भारत सहित पूरी दुनिया के वर्तमान हालातों का यदि मूल्यांकन एवं विश्लेषण किया जाये तो थोड़े-बहुत अंतर के साथ पूरे विश्व की भावनाएं, सुख-दुख, परेशानियां, समस्याएं एवं अन्य बातें एक जैसी दिखाई देती हैं। आज के वैज्ञानिक, भौतिकवादी एवं आधुनिक युग में भले ही मानव चांद पर स्थायी रूप से बसने की योजना बना रहा है, किन्तु एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि मानव के जीवन में सुख-शांति एवं अमन-चैन लगातार कम होता जा रहा है। हताशा, डिप्रेशन एवं बीमारियां जीवन में कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही हैं। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित चैपाई, ‘समरथ को नहीं दोष गुसाई’ सर्वत्र चरितार्थ होती दिख रही है यानी जो सर्वदृष्टि से समर्थ है, उसमें कोई दोष नहीं है। कोई भी व्यक्ति, समूह, समाज या राष्ट्र यदि शक्तिशाली है तो वह अपने आगे सबको झुकाकर रखना चाहता है। इस भावना के विपरीत कहीं कुछ देखने-सुनने को मिल रहा है तो निश्चित रूप से वह अपवादस्वरूप ही होगा।
विश्व की महाशक्तियां अपनी आर्थिक ताकत बढ़ाने के लिए किसी भी स्तर तक जाने को तैयार हैं और जा भी रही हैं। रूस यूक्रेन को दबोच लेना चाहता है तो अमेरिका भी पहले ईराक एवं अन्य देशों के साथ ऐसा ही कर चुका है। आर्थिक रूप से कमजोर एवं छोटे देश यदि परेशानी में हैं तो महाशक्तियां बिना किसी स्वार्थ के उनकी मदद के लिए तैयार नहीं हैं।
इस दृष्टि से व्यक्तिगत रूप से लोगों की यदि बात की जाये तो जीवन की छोटी-बड़ी परेशानियों एवं समस्याओं को लेकर अधिकांश लोग परेशान दिखते हैं। वैसे तो देश लगातार तरक्की कर रहा है, लोगों के जीवन में सुधार आया है, लोगों की आमदनी बढ़ी है एवं तमाम तरह से सुख-समृद्धि का दायरा बढ़ता जा रहा है। इसके बावजूद लोगों के जीवन में ताक-झांक की जाये तो सब कुछ वैसा नहीं दिखाई देता है, जैसा दिखता है। संयुक्त परिवार टूटते जा रहे हैं, सामाजिक एवं पारिवारिक मर्यादाओं का हनन हो रहा है, बीमारियां बढ़ रही हैं, हताशा-निराशा लोगों में बढ़ती जा रही है।
सर्व दृष्टि से संपन्न होते हुए भी तमाम लोग ऐसे मिल जायेंगे जो बेवजह परेशान हैं। आधुनिकता एवं भौतिकतावाद से संबंधित सभी सुख-सुविधाओं से पूर्ण व्यक्ति यदि डिप्रेशन का शिकार हो या आत्महत्या करे तो निश्चित रूप से यह जानने एवं समझने की जरूरत है कि कहीं हमारी वर्तमान जीवनशैली में ही तो दोष नहीं है। यदि ऐसा है तो निश्चित रूप से इन परिस्थितियों से उबरने के लिए हमें वर्तमान एवं अतीत में समन्वय बनाना ही होगा। हमें यह जानने की आवश्यकता है कि क्या हम अपने अतीत से कुछ सीखकर वर्तमान को बेहतर बना सकते हैं तो आइये, जीवन के कुछ प्रमुख पहलुओं पर विचार करें।
इस संबंध में जहां तक मेरा विचार है कि वर्तमान में अधिकांश लोग दूसरों से अपनी तुलना करते हैं तो कई बार लोगों को लगता है कि दूसरा व्यक्ति उससे ज्यादा सुखी, संपन्न एवं हर दृष्टि से संपन्न है। यह सोचकर लोग परेशान होते हैं कि आखिर ईश्वर ने उनका जीवन इतना कष्टमय क्यों बनाया जबकि हमारा अतीत हमें यह सीख देता है कि ‘जो घर न देखा, वही अच्छा है’ यानी जिसके बारे में हमें जानकारी नहीं है सिर्फ वही अच्छे हैं। इसका सीधा सा आशय इस बात से है कि यदि हम दूसरों के जीवन में गहराई एवं बारीकी से ताक-झांक करने लगेंगे तो हमें यह ज्ञात हो जायेगा कि हम तो अन्य लोगों के मुकाबले बहुत अच्छे हैं।
