्च स्तर की शिक्षाएं प्राप्त की हों और जीवन का अधिकतर समय पढ़ने-लिखने में बिताया हो। पिछले दशकों में यह देखने में आया है कि बढ़ती जनसंख्या, आधुनिकीकरण और डीजिटलाइजेशन आदि के कारण विश्व में बेरोजगारी का स्तर दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा। चाहे वे देश विकसित हों या विकासशील हों। आखिर, इन सब का प्रमुख कारण विकसित देशों को भी पता है और इसी के चलते उन्होंने सामाजिक सुरक्षा के बहाने से बेरोजगारों को बेरोजगारी जैसे भत्तों से लिप्त किया हुआ है या उनको आदी बना दिया है। देखने में आता है कि जैसे-जैसे हम विकास की ओर अग्रसर होते हैं या हो रहे हैं तो बेरोजगारी का बढ़ना भी स्वभाविक है। इसे चाहे हम नीतियों की या योजनाओं की कमी मानें या हम अपने आप को आर्थिक शक्तियों के अधीन होता मानें, यह हर देश के लिए अपने-अपने आंकलन और शोध का विषय है।
आज जब विश्वभर में भारत एक युवा देश के रूप में उभर रहा है और अपनी पहचान बना चुका है। ऐसे में विकास की ओर अग्रसर होते भारत को अपनी नीतियों में, अपनी योजनाओं में इस बात का समावेश करना होगा कि अधिक से अधिक स्व रोजगार और नौकरियों के प्रति आकर्षण युवाओं और बेरोजगारों का कम हो और स्व-रोजगार की तरफ वे अग्रसर हों। आज के भारत को हम दोषारोपण नहीं कर सकते कि बेरोजगारी की दर दिन-प्रतिदिन विकराल रूप लेती जा रही है। इसके लिए नरेंद्र मोदी जी द्वारा शुरू की गई कौशल विकास योजना, विशेष क्षेत्रों में शिक्षा इत्यादि लेकर अपने आप को एक विशेषज्ञ की ओर स्थापित करता है।
वर्तमान दौर में भारत सहित पूरी दुनिया में नौकरी के लिए हाय-तौबा मची हुई है। नौकरी सरकारी हो या प्राइवेट किंतु आजीविका के लिए नौकरी ही प्राथमिकता में है। नौकरी ही प्राथमिकता में क्यों? इस विषय पर यदि बहस की जाये तो लंबी बहस हो सकती है किंतु मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि यदि किसी को नौकरी मिल जाये तो वह अपना भविष्य हमेशा के लिए सुरक्षित समझ लेता है। प्राइवेट नौकरी में भविष्य को लेकर थोड़ा संशय बना रहता है। इस दिशा में यदि सरकारी नौकरी मिल जाये तो व्यक्ति का समाज में सामाजिक स्तर बढ़ जाता है। यदि शादी नहीं हुई है तो अच्छी शादियों की लाइन लग जाती है और दहेज उसे बिना मांगे ही मिल जाता है। सरकारी नौकरी का वैसे तो क्रेज पूरे देश में है, किंतु उत्तर भारत में सरकारी नौकरी का क्रेज कुछ ज्यादा ही है। सरकारी नौकरी का क्रेज कुछ इसलिए भी ज्यादा है कि भविष्य तो सुरक्षित हो ही जाता है, साथ ही मेडिकल, फंड, बोनस, आवास सहित तमाम तरह की सुविधाएं भी प्राप्त होती हैं। सरकारी कर्मचारियों की पेंशन भले ही सीमित कर दी गई है किंतु जिन्हें पेंशन मिल रही है वे सरकारी नौकरी की महत्ता को स्थापित करते रहते हैं।
हालांकि, आज के दौर में प्राइवेट नौकरी का भी बहुत क्रेज है। प्राइवेट नौकरी में भी लोगों को अच्छे से अच्छा पैकेज मिल रहा है किंतु प्राइवेट नौकरी में काम का दबाव भी बहुत अधिक रहता है, जिम्मेदारी भी निर्धारित होती है और टारगेट भी पूरा करना पड़ता है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्राइवेट क्षेत्र की नौकरी पर संकट के बादल हमेशा मंडराते रहते हैं। वेतन जब बहुत अधिक हो जाता है तो तमाम कंपनियां ज्यादा वेतन देने से बचने के लिए बहाना ढूंढ़ती रहती हैं और कम वेतन वालों को प्राथमिकता देना शुरू कर देती हैं जबकि सरकारी नौकरी एक बार यदि लग गई तो वेतन चाहे जितना भी हो जाये, नौकरी जाने की कोई संभावना नहीं रहती है।
सरकारी नौकरी वालों से यदि कोई भारी गलती न हो तो अमूमन नौकरी सुरक्षित ही रहती है। सरकारी नौकरी में मूल वेतन से अधिक ऊपरी कमाई की उम्मीद तमाम लोग लगाये रहते हैं।
