भारत की प्राचीन शास्त्र परंपरा में कार्तिक मास का विशेष महत्व बताया गया है। सद्गुणों की अभिवृद्धि हेतु उपासना, व्रतानुष्ठान आदि के लिए अत्यंत उपयुक्त जाने गए चातुर्मास्य काल के अन्तर्गत कार्तिक मास की गणना की जाती है। दीपावली से पूर्व कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि गोवत्स द्वादशी, बच्छ बारस अथवा वसु वारस के नाम से जानी जाती है। इस दिन बछड़े सहित गोमाता का पूजन किया जाता है।
वैदिक सनातन संस्कृति तथा गौ का संबंध अविच्छित एवं अमिट है। गायत्री, गीता, गंगा, गौ ये भारतीय संस्कृति की चार आधारशिलाएं है। गाय को भारतीय संपदा का अतिविशिष्ट स्तम्भ कहा गया है।
हिंदू चिंतन मूलतः सत्कार्यवादी है