बहुत से हिन्दुओं ने “अक्षरधाम मंदिर” या फिर “लोटस टेम्पल” को देखा होगा। लेकिन, शायद उनमें से किसी ने भी कहीं से भी इस बात पर ध्यान नहीं दिया होगा कि अक्षरधाम मंदिर चाहे दिल्ली का हो या फिर अन्य किसी भी स्थान का। बाकी मंदिर संरचनाओं और मंदिर स्थलों की तरह बिलकुल भी आभास नहीं देता। किसी आम व्यक्ति ने शायद इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया होगा कि इनके निर्माण में पांच सितारा संस्कृति और मध्य युगीन सोच और षड्यंत्र का मिलाजुला रूप बड़ी ही चालाकी से समाहित क्यों किया गया है?
हालाँकि हिन्दू मंदिर हमेशा से समृद्ध और भव्य रहे हैं, लेकिन उससे भी कहीं अधिक महत्त्व तो मंदिरों के प्रति आस्था का होता है। जबकि इन मंदिरों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इनको आस्था का केंद्र माना जाय। क्योंकि कहने के लिए तो ये “मंदिर” हैं, लेकिन आप यदि इन विशेष आस्था स्थानों पर “मंदिर” वाली फीलिंग या हिन्दू मंदिर की संस्कृति को खोजेंगे तो यहां ऐसा कुछ भी नहीं मिलेगा। और ये बात हमें उन व्यक्तियों से सुनने को मिलती है जो देश के सबसे बड़े और सबसे पवित्र तथा सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में जा चुके हैं या फिर जाते रहते हैं।
दरअसल हिन्दू धर्मस्थल कोई सेक्युलरवाद का अड्डा नहीं बल्कि एक शुद्ध रूप से आस्था और भक्ति का स्थान होता है। जबकि एक आम हिन्दू श्रद्धालु जो की सेक्युलरवाद में डूबा हुए होता है वह इस और ध्यान ही नहीं दे पाता है कि किस प्रकार से “अक्षरधाम मंदिर” या फिर “लोटस टेम्पल” जैसे कुछ विशेष मंदिरों के माध्यम से बड़ी ही चालाकी के साथ उसकी आस्था को चमक धमक और चकाचौंध के साथ, प्रचार प्रसार तथा व्यवस्था आदि का तड़का लगाकर उसका मूल भाव ही नष्ट कर दिया जाता है।
लेकिन, क्योंकि न सिर्फ सरकारें बल्कि स्वयं सेक्युलरवादी विचारधारा के श्रद्धालु भी आजकल धार्मिक क्षेत्रों के उन विशेष प्रकार के विकास के नाम पर खुश होते जा रहे हैं और आस्था एवं धर्म के साथ प्रयोगात्मक खिलवाड़ के षड्यंत्र को समझ ही नहीं पा रहे हैं, इसीलिए पश्चिमी मानसिकता समझ चुकी है कि जब स्वयं हिन्दू ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है तो क्यों न उसका लाभ ले लिया जाय।
पिछले कई दसकों से देखते आ रहे हैं कि पश्चिमी दबाव के चलते हमारी सरकारें ऐसे स्थानों पर आधुनिकता को दर्शाकर आस्था के साथ प्रयोग करती रहतीं हैं, इसलिए इन स्थानों पर “मंदिर” वाली वो फीलिंग ही नहीं आ पाती। इसलिए ऐसे लोगों की संख्या सबसे अधिक है जो कहते हैं कि उन्होंने “अक्षरधाम मंदिर” या फिर “लोटस टेम्पल” को अपने जीवन में सिर्फ एक बार या फिर दो बार ही देखा होगा, जबकि वही व्यक्ति अपने आस पास के किसी भी छोटे से मंदिर में बार बार जाना पसंद करता है।
और क्योंकि इन मंदिरों में आधुनिकता के साथ मध्य युगीन षड्यंत्र की सोच और पश्चिमी संस्कृति की मिली जुली झलक आसानी से दिख जाती है इसलिए यह एक धार्मिक स्थान या मंदिर नहीं बल्कि “गरीबी में भी अमीरी का ऐहसास” दिलाने वाला “पांच सितारा धार्मिक स्थान” या फिर “हिन्दू धार्मिक पर्यटन स्थल” कहा जा सकता है। आजकल तो हिन्दू धर्म के कई प्राचीन आस्था स्थलों को “पांच सितारा पर्यटन स्थान” बनाकर उनका धार्मिक स्वरुप ख़त्म कर दिया गया है और अब वे “पर्यटन उद्योग” के रूप में आ चुके हैं।
जिस प्रकार से “गरीबी में भी अमीरी का ऐहसास” दिलाने वाले इन “पांच सितारा पर्यटन और धार्मिक स्थान” आदि का षड्यंत्र चल रहा है ठीक उसी प्रकार आजकल हिन्दुओं के साथ राष्ट्रीयता के नाम पर भी आधुनिक प्रयोग किया जा रहा है, और ये प्रयोग है “भारत माता” के रूप में।
जिस “भारत माता” का 19वीं शताब्दी के मध्य से पहले कोई अस्तित्व ही नहीं था, आज सभी हिन्दू, उसी भारत माता के खूब जयकारे लग रहे हैं। अब तो हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थानों पर “भारत माता” के लिए मंदिरों का भी निर्माण होता जा रहा है। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि भारत माता को सिर्फ हिन्दुओं के आस्था स्थलों और आस्था के साथ ही जोड़ा जाता है, अन्य के साथ नहीं। और यदि भारत माता पौराणिक युग की अन्यअन्य माताओं की तरह ही कोई माता है तो क्यों नहीं उनके कोई प्राचीन मंदिर देखने को मिल रहे हैं?
जब कभी भी हम किसी मंदिर में जाते हैं तो उस मंदिर के क्षेत्र की एक विशेष परिधि, यानी आभा मंडल में प्रवेश करते ही हमें स्वयं महसूस होने लगता है। फिर वो स्थान चाहे आज ही क्यों न बना हो या फिर हज़ारों वर्ष पुराना हो, लेकिन, यदि आप गौर मंदिर करेंगे तो आपको ज्ञात होगा कि इन विशेष आस्था स्थलों के साथ ऐसा बिलकुल भी महसूस नहीं होता।
कहने के लिए तो इन्ह्ने “मंदिर” कहा जाता है, लेकिन आप यदि इन स्थानों पर “मंदिर” वाली फीलिंग या हिन्दू मंदिर की संस्कृति को खोजेंगे तो कुछ भी नहीं मिलेगा। लेकिन क्योंकि बड़े ही तरीके से चमक धमक और चकचौंध के साथ और प्रचार प्रसार तथा व्यवस्था आदि के द्वारा इन स्थानों पर आधुनिता को दर्शाया जाता है इसलिए इन स्थानों पर किसी भी आम व्यक्ति को “मंदिर” वाली फीलिंग ही नहीं आ पाती। और यदि कोई “मंदिर” वाली फीलिंग लेना चाहता है तो फिर वह किसी भी गली के नुक्कड़ पर बने किसी भी छोटे से मंदिर में या फिर किसी भी पेड़ के निचे रखी छोटी सी मूर्ति में भी उस “मंदिर” वाली फीलिंग को पा सकता है, लेकिन इन पांच सितारा मंदिरों में तो बिलकुल भी नहीं।
और क्योंकि इन मंदिरों में आधुनिकता के साथ मध्य युगीन षड्यंत्र की सोच और पश्चिमी संस्कृति की मिली जुली झलक आसानी से दिख जाती है इसलिए यह एक धार्मिक स्थान या मंदिर नहीं बल्कि “गरीबी में भी अमीरी का ऐहसास” दिलाने वाला “पांच सितारा पर्यटन और धार्मिक स्थान” कहा जा सकता है। और फिर आजकल के करीब करीब 90 प्रतिशत हिन्दुओं को तो “गरीबी में भी अमीरी का ऐहसास” ही पसंद आ रहा है।
जिस प्रकार से “गरीबी में भी अमीरी का ऐहसास” दिलाने वाले इन “पांच सितारा पर्यटन और धार्मिक स्थान” आदि का खेल चल रहा है ठीक उसी प्रकार आजकल हिन्दुओं के साथ धर्म के साथ साथ राष्ट्रीयता का भी आधुनिक रूप रंग रचा जा रहा है, और ये है “भारत माता” के रूप में।
जिस “भारत माता” का 19वीं शताब्दी के मध्य से पहले किसी भी वेद, पुराण या अन्य किसी भी धर्मग्रन्थ में कोई अस्तित्व ही नहीं था, उसी भारत माता के जयकारे आजकल खूब लग रहे हैं और उसके लिए मंदिरों का भी निर्माण हो रहा है। किसी भी धार्मिक स्थान की पहचान उसके क्षेत्र की एक विशेष धार्मिक परिधि, यानी आभा मंडल से होती है।
किसी भी धार्मिक स्थान का महत्त्व उसके दर्शनार्थियों और श्रद्धालुओं के मानसिक और हार्दिक अभिनन्दन तथा आत्मिक भक्ति और श्रद्धा के आधार पर लगाया जाता है. लेकिन, क्योंकि अक्षरधाम मंदिर और किसी सरकारी संग्रहालय समानता झलकती है इसलिए दोनों ही स्थानों पर प्रदर्शन या प्रदर्शनी के अलावा और कोई झलक नहीं दिखती।
ध्यान रखें कि अक्षरधाम मंदिर किसी भी विशेष धर्म या समुदाय विशेष के लिए बिलकुल भी नहीं है। क्योंकि किसी विशेष धर्म या समुदाय विशेष के किसी भी पवित्र स्थान पर अन्य धर्मों के लोगों को मात्र एक से दो प्रतिशत ही देखा जा सकता है। जबकि हिन्दुओं की आस्था के अनुसार ही यहां “मंदिर” और “टेम्पल” को जोड़ा गया है इसलिए यहां भीड़ भी सबसे अधिक हिन्दुओं की ही होती है।
ज़रा सोचिये कि, लोटस टेम्पल के साथ यदि मस्जिद या फिर चर्च जोड़ दिया जाता या फिर अक्षरधाम मंदिर के साथ भी यदि मस्जिद या चर्च जोड़ दिया जाता तो क्या एक आम और परंपरागत जीवन जीने वाला साधारण हिन्दू उनमें जा पाता? शायद नहीं।
अक्षरधाम मंदिर में लगभग सभी धर्मों की भीड़ लगी रहती है। वे लोग ये बात अच्छी तरह से जानते हैं कि अक्षरधाम को मंदिर जरूर कहा जा रहा है लेकिन यह मंदिर बिलकुल भी नहीं है। ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार “लोटस टेम्पल” में भी “टेम्पल या मंदिर” शब्द को जोड़ा गया है। उसी प्रकार से लोटस टेम्पल के बाद अक्षरधाम मंदिर भी हिन्दू धर्म के साथ षड्यंत्र का एक बहुत बड़ा हिस्सा है जो हमारी हर एक सरकारों के द्वारा किया जा रहा है।
– जी. एस. चौहान, खरगोन (मध्य प्रदेश)