हालांकि, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि सरकारी नौकरी करने वाले सभी लोग रिश्वतखोरी में लिप्त रहते हैं किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि रिश्वत न लेने वालों की संख्या रिश्वत लेने वालों से कम होती है यानी रिश्वत न लेने वालों को अल्पसंख्यक के रूप में विभाजित किया जा सकता है। समाज में कुछ लोगों के बीच यह धारणा व्याप्त है कि सरकारी कर्मचारी काम न करने की तनख्वाह लेते हैं और काम करने का रिश्वत लेते हैं। हालांकि, हर किसी के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है किंतु समाज में जो अब धारणा, चुटकुले एवं कहानियां प्रचलित होती हैं, उनका भी विश्लेषण होते रहना जरूरी है क्योंकि आम लोगों में किसी व्यक्ति या समाज के प्रति कोई राय बनती है तो वह अकारण ही नहीं बनती है।
वर्तमान दौर में यदि देखा जाये तो सरकारी नौकरी वालों पर शिकंजा कसता जा रहा है और वहां भी टारगेट एवं जिम्मेदारी तय करने का प्रचलन बढ़ रहा है। सोशल मीडिया के दौर में दबाव सभी पर बढ़ता जा रहा है। बहरहाल, आज समस्या यह है कि नौकरियां आज सीमित होती जा रही हैं। प्राइवेट हों या सरकारी। अत्याधुनिक तकनीकों, अत्यधिक मशीनीकरण, एआई एवं अन्य कारणों से मानव श्रम का उपयोग कम होता जा रहा है। व्यापार एवं छोटे-मोटे धंधे करने के लिए पूंजी की आवश्यकता होती है। पूंजी के साथ-साथ जगह एवं तमाम तरह की कागजी कार्यवाही की औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती हैं। जो व्यक्ति मामूली सी नौकरी के लिए संघर्ष कर रहा हो वह इतनी औपचारिकताओं को नहीं पूरा कर पाता है। प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी जी अकसर कहा करते हैं कि हमारे देश के युवा नौकरी मांगने वालों की बजाय नौकरी देने वाले बनें।
वैसे तो, प्रधानमंत्री जी ने युवाओं को उद्यमी बनाने के लिए तमाम तरह की सुविधाएं दी हैं किंतु उसके बावजूद हर युवा के लिए इन औपचारिकताओं का पूरा कर पाना इतना आसान नहीं है, जबकि नौकरी एक आसान सा विकल्प है। नियुक्ति होने के बाद अगले महीने से वेतन मिलना प्रारंभ हो जाता है, जिससे युवाओं के सपनों को चार चांद लगना प्रारंभ हो जाता है। किंतु आज नहीं तो कल सरकारी नौकरी का मोह छोड़ना ही होगा। पूरे राष्ट्र एवं समाज को सरकारात्मक भाव से इस दिशा में बढ़ने क सही समय अब यही है।
चूंकि, आज का समय भौतिकतावाद का है। आज के समय में ऐसी राय देने वाले तमाम लोग मिल जाते हैं जिनका कहना होता है कि पहले अपनी आवश्यकताएं बढ़ा लीजिए, फिर उसके मुताबिक उसकी जुगाड़ में लग जाइये, जबकि अतीत में कहा जाता था कि पैर उतना ही फैलाइये, जितनी बड़ी चादर हो। ईएमआई के दौर में लोगों को सब कुछ बहुत आसान लगता है किंतु जब उसमें लोग उलझते जाते हैं तो उसमें से निकलने का रास्ता नहीं मिल पाता है। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं भारत सरकार के रक्षामंत्री श्री राजनाथ सिंह जी अकसर कहा करते हैं कि ऋण लेकर घी पीने की प्रवृत्ति किसी भी रूप में ठीक नहीं है।
अब सवाल यह उठता है कि जिस दौर में सरकारी नौकरियां होती ही नहीं थीं या सीमित संख्या में होती थीं, उस समय लोगों की आजीविका कैसे चलती थी? उसी समय भारत विश्व गुरु कैसे था? उसी दौर में भारत को सोने की चिड़िया क्यों कहा जाता था? वह दौर भारत का स्वर्णिम काल क्यों था? इस तरफ भी लोगों को थोड़ा जानने, समझने एवं सोचने की जरूरत है। आज एक सवाल यह उठता है कि सरकारी क्षेत्र में यदि भ्रष्टाचार पर पूर्ण रूप से अंकुश लगा दिया जाये तो क्या तब भी सरकारी नौकरियों के प्रति इसी प्रकार का क्रेज रहेगा?