कोई भी व्यक्ति कितना ही सुखी-समृद्ध एवं संपन्न भले ही दिखता हो किन्तु उसके जीवन में भी अनेक तरह की परेशानियां हैं। अर्थ के अभाव को ही सिर्फ परेशानी नहीं कहा जा सकता है यानी अतीत से सीख लेते हुए यदि ‘संतोषं परम् सुखम्’ की भावना को आत्मसात किया जाये तो जीवन की नाव बहुत ही सकारात्मक तरीके से चलाई जा सकती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यदि पूरी दुनिया का मूल्यांकन किया जाये तो अधिकांश आबादी किसी न किसी बीमारी से पीड़ित है। महंगे डाॅक्टर एवं महंगे अस्पताल रोगों को जड़ से समाप्त नहीं कर पा रहे हैं। मामूली सी बीमारी में यदि लोग किसी डाॅक्टर के पास या किसी अस्पताल में जा रहे हैं तो उसके साथ-साथ अन्य नई बीमारियां भी लेकर आ रहे हैं। हर अंग के अलग-अलग डाॅक्टर एवं अस्पताल हैं किन्तु बीमारियां घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही हैं जबकि हम जरा सा अपने अतीत की तरफ बढ़ें तो एक ही वैद्य नाड़ी देखकर बिना किसी जांच-पड़ताल के सभी बीमारियां बता देते थे।
आयुर्वेद एवं प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों में आज भी इतनी क्षमता है कि अधिकांश बीमारियों को जड़ से समाप्त कर सकती हैं। जो छोटी-मोटी बीमारियां दादी-नानी के घरेलू नुस्खों से ठीक हो जाया करती थीं, आज वे बहुत बड़ी बीमारियां बन चुकी हैं जबकि वर्तमान चिकित्सा पद्धति में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे इन मामूली सी बीमारियों को विकराल बनने से रोका जा सके।
आज की चिकित्सा व्यवस्था में सेवा भाव कम व्यावसायिकता ज्यादा नजर आती है। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि शारीरिक रूप से यदि चुस्त-दुरुस्त एवं स्वस्थ रहना है तो अतीत की चिकित्सा पद्धतियों को भी व्यवहार में लाना होगा। दादी-नानी के नुस्खों से घर-परिवार, समाज एवं राष्ट्र को अवगत कराना ही होगा।
कोरोना काल में पूरी दुनिया ने यह मान लिया कि भारत का अतीत ही ऐसे संकट से निजात दिला सकता है। कोरोना काल के लिए जो भी सावधानियां एवं एहतियात विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरफ से निर्धारित किये गये हैं, वे सभी बातें भारतीय जीवनशैली की अतीत में हिस्सा रही हैं। अतीत में भारत ‘सोने की चिड़िया’ या ‘विश्व गुरु’ रहा है तो कुछ तो हमारे अतीत में रहा होगा। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि यदि वर्तमान एवं अतीत में समन्वय स्थापित किया जाये तो जीवन नीरस होने से बच जायेगा।
शिक्षा की दृष्टि से देखा जाये तो शिक्षा व्यवसाय बनती जा रही है। जितना महंगा शिक्षण संस्थान, उतना ही ऊंचा शिक्षा का स्तर माना जा रहा है। महंगे से महंगे शिक्षण संस्थानों में पढ़े बच्चों में संस्कारों का नितांत अभाव है। संयुक्त परिवार एवं मां-बाप आधुनिक पीढ़ी को बोझ लगने लगे हैं। परिणामस्वरूप वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके विपरीत यदि हम थोड़ा अपने गौरवमयी अतीत की तरफ चलें तो गुरुकुलों में शिक्षक स्वतः यह जान लेते थे कि किस बच्चों की रुचि किस क्षेत्र में है? उसी के अनुरूप बच्चे को शिक्षा दी जाती थी।
अतीत में किसी संतान की वास्तविक परीक्षा तब होती थी जब उसके माता-पिता वृद्ध होते थे। उस समय बुजुर्ग अपनी समस्त जिम्मेदारियों से मुक्त होकर पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन एवं तीर्थाटन में अपना समय बिताते थे और यह सब करवाने की जिम्मेदारी संतान की होती थी। अतीत में परिवार में यदि एक व्यक्ति कमाता था तो पूरे परिवार का गुजारा उससे हो जाता था किन्तु क्या आज ऐसा संभव है?
