वैश्विक महामारी कोरोना को अपना पांव पसारे हुए डेढ़ वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है किन्तु उसका दंश झेलने के लिए अभी भी पूरी दुनिया विवश है। अभी तक इसका सुनिश्चित इलाज नहीं खोजा जा सका है। सुरक्षात्मक उपायों की दृष्टि से अभी तक पूरी दुनिया पूरी तरह वैक्सीन पर ही आश्रित है। भविष्य में वैक्सीन का पूर्ण प्रभाव तभी स्पष्ट हो पायेगा जब पूरे विश्व में सभी को या अधिकांश लोगों को दोनों डोज लग जायेगी।
कोरोना की पहली लहर में लोगों को कुछ बातों का अनुभव हुआ तो दूसरी लहर में कुछ अलग तरह का अनुभव हुआ। दूसरी लहर तो इतनी अधिक भयावह थी कि उसे देखने, सुनने और झेलने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। लिहाजा, कहा जाता है कि आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है यानी जब किसी वस्तु की आवश्यकता महसूस होती है तो उसकी खोज प्रारंभ हो जाती है। दूसरी लहर में जब आक्सीजन की कमी महसूस हुई तो लोगों की समझ में यह भली-भांति आ गया कि आक्सीजन उत्पन्न करने वाले पेड़-पौधों को नष्ट करने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं? लोगों की समझ में यह भी आ गया कि कृत्रिम आक्सीजन के भरोसे बहुत दिनों तक अपने आप को स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त नहीं रखा जा सकता है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि वैश्विक महामारी कोरोना ने जीवन जीने के प्रति एवं अन्य मामलों में लोगों का नजरिया तो बदला है किन्तु व्यावहारिक धरातल पर मानव उसका पालन पूरी तरह नहीं कर रहा है। यह भी अपने आप में सत्य है कि किसी भी कार्य में जब तक कथनी-करनी में अंतर होगा तो तब तक उसके सुखद परिणाम देखने को नहीं मिलेंगे। कोरोना के खौफ से मानव के नजरिये में जो सबसे बड़ा बदलाव देखने को मिला है वह यह है कि हमें किसी भी कीमत पर अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत करना ही होगा, क्योंकि जब तक रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत नहीं होगी तब तक अपने को स्थायी रूप से स्वस्थ नहीं रखा जा सकता है।
रोग प्रतिरोधक क्षमता कैसे मजबूत की जा सकती है, यह जानते हुए भी लोगों की लापरवाही पहले जैसी ही बनी हुई है। शासन-प्रशासन, सामाजिक, व्यक्तिगत एवं अन्य विभिन्न स्तरों से कोरोना प्रोटोकाॅल को निभाने की लोगों से लगातार अपील की जा रही है किन्तु लापरवाही का आलम लगातार देखने को मिल रहा है। घर-परिवार, शादी-ब्याह, शमशान घाट, बाजार, माल, मंडियों एवं अन्य तमाम सार्वजनिक स्थानों पर कोरोना प्रोटोकाल का उल्लंघन अनवरत देखने को मिल रहा है।
लोगों को बार-बार बताया जा रहा है कि जिन लोगों ने वैक्सीन की दोनों डोज ले रखी है, उन्हें भी कोरोना के प्रोटोकाल यानी मास्क, सैनिटाइजर एवं दैहिक दूरी का पालन करते रहना है किन्तु देखने में आ रहा है कि तमाम लोग सड़कों पर ऐसे घूम रहे हैं जैसे उनसे यमराज ने मिलकर व्यक्तिगत रूप से कह दिया है कि आप जैसे हो, वैसे ही रहो, आप को कोरोना से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है।
खबरें ऐसी आ रही हैं कि कोरोना की दूसरी लहर थमने के बाद मास्क एवं सैनिटाइजर की बिक्री काफी हद तक कम हो चुकी है। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि इसमें होने वाली लापरवाही किसी भी रूप में बर्दाश्त करने योग्य नहीं है। एक व्यक्ति की गलती से दूसरा कोई मुसीबत में आये, इसे कहीं से भी उचित नहीं कहा जा सकता है। ‘आप भला तो जग भला’ वाली कहावत अब चरितार्थ होने वाली नहीं है क्योंकि पड़ोसी के घर यदि आग लगी हुई हो तो उसकी लपटों से आप किसी भी कीमत पर नहीं बच सकते हैं इसलिए अपने घर में सुख-शांति के साथ-साथ पड़ोसी के घर में भी सुख-शांति और सुरक्षा नितांत आवश्यक है।
कहने का आशय यह है कि कोरोना का मरीज यदि बिना मास्क एवं सावधानी के जगह-जगह घूम ले और उसके संपर्क में कुछ लोग बिना मास्क एवं अन्य लापरवाहियों के साथ आ जायें तो इसका अंजाम क्या होगा? इस संबंध में बहुत कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि रायता फैलने में देर नहीं लगती है। प्रकृति, स्वास्थ्य, समाज, खान-पान, जीवनशैली, शासन-प्रशासन, जीव-जन्तुओं एवं स्वयं के प्रति लोगों का नजरिया तो बदला है किन्तु लापरवाही छोड़ जब तक लोग उस पर अमल नहीं करेंगे, तब तक तीसरी लहर को रोका नहीं जा सकता है। मेडिकल क्षेत्र के तमाम विशेषज्ञों का स्पष्ट रूप से मानना है कि तीसरी लहर काफी हद तक हम सब के व्यवहार पर निर्भर है यानी यदि हम कोरोना प्रोटोकाल का पूरी तरह पालन करते रहेंगे तो वैश्विक महामारी कोरोना से बचे रहेंगे।
पहले जिन लोगों को लगता था कि गंभीर से गंभीर बीमारी हो जाये तो अच्छे से अच्छे अस्पताल एवं डाॅक्टर से इलाज करवाकर बच लिया जायेगा किन्तु वह भ्रम अब टूट चुका है। कोरोना की दूसरी लहर में देखने को मिला कि रुपया, पैसा, धन-संपत्ति सब धरा का धरा रह गया। इलाज के अभाव में तमाम लोगों को बैकुंठलोक को बेवक्त जाना पड़ा और नास्तिक से नास्तिक व्यक्ति को भी यह सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि वास्तव में प्रकृति के आगे किसी की कुछ भी चलने वाली नहीं है।
प्रकृति का एक भी झटका झेलने की औकात मानव जाति में नहीं है इसलिए प्रकृति के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलना ही होगा। लोगों को यह भी पता चल गया कि प्रकृति की कोई सीमा नहीं है और प्रकृति में किसी भी प्राणी एवं जीव-जन्तु का तभी तक अस्तित्व है जब तक वह प्रकृति की पूरी श्रृंखला यानी कड़ी से जुड़ा हुआ है। उदाहरण के तौर पर कोरोना की दूसरी लहर में देखने को मिला कि आक्सीजन के बगैर कितने लोगों की जान चली गई? आखिर वातावरण में आॅक्सीजन की इतनी अधिक कमी कैसे आ गई?
जाहिर सी बात है कि मानव जाति ने पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई की और उसके बदले नए पेड़-पौधों को लगाया नहीं। आक्सीजन उत्पन्न करने वाले पीपल, नीम, बरगद जैसे वृक्षों की संख्या लगातार कम होती गई तो स्वाभाविक सी बात है कि आक्सीजन की कमी तो होगी ही। कहने का आशय यह है कि प्रकृति में सब कुछ आपस में जुड़ा हुआ है। आपसी जुड़ाव में यदि किसी तरह की कमी आई यानी कोई चेन टूटी तो प्रकृति के कोप का भाजन बनना ही होगा और उसकी नाराजगी झेलनी ही होगी यानी व्यक्तिगत के बजाय सामूहिकता में रहने की आदत डालनी ही होगी। आज पूरी दुनिया ग्लोबल वार्मिंग से त्रस्त है। जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों एवं
दुष्परिणामों को झेलने के लिए लोग विवश हैं। इसी कारण से पूरी दुनिया में प्राकृतिक आपदाओं का कहर दिन-प्रतिदिन गहराता ही जा रहा है।
ये सारी बातें मनुष्य समझ रहा है किन्तु लापरवाही से बाहर नहीं आ पा रहा है। प्रकृति के दोहन-शोषण से क्या-क्या हो सकता है, कोरोना ने लोगों को बहुत अच्छी तरह समझा और बता दिया है किन्तु उसके बावजूद लोग अपनी आदतों में बदलाव करने को तैयार नहीं हैं। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि तमाम लोग तो इन सब खतरों के प्रति दूसरों को आगाह भी करते हैं और समझाते भी हैं किन्तु जब अपनी बारी आती है तो बगले झांकने लगते हैं यानी यहां वही कहावत चरितार्थ हो रही है कि भगत सिंह पैदा तो हों किन्तु मेरे नहीं पड़ोसी के घर। कहने का अभिप्राय यह है कि प्रकृति के प्रकोप से बचने एवं प्रकृति के संरक्षण-संवर्धन के लिए सभी को आगे आना होगा।
यदि कल्पना की जाये कि प्रकृति का अत्यधिक दोहन एवं शोषण होने से जमीन में खाद्यान्न का उत्पादन बंद हो जाये, जमीन में पानी के सारे स्रोत सूख जायें, हवाएं न मिलें तो क्या होगा? चूंकि, प्रकृति की नजर में पूरी धरती एवं सृष्टि है। ऐसे में वह सिर्फ मानव हितों की रक्षा नहीं कर सकती है। मानव इस धरती पर प्रकृति की अनमोल कृति भले ही है और प्रकृति ने उसे सृष्टि का सबसे बुद्धिमान प्राणी भले ही बनाया है किन्तु उसने मानव से यह भी उम्मीद की है कि वह सृष्टि के सभी जीव-जन्तुओं का ख्याल रखेगा। वैसे भी यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो सभ्यता महलों एवं सड़कों से नहीं बल्कि जंगलों, नदियों एवं जैव विविधता से बचेगी।
जंगली जानवर यदि मानव बस्तियों में आ रहे हैं तो इसका सीधा सा आशय है कि मानव ने उनका आशियाना निश्चित रूप से तहस-नहस किया है। प्लास्टिक से मुक्ति हेतु तमाम सरकारी, सामाजिक एवं व्यक्तिगत प्रयासों के बावजूद लापरवाही का आलम बरकरार है। प्लास्टिक से क्या क्षति हो रही है यह सभी को पता है? हमारी सनातन संस्कृति में मानव को हर समस्या से निजात पाने का उपाय बरकरार है किन्तु उसके लिए आवश्यकता इस बात की है कि उस पर अमल करना होगा और लापरवाही को त्यागना होगा। आज यदि मानव जाति बीमार है तो उसका स्पष्ट रूप से कारण यही है कि हमारी प्रकृति भी बीमार है।
लाॅकडाउन में ऐसा देखने को मिला कि इंसान को छोड़कर पशु-पक्षी, जीव-जन्तु एवं नदी-पहाड़ सभी प्रसन्न थे। हमारी प्रकृति बीमार न हो, इसके लिए लोगों को अपनी आदतें बदलनी होंगी। यदि लोग न बदलें तो जबर्दस्ती बदलना पड़ेगा। औद्योगिक विकास तो जरूरी है किन्तु औद्योगिक विकास में प्रकृति को जितनी हानि पहुंचती है, उसकी भरपाई तो किसी न किसी रूप में होनी ही चाहिए अन्यथा असंतुलन की स्थिति बनी रहेगी और यहीं से शुरू होता है प्राकृतिक आपदाओं को निमंत्रण देने का आगाज। व्यावहारिक तौर पर देखा जाये तो प्रकृति के संरक्षण, संवर्धन एवं महामारियों से निपटने में ईमानदार एवं पारदर्शी शासन-प्रशासन काफी मददगार साबित होता है। लाकडाउन एवं कोरोना काल में देखने को मिला कि जिन देशों में भ्रष्टाचार कम है, उन्हें कोरोना को नियंत्रित करने में ज्यादा कामयाबी मिली किन्तु इस मामले में लापरवाही सबसे बड़ी बाधा है।
कोरोना से बचाव के लिए अभी तक जो भी उपाय बताये गये हैं वे सब हमारी सनातन संस्कृति में हमारी नियमित जीवनशैली का हिस्सा रहे हैं। साफ-सफाई, व शारीरिक दूरी एवं अन्य उपाय हमारे लिए कोई नयी बात नहीं है, बस कमी सिर्फ इस बात की है कि लोग उसे भूल चुके हैं, छोड़ चुके हैं और उस पर अमल करने से कतरा रहे हैं किन्तु अब वह समय आ गया है कि इस प्रकार की लापरवाही को तिलांजलि देनी ही होगी अन्यथा तिल-तिल कर मरने के लिए विवश होना पड़ेगा।
हमारी जीवनशैली कैसी हो, खान-पान, रहन-सहन, जीव-जन्तुओं एवं प्रकृति के प्रति हमारा व्यवहार कैसा हो, इसके लिए अलग से हमें कुछ जानने एवं समझने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता सिर्फ इस बात की है कि हम अपनी जिस सभ्यता-संस्कृति से मुंह मोड़ चुके हैं, उसकी तरफ पुनः अग्रसर हो लिया जाये।
जिस पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति की तरफ हम लोग तेजी से अग्रसर हुए थे, अब उससे पीछे मुड़ने की आवश्यकता है, क्योंकि अब यह पूरी तरह स्पष्ट हो चुका है कि कोरोना काल में पाश्चात्य जगत से अधिक मजबूती से भारत ही खड़ा रहा। जिस तरह के विकास को पश्चिम ने बढ़ावा दिया है, उसके साइड इफेक्ट अब प्राकृतिक आपदाओं के रूप में अनवरत देखने को मिल रहे हैं। कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि कोरोना से लोगों का नजरिया तो बदला है किन्तु जीवन के हर मोड़ पर लापरवाही का आलम पूरी तरह बरकरार है। यदि इस लापरवाही पर अति शीघ्र नियंत्रण नहीं किया गया तो भविष्य में प्रकृति का रौद्र रूप देखने को मिल सकता है, इसलिए मानव जितनी जल्दी सुधर जाये और प्रकृति के इशारों के अनुरूप चलने की कोशिश करने लगे, उतना ही अच्छा होगा क्योंकि इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प बचा भी नहीं है।
– सिम्मी जैन दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन – समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।