भारत प्राचीन काल से 17वीं सदी तक विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्था था। रोजगार प्रचुर मात्रा में हर हाथ को उपलब्ध थे। इस दौरान मुख्य रूप से रोजगार कृषि, पशुधन और अन्य पेशागत तरीकों से मिलते थे। रोजगार के लिए सामाजिक संरचना थी, जिसके आधार पर वस्तुओं का उत्पादन होता था। यह कार्य संस्कृति स्थानीय संसाधनों से गतिशील होती थी। कृषि के साथ-साथ व्यापारिक संघ भी थे, जो देश के साथ विदेशों में भी उत्पादित माल निर्यात करने का रास्ता बताते थे। इन्हीं देशी उपायों के बूते भारत 18वीं शताब्दी तक वैश्विक उत्पादन में आगे रहा।
अतीत में हमारे भारतीय समाज में जितने भी रोजी-रोटी के कार्य थे, उनसे लोग अवगत हो सकें और पुनः उनसे जुड़ सकें, इन बातों को ध्यान में रखकर भारत सरकार ने तमाम तरह के कौशल विकास से संबंधित प्रशिक्षण कार्यक्रम भारत सरकार ने प्रारंभ करवाये हैं। आज उनका लाभ उठाकर तमाम युवा रोजगार प्राप्त कर रहे हैं। इस दौर में अपने लघु एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दे दिया जाये तो युवाओं को दर-दर की ठोकरें न खानी पड़ेंगी। आज वह समय आ गया है जब मल्टीनेशनल कंपनियों का महिमामंडन कम किया जाये। ‘वोकल फार लोकल’ के नारे को बुलंद किया जाये। अपना लोकल माल यदि थोड़ा महंगा मिले तो भी उसे ही प्रमोट किया जाये। कोरोना काल में जब कठिन वक्त आया तो गली-मोहल्ले एवं स्थानीय दुकानदार ही सहारा बने थे। उस समय बड़ी-बड़ी कंपनियां आर्डर पर माल पहुंचाने के लिए घर पर नहीं आती थीं। शायद, इसीलिए सदियों से भारतीय समाज में एक अवधारणा व्याप्त है कि अपना, अपना ही होता है। अपना यदि मारेगा भी तो छांव में भी वही रहेगा।
यह सब लिखने का मेरा आशय मात्र इतना ही है कि यदि हम अपने रोजगार के परंपरागत संसाधनों को आज भी अपना लें तो धीरे-धीरे नौकरी के पीछे भागने की प्रवृत्ति में कमी आ जायेगी। अतीत में ग्रामीण भारत में साप्ताहिक हाट-बाजार एवं मेले लगते थे। इन हाट-बाजारों एवं मेलों के प्रति लोगों के मन में बेहद उत्सुकता होती थी। लोग उसका इंतजार करते रहते थे। तमाम लोगों की आजीविका इन्हीं हाट-बाजारों एवं मेलों से ही अच्छी तरह चल जाती थी। राजधानी दिल्ली जैसे शहर में तो आज भी साप्ताहिक बाजार लगते हैं किंतु ग्रामीण भारत में हाट-बाजारों एवं मेलों को पुनः प्रोत्साहित किये जाने की आवश्यकता है। जो काम अपने हाथ में होता है, उसमें आजीविका ढूंढ़ने का भी तनाव नहीं रहता है। अपने काम में लोगों को लगता है कि हम जितना अधिक मेहनत करेंगे, उतना ही आगे बढ़ेंगे।
आज भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में नौकरी की भीषण समस्या है। वैसे, यदि देखा जाये तो नौकरी भी तो एक तरह की गुलामी ही है। तमाम लोग मल्टीनेशनल कंपनियों की नौकरियों के बारे में यहां तक कहते हैं कि मलटीनेशनल कंपनियों की नौकरियां सोने की हथकड़ियों के समान हैं। अपना काम करने में यह हो सकता है कि चाहत के मुताबिक पैसों की व्यवस्था न हो तो कम पैसों में भी जीवन चलाया जा सकता है। रोजगार के संदर्भ में एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि देशी जीवनशैली की तरफ अग्रसर हुआ जाये तो निश्चित रूप से रोजगार के दरवाजे खुलेंगे।
आज के भारत की यदि बात की जाये तो अधिकांश आबादी युवाओं की है मगर युवाओं की संख्या के मुकाबले नौकरियां नहीं हैं। वैसे भी, भारत 15 से 29 आयु वर्ग के जितने भी युवा हैं, उनमें से 30-38 प्रतिशत युवाओं के पास रोजगार नहीं है। बेरोजगारी के इस बोझ से छुटकारा पाने के लिए युवाओं की मानसिकता और व्यापारिक वातावरण विकसित करने की जरूरत है। यदि यह उद्यमिता विकसित होती तो युवा सरकारी दफ्तरों और निजी कंपनियों के द्वार पर खड़े दिखाई नहीं देते। मार्केट में यदि रोबोट तमाम तरह के काम करने लगे हैं तो लोगों को काम काम मिलना तो हर हाल में कम होगा ही।