दुनिया की योग्य संतानों की यदि चर्चा होती है तो श्रवण कुमार का नाम सबसे पहले लिया जाता है। कहने का आशय यह है कि आज की शिक्षा व्यवस्था भले ही कितनी अच्छी हो किन्तु अतीत से कुछ सीखकर यदि दोनों में समन्वय बना लिया जाये तो जीवन सैद्धांतिकता के बजाय व्यावहारिकता पर आ जायेगा। यह भी अपने आप में पूर्णरूपेण सत्य है कि व्यावहारिकता की कसौटी पर जब किसी व्यक्ति को कसा जाता है तो उसके ज्ञान एवं अनुभव में वृद्धि होती है और अंततोगत्वा उसका ज्ञान एवं अनुभव ही उसे समाज में स्थापित करता है।
बच्चों में संस्कार परिवार से सबसे अधिक आता था। परिवार की बात की जाये तो संस्कार देने में दादा-दादी एवं नाना-नानी की भूमिका सबसे अधिक होती है। चूंकि, अब लोग सिंगल परिवार में रहना ज्यादा पसंद करते हैं तो संस्कार कैसे मिले? कठिन से कठिन समय से कैसे निपटा जाये, संयुक्त परिवारों में यह काम बहुत ही आसानी से हो जाता था किन्तु आज यदि कोई किसी संकट में फंसता है तो अपने आपको निहायत ही अकेला पाता है और तमाम मामलों में वह टूटकर बिखर भी जाता है इसलिए अतीत की तरफ भी लगाव एवं झुकाव बहुत जरूरी हो गया है।
समाज एक ऐसा शब्द है जिसे विपरीत से विपरीत समय में सभी समस्याओं का समाधान माना जाता था यानी अतीत में हमारे समाज की एक परंपरा रही है कि यदि कोई व्यक्ति लाचार एवं मजबूर हो जाता था तो समाज उसे उबारने का काम करता था। गरीब से गरीब लोगों के बच्चों की पढ़ाई, इलाज एवं शादियां समाज के माध्यम से हो जाया करती थीं किन्तु क्या आज यह संभव है? आज तो व्यावहारिक रूप से अधिकांश मामलों में यही देखने को मिलता है कि जो सर्वदृष्टि से समर्थ एवं सक्षम है, समाज उसी के लिए है। कुल मिलाकर यहां भी कहने का आशय यही है कि समाज एक अच्छा समाज कैसे बने, इसके लिए भी अतीत की तरफ ही जाना होगा अन्यथा वर्तमान में समाज का जैसा स्वरूप है, उससे सिर्फ भविष्य में अराजकता ही फैलेगी।
आज यदि वर्तमान की बात की जाये तो समाज में दो साल की मासूम बच्ची से लेकर 80 वर्ष की वृद्धा के साथ बलात्कार की घटनाएं देखने-सुनने को मिलती रहती हैं किन्तु हमारा अतीत इस बात की सीख देता है कि बच्चे भगवान का रूप हैं और महिलाओं के बारे में तो ऐसी मान्यता थी कि ‘यत्र नारि पूज्यंते, रमंते तत्र देवता’ यानी जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता वास करते हैं किन्तु आज के समाज में क्या इस प्रकार की भावना पनप सकती है? अतीत का समाज यदि चाहिए तो उसके लिए अतीत को ही अमल में लाना होगा।
अतीत की एक बहुत प्राचीन कहावत है कि ‘पांव उतना ही पसारना चाहिए, जितनी बड़ी चादर हो’ यानी अपनी क्षमता के अनुसार जीवन जीने की आदत डालनी चाहिए किन्तु पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति के प्रभाव में आकर लोगों में ऋण लेकर घी पीने की प्रवृत्ति बहुत तेजी से पनपी है। सब कुछ ऋण लेकर करने की संस्कृति से लोगों का तनाव भी बढ़ा है।
भारतीय सभ्यता-संस्कृति में लोक-लाज या भय के कारण लोग गलत कार्य करने से घबराते थे। लोक-लाज का मतलब नैतिक मूल्यों से है और भय का आशय सामाजिक, संवैधानिक एवं ईश्वरीय सत्ता का है। आज लोग संवैधानिक सत्ता को चकमा देकर भले ही निकल जाते हैं किन्तु अतीत में लोगों में जितना भय संवैधानिक सत्ता से था, उससे अधिक लोग समाज एवं ईश्वर से डरते थे। उस समय लोग कोई भी गलत काम करने से इसलिए घबराते थे कि कोई भले ही न देख रहा हो किन्तु ईश्वर तो देख ही रहा है।
वर्तमान से यदि अतीत की तुलना की जाये तो उस समय राजा-महाराजा एवं प्रभावशाली लोगों से लेकर आम नागरिक तक धर्म सत्ता यानी धर्म गुरुओं से डरता एवं लिहाज करता था। अतीत में धर्मगुरू शासक वर्ग को गलत कार्य करने एवं पथभ्रष्ट होने से रोकते एवं आगाह करते थे किन्तु आज क्या हो रहा है? आज तो शासक वर्ग एवं प्रभावशाली लोगों में किसी का डर है ही नहीं, ऐसा प्रतीत होता है व कहा भी ऐसा ही जा रहा है। वैधानिक सत्ता से डरते तो जरूर हैं किन्तु तमाम मामलों में निकलने के रास्ते भी बहुत हैं।
समन्वय बैठाना भी एक प्रकार की कला है। यह कहकर कि वर्तमान, पाश्चात्य और अतीत में समन्वय नहीं बैठाया जा सकता, यह प्रयास रोका नहीं जा सकता क्योंकि कोई भी कार्य असम्भव नहीं होता। मात्र उसे सही समय पर सही सोच के साथ प्रारंभ करना होता है। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब पाश्चात्य संस्कृति को जानते-पहचानते और समझाते हुए अतीत की संस्कृति के कई अच्छे अंशों के साथ समन्वय स्थापित किया गया है। विश्व शांति की तरफ विश्व बंधुत्व का मार्ग प्रशस्त किया गया है। समन्वय बैठाने वाले ऐसे महानुभव हर काल में अवतरित भी होते रहे हैं। पिछले लगभग 100 वर्षों के समय को हम देखें तो हमारे सामने स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, नेल्सन मंडेला, लाल बहादुर शास्त्री, अब्दुल कलाम, दलाई लामा जैसी हस्तियों ने इस प्रकार का सामंजस्य बैठाने का काम किया है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यही है कि भारत सहित पूरे विश्व को यदि सुख-शांति एवं अमन-चैन से रहना है तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र एवं मोड़ पर वर्तमान की अच्छी बातों को आत्मसात करते हुए अतीत की महान परंपराओं को भी अपनाना होगा। इसी से ही समस्त समस्याओं का समाधान संभव है। इसके अलावा कोई अन्य विकल्प भी नहीं है। अपने अतीत की डोर को मजबूती से पकड़कर ही भारत को पुनः विश्वगुरु बनाया जा सकता है।
– सिम्मी जैन