अजय सिंह चौहान || हमारे देश के लोक साहित्य और साहित्य में गोधूली बेला नाम से एक बहुत ही प्रचलित शब्द है जो बार-बार सुनने या पढ़ने में आता है। वर्तमान में परिस्थितियों में भले ही गाोधूली बेला को हमने हमारी प्राचिन लोक संस्कृति का मात्र एक शब्द मान लिया है। लेकिन, प्राचिनकाल में तो यह हर किसी के लिए बहुप्रचलित और बहुत ही महत्वपूर्ण शब्द हुआ करता था।
दरअसल, प्राचिन समय में जब गोधूली शब्द चलन में आया होगा या फिर जब यह शब्द गढ़ा गया होगा उस समय हमारे देश में सबसे अधिक पालतु पशुओं की संख्या में गाय ही एक मात्र ऐसा पशु था जिसे सबसे अधिक पाला जाता था और पूजा भी जाता था।
हर गांव में गायों की संख्या हजारों में होती थी और लगभग हर घर में गाय पाली जाती थी। यानी प्राचिन भारत के काल में किसी न किसी रूप में हमारे देश की अर्थव्यवस्था, व्यवस्था या संस्कृति गाय के आसपास ही घुमती थी। इसीलिए संभवतः यह शब्द भी जब चलन में आया होगा तो गाय को ध्यान में रखकर ही इसका प्रचलन हुआ होगा।
अब सवाल उठता है कि अखिर गोधूली बेला शब्द आया कहां से और कैसे इसकी उत्पत्ति हुई? इस विषय पर विभिन्न प्रकार के साहित्य, लोक साहित्य और लोकोक्तियों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार यह माना जाता है कि प्राचिन समय में या आज भी जब खास कर हमारे गांवों में या घरों में पाली जाने वाली गायें दिनभर खेतों, खलिहानों या वनों में विचरण करने के बाद जब वापस अपने बसेरे की ओर आते हैं वह काल गोधूलि कहलाती है।
और इसीलिए गोधूली यानी गायों के झूंड के चलने पर उड़ने वाली धूल या धूल के कणों के रूप में उठने वाले गुब्बारे को एक नाम दिया गया गोधूली, यानी गायों के द्वारा उड़ाई जाने वाली धूल। जबकि संस्कृत के वेला शब्द से ही हिन्दी का बेला शब्द चलन में आया जिसका अर्थ है बेला यानी समय, घड़ी या वक्त। और इसी तरह गाय और अन्य पशु चरकर वापस अपने बसेरे की ओर आते हैं उस काल या समय को गोधूली बेला का नाम दिया गया। यानी प्रतिदिन हर गांव या कस्बे में गायों के द्वारा जिस समय धूल का यह गुबार उठता था उसे गोधूली बेला कहा जाने लगा।
यदि एक निश्चित समय के अनुसार गोधूली बेला का आंकलन किया जाय तो इसमें माना जाता है कि सूर्य ढलने के ठीक 24 मिनट पहले और सूर्य ढलने के 24 बाद तक का समय गोधूली बेला माना जाता है। यानी कुल 48 मिनट के उस समय को गोधूली बेला माना जाता है जिसमें आधा समय सूर्य अस्त से पहले और आधा समय सूर्य अस्त के बाद का आता है। इसी विशेष समय को खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में गोधूली बेला के नाम से जाना जाता है। जबकि कुछ अन्य क्षेत्रों में इसको सांझ की घड़ी या संध्या की घड़ी भी कहा जाता है।
अब यहां सवाल यह उठता है कि गाय या अन्य पशुओं का झूण्ड तो सुबह-सुबह भी एक साथ ही जंगल की ओर निकलता है तो फिर इस समय को गोधूली बेला क्यों नहीं कहा गया? गायों के घर लौटने के शाम के वक्त को ही गोधूली वेला या गोधूली कहने के पीछे क्या तर्क भला क्या है?
तो, इसके लिए तो सबसे पहले हम आपको बता दें कि यह शब्द भारत की प्राचिन संस्कृति से जुड़ा हुआ एक वैदिक शब्द है। और हमारे वेद पूरी तरह से विज्ञान पर आधारित हैं। यानी गोधूली बेला मात्र एक शब्द ही नहीं है बल्कि इसका एक वैज्ञानिक आधार है।
यानी गोधूली बेला का एक साधारण सा तर्क यह है कि प्राचिन काल से ही या आज भी जब गायों को सुबह-सुबह चरने के लिए जंगल की ओर छोड़ा जाता रहा है उस समय धरती पर या मिट्टी पर रात की नमी का असर होता है और उस नमी के कारण मिट्टी या धूल के कण भारी होने के कारण हवा में उठ नहीं पाते, यानी रात की उस नमी के कारण हवा में धूल का गुब्बार या धूल के कण उठ नहीं पाते या उड़ नहीं पाते हैं। जबकि दिनभर की गरमी के बाद जमीन की ऊपरी सतह की नमी समाप्त हो जाती है और ऐसे में गायों के एक साथ चलने की वजह से वही धूल हवा में उड़ने लगती है।
आज भी हमारे देश के अनेकों गावों में शाम के समय गायों के घर लौटने पर ऐसे दृश्य देखने को मिल ही जाते हैं। और इसी प्रक्रिया को या इसी विशेष समय के लिए हमारे गांवों में गोधूली बेला जैसे शब्दों की उत्पत्ति हुई होगी।
इसी गोधूली बेला यानी गोधूली के समय को हमारे शास्त्रों में अत्यधिक शुभ माना गया है और कहा गया है कि इस मुहूर्त में किए गए कुछ कार्य अत्यंत ही शुभ और फलदायी होते हैं। इसका एक सबसे अच्छा और सटीक उदाहरण अगर देखा जाय तो आज भी विशेष रूप से हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाली वैवाहिक रस्मों को इसी समय में यानी संध्या काल में ही संपन्न किया जाता है।
जहां एक ओर यह माना जाता है कि किसी भी शुभ कार्य के लिए शाम का समय उत्तम नहीं होता वहीं गोधुलीबेला को भला शुभ क्यों माना जाता है और इस समय में शादी करना शुभ क्यों माना गया है और किस उद्देश्य से इस समय में विवाह किए जाते हैं? इस विषय पर सनातन धर्म के ज्ञाताओं का कहना है कि अगर किसी विवाह मुहूर्त में क्रूर ग्रह, युति वेद, मृत्यु बाण आदि दोषों की शुद्धि होने पर भी विवाह का शुद्ध लग्न और समय नहीं निकल पा रहा हो तो गोधूलि बेला में विवाह करवा देना चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि लग्न से संबंधित सभी प्रकार के दोषों को खत्म करने की शक्ति गोधूलि बेला में है।
भले ही आजकल की शहरी आबादी वाले लोगों और बच्चों के बीच गोधूली बेला एक अनजाना शब्द है और इसका कोई अर्थ भी नहीं रह गया है और गायों के द्वारा उड़ाई जाने वाली धूल के गुबार से शहरी लोगों का कोई लेना-देना ना हो या ऐसी धूल और मिट्टी से एलर्जी होती है या गंवारों वाली संस्कृति लगती हो, लेकिन प्राचिन समय में तो यह प्रतिदिन का उत्सव और शुद्धता का प्रतिक मानी जाती थी।