आज भारत में तमाम लोग ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ की तर्ज पर ‘एक घर-एक नौकरी’ की योजना पर आगे बढ़ने की बात तो कर रहे हैं किंतु इससे भी समस्या का समाधान होने वाला नहीं है क्योंकि अब संयुक्त परिवार की संरचना टूट जाने के कारण परिवार के जिस व्यक्ति को नौकरी मिलेगी, लाभ सिर्फ उसको ही मिलेगा, परिवार के अन्य सदस्यों को उसका लाभ नहीं मिल पायेगा। ऐसी स्थिति में एक घर में एक व्यक्ति को यदि नौकरी मिल भी गई तो उससे पूरे परिवार का कल्याण होने वाला नहीं है।
वर्तमान भारत में बेरोजगारी की समस्या के साथ-साथ एक बड़ी समस्या यह है कि अमीर और अधिक अमीर होते जा रहे हैं तो गरीब और अधिक गरीब। एक आंकड़े के मुताबिक भारत के इक्कीस सबसे ज्यादा अरबपतियों के पास देश के सत्तर करोड़ लोगों से ज्यादा की संपत्ति है। आधी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का केवल तीन फीसद है। भारत में अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। देश में वर्ष 2020 में 102 अरबपति थे, 2022 में 166 और 2023 में यह आंकड़ा 200 के करीब पहुंच गया। इस तरह आर्थिक असमानता से गरीबी, बेरोजगारी और भुखमरी बढ़ती है और शिक्षा का विकास रुक जाता है।
इस संबंध में मेरा बार-बार यही कहना है कि यह सब भविष्य में भी यूं ही चलता रहेगा किंतु सबकी रोजी-रोटी चलती रहे, इसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि हम जहां से चले थे, वहीं पुनः यथासंभव लौटने की कोशिश करें। वैसे भी भारत में रोजगार के सबसे ज्यादा अवसर लघु, सूक्ष्म और मध्यम दर्जे के उद्योग सृजित करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक लघु एवं मध्यम उद्योग कुल चालीस फीसद रोजगार उपलब्ध कराते हैं। इन क्षेत्रों को भी सरकारी नीतियों से अपेक्षा के अनुरूप बढ़ावा नहीं मिल पा रहा है। भारत में सबसे अधिक साठ फीसद श्रम शक्ति ग्रामीण क्षेत्रों में है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत का बाजार असंगठित और सस्ते श्रम पर आधारित है। यहां पर 92 फीसद लोग असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे हैं। वर्तमान समय में भारत में रोजगार की दर 40 फीसद है यानी यहां पर सौ लोगों से सिर्फ चालीस लोगों के लिए काम उपलब्ध है, बाकी साठ लोगों के पास कोई काम नहीं है।
इस संबंध में बिना किसी लाग-लपेट के यह कहा जा सकता है कि बेरोजगारी की समस्या जब पूरी दुनिया में है तो भारत सिर्फ अपने उन्हीं परंपरागत संसाधनों के बल पर आगे बढ़ सकता है, जिनसे अतीत में भारतीय सर्वदृष्टि से सुखी, संपन्न एवं खुशहाल हुआ करते थे। दुनिया के साथ कंधों से कंधा मिलाकर चलने के फायदे हैं तो उसके नुकसान भी कम नहीं हैं। फायदे वाले मामलों में तो हम दुनिया के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अवश्य चलें किंतु जहां नुकसान की बात आये तो वहां हम परंपरागत रोजगार के संसाधनों को पकड़ने एवं उन्हें प्रोत्साहित करने से जरा भी न चूकें, क्योंकि वही हमारा भविष्य है। इस दिशा में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शुरुआत की है कि ‘एक जिला-एक उत्पाद’ योजना को अमल में लाने का काम किया है। यह योजना भविष्य में जितना आगे बढ़ेगी, उससे लोगों को लाभ मिलेगा। वैसे भी जब तक अपने परंपरागत संसाधनों पर भरोसा करके आगे नहीं बढेंगे, तब तक रोजगार की समस्या का समाधान नहीं कर सकते हैं। अतः इसी दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
– सिम्मी जैन – दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।