![AURANGABAD_Maharashtra](https://i0.wp.com/dharmwani.com/wp-content/uploads/2021/04/AURANGABAD_Maharashtra-4.jpg?fit=640%2C355&ssl=1)
अजय सिंह चौहान | भारत के मध्य-पश्चिम महाराष्ट्र राज्य में कौम नदी के तट पर स्थित औरंगाबाद ने, आधुनिक भारत के भ्रष्ट इतिहास और वर्तमान की तमाम परिस्थितियों और राजनीतिक उठापटक में न सिर्फ एक एहम भूमिका अदा की है बल्कि अति प्राचीनकाल के भारतवर्ष से लेकर आज तक के कालखण्ड में अलग-अलग प्रकार की सत्ताओं को बनते और बिगड़ते भी देखा है।
आज भले ही औरंगाबाद के नाम को बदल कर संभाजी नगर करने की मांग बार-बार उठती रहती है। लेकिन, ये कोई पहली बार नहीं है जब इसके नाम को लेकर बहस हो रही हो। जहां एक तरफ ‘‘लव औरंगाबाद’’ तो दूसरी तरफ ‘‘लव संभाजी नगर’’ जैसे नारे और पोस्टर्स देखे जाते हैं वहीं इसके इतिहास के बारे में पढ़ कर पता चलता है कि इसका जो असली नाम रहा है वह इन दोनों ही नामों के बीच कहीं गुम हो चुका है।
दरअसल सन 1988 में बालाजी साहेब ठाकरे ने औरंगाबाद को ‘‘संभाजी नगर’’ के नाम पर बदलने का ऐलान किया था।
राजनीतिक महत्वाकांक्षा –
भाजपा खुद भी चाहती है कि औरंगजेब एक तानाशाह शासक था इसलिए उसके नाम पर इसको अब और ज्यादा सहन नहीं किया जा सकता। उधर कांग्रेस भी ये बात मानती है कि अगर औरंगाबाद का नाम बदलना ही है तो फिर इसको संभाजी नगर की बजाय इसका वही प्राचीनतम नाम ‘खडकी’ क्यों नहीं दिया जा रहा है।
भले ही तमाम इतिहासकार एक स्वर में ये कहें कि, औरंगाबाद की स्थापना 1610 ई. में मलिक अम्बर ने की थी। लेकिन, सच तो ये है कि आज भी संपूर्ण भारत के इतिहास में कोई एक भी गांव ऐसा नहीं होगा जिसकी स्थापना या नींव किसी मुगलवंशज ने रखी होगी, तो फिर उस समृद्धशाली ‘खडकी’ कस्बे की, यानी आज के औरंगाबाद की स्थापना का श्रेय कोई कैसे ले सकता है?
प्राचीन इतिहास –
जहां एक ओर औरंगाबाद से जुड़े इसके संपूर्ण क्षेत्र ने वैदिक युग के उस प्राचीनतम इतिहास को अपने भीतर समेट कर रखा है वहीं, उससे भी पहले यानी आदि-अनादिकाल में यह भूमि ब्रह्मा जी की तपोस्थली, यानी प्रतिष्ठान के रूप में भी अपने आप को गौरन्वित कर चुकी है। यह वही प्राचीन प्रतिष्ठान है जो आज पैठण के नाम से प्रसिद्ध है। जबकि दूसरी ओर अनादिकाल से भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक घृष्णेश्वर के कारण आज भी आस्था और धर्म के साथ वही गहरा रिश्ता जुड़ा हुआ है।
भले ही इसके मौर्यकाल के उस स्वर्णिम इतिहास को भ्रष्ट इतिहासकारों ने हमसे छीन लिया हो, लेकिन, फिर भी सातवाहन राजाओं की सत्ता के साक्ष्य और किस्सों का औरंगाबाद नगर साक्षी है। क्योंकि उन्हीं सातवाहन राजाओं ने पैठण शहर को अपनी राजधानी के रूप में विकसित किया था और औरंगाबाद को सामरिक महत्व के लिए विकसित किया था।
एक समय था जब औरंगाबाद के पैठण यानी प्रतिष्ठान नामक स्थान को स्वयं ब्रह्मा जी ने तपोस्थली के रूप में चुना था। लेकिन, समय के साथ-साथ सातवाहन राजवंश की यह कर्मभूमि कब बौद्धस्थली में बदल गई पता ही नहीं चला।
कहा जाता है कि औरंगाबाद में छठवीं से आठवीं शताब्दी के स्वर्णिम दौर में चालुक्य राजवंश के राजा पुलकेशियन द्वितीय के शासनकाल के दौरान इस साम्राज्य की सीमाएं उत्तर में गोदावरी व दक्षिण में कावेरी नदी तक फैली हुई थीं।
सातवीं शताब्दी के मध्य में चालुक्यों और राष्ट्रकूटों बीच होने वाले कई छोटे-बड़े युद्धों के बाद चालुक्यों की शक्ति कमजोर पड़ने लगी। हालांकि, राष्ट्रकूटों की सत्ता भी करीब-करीब दो से ढाई सदी तक ही सलामत रह सकी और उसके बाद उनका क्षेत्रफल भी कई भागों में बंट गया।
इसी प्रकार की आपसी छिना-झपटियों के दौर चलते रहे और 12वीं शताब्दी के आते-आते यहां के यादव शासक नरेश भिल्लम ने औरंगाबाद शहर से मात्र 20 किलोमीटर की दूरी पर देवगिरी, यानी आज के दौलताबाद को अपनी राजधानी के रूप में विकसित करवा कर, यहां एक ऐसे अभेद्य किले का निर्माण करवा लिया जिसकी चर्चा दूर-दूर तक होने लगी।
मुगलकाल का इतिहास –
स्वर्णिम भारत की संपूर्ण भूमि पर हो रही अनेकों आपसी खिंचातानी और छीना-झपटियों के उस दौर के बीच 12वीं शताब्दी के आते-आते यहां भी विदेशी लूटेरों और शासकों की नजर पड़ चुकी थी। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया, अरब की ओर से आने वाले लूटेरों की नजरों में ये किला, और संपूर्ण औरंगाबाद की वैभवपूर्ण विरासत भी खटकने लगी।
उधर दिल्ली की गद्दी पर बैठे सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को जब देवगिरी के इस स्वर्णिम किले की भव्यता का पता चला तो उसने यहां के शासक राजा रामचन्द्र देव को सन 1296 ईसवी में एक रणनीति के तहत परास्त कर दिया और किले को जीतने में सफल हो गया। अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने किले में प्रवेश किया और यहां से बड़ी मात्रा में धन दौलत लूट कर दिल्ली ले गया।
उस हमले और लूटपाट के बाद, सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को राजा रामचन्द्र देव ने एक समझौते के तहत नजराना देना कबूल कर लिया। लेकिन, राजा रामचन्द्र देव की मृत्यु के बाद उसके पुत्र शंकर देव ने दिल्ली की सल्तनत को वो नजराना देना बंद कर दिया। बदले में दिल्ली के सुल्तान ने फिर से देवगिरी पर हमला कर दिया, जिसमें शंकर देव शहीद हो गये।
हालांकि, शंकर देव के बाद राजा रामचंद्र के दामाद ने भी इस किले को पाने के लिए असफल प्रयास किये, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद इस राज्य की कमान पूरी तरह से लुटेरे शासकों के कब्जे में चली गई।
नाम कैसे बदले –
अब अगर बात करें इसके नाम के बारे में कि आखिर कैसे यह नगर देवगिरी से दौलताबाद में बदल गया तो, इतिहास बताता है कि चैदहवीं शताब्दी की शुरूआत में दिल्ली सल्तनत के मोहम्मद तुगलक ने अपनी राजधानी को दिल्ली से 1300 कि.मी. दूर लेजाकर सीधे देवगिरी को नई राजधानी बना लिया और ऐलान कर दिया कि अब से इस राजधानी का नाम होगा दौलताबाद।
देवगिरी का इतिहास –
लेकिन, मोहम्मद तुगलक को अपनी नई राजधानी दौलताबाद रास नहीं आई इसलिए उसे अपनी इस राजधानी को वापिस दिल्ली लाना पड़ गया। और उसके दिल्ली जाते ही दक्षिण में उसकी पकड़ कमजोर होती गई। परिणाम ये हुआ कि दौलताबाद पर बहमनी शासकों का कब्जा हो गया।
ये सच है कि देवगिरी पौराणिक युग का एक अति प्राचीन और समृद्ध नगर हुआ करता था। तभी तो यादव शासक नरेश भिल्लम ने इसे अपनी राजधानी के रूप में चुना और यहां एक समृद्ध किले का निर्माण करवा कर इसे सम्मान दिया था। लेकिन, कुछ इतिहासकारों ने मोहम्मद तुगलक की शान में यहां दूसरा इतिहास रच डाला और देवगिरी के उस पौराणिक महत्व तथा इतिहास को भूला कर इसे एक ऐसा दौलताबाद बना दिया जो मोहम्मद तुगलक से पहले यहां कुछ था ही नहीं।
औरंगाबाद का इतिहास –
ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि आज का विशाल आकार और आबादी वाला महाराष्ट्र का यही औरंगाबाद शहर, प्राचीन युगा का एक छोटा और साधारण-सा ‘खडकी’ नाम का कस्बा हुआ करता था। खडकी की खासियत ये थी कि ये कस्बा पैठण, दौलताबाद सहीत अन्य पड़ौसी राज्यों और नगरों के लिए सामरिक और व्यापारिक दृष्टि से बहुत अधिक महत्व रखता था। क्योंकि खडकी कस्बे से होकर कई दिशाओं के लिए दूर-दराज के व्यापारी प्राचीनकाल से ही व्यापार करते आ रहे थे, जिसके चलते अहमदनगर के निजाम ने सन 1610 ई. में अंबर मलिक को यहां अपना मंत्री नियुक्त कर दिया था।
चारों तरफ से पहाड़ी घेरे के बीच बसे आज के इस विशाल आकार और घनी आबादी वाले महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर की शुरूआती नींव जहां से पड़ी है वह स्थान यही ‘खडकी कस्बा’ है जो अब यहां ‘जूना बाजार’ के नाम से पहचाना जाता है। साधारण शब्दों में कहें तो ‘जूना बाजार’ ही असली खडकी कस्बा है और असली खडकी कस्बा ही औरंगाबाद है।
और क्योंकि खडकी कस्बा प्राचीन काल से ही व्यापार का केन्द्र हुआ करता था इसलिए यहां से होकर जाने वाले तमाम मार्गों की देखभाल और उनकी मरम्मत या उनके देखभाल की जिम्मेदारी स्थानीय शासकों की ही हुआ करती थी इसलिए यहां जो भी शासक हुआ करता था वह यहां से होने वाले व्यापार और व्यापारियों को सुरक्षा देता था और सुविधाओं के तौर पर सड़कों या रास्तों के निर्माण कार्य करवाता था, क्योंकि इसके बदले उसे यहां से अच्छी आय भी होती थी।
प्राचीनकाल से ही ये एक व्यापार के लिए व्यस्त और सुगम मार्ग के रूप में उपयोग होता था इसलिए यहां विश्राम के लिए कई सारी आलीशाल धर्मशालाएं, भव्य मंदिर और कई प्रकार की सुविधाएं हुआ करती थी। इसलिए यहां यह कहना गलत होगा कि औरंगाबाद को सबसे पहले कब और किस शासक ने बसाया था। लेकिन, इतना जरूर है कि, अंबर मलिक ने यहां पर अपने ही धर्म विशेष को ध्यान में रखते हुए खास तौर पर कई सारी मसजिदों और सराय आदि का निर्माण करवाया था।
ऐतिहासिक विरासतें –
अब अगर हम बात करें औरंगाबाद की उन समृद्धशाली और ऐतिहासिक विरासतों के बारे में तो यहां की प्राचीनकाल में निर्मित गुफाएं आज भी सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। इसके अलावा इस क्षेत्र में गुप्तकाल, सातवाहन, वाकाटक और राष्ट्रकूट के शासनकाल के दौरान जो संरचनाएं निर्मित की गई थीं मुगलकाल के दौरान उन सब को या तो नष्ट कर दिया गया, या फिर उनको अपने विशेष धर्मस्थलों में बदल दिया गया। हालांकि, उन संरचनाओं के अवशेष और निशान हमें आज भी देखने को मिल जाते हैं।
इसमें सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो ये है कि मुगलकाल के उस हिंदू विरोधी दौर के बावजूद 6ठीं से 8वीं शताब्दी के दौरान बनी अजंता और ऐलोरा की गुफाओं के अलावा औरंगाबाद की अन्य गुफाओं को वे इसलिए नष्ट नहीं कर पाये क्योंकि शायद उन संरचनाओं या विरासतों पर इनकी बुरी नजर ही नहीं पड़ी थी। जबकि उन्हीं ऐलोरा की गुफाओं के पास स्थित भगवान शिव के पवित्र 12 ज्योतिर्लिगों में से एक घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिग मंदिर को वे कई बार नष्ट कर चुके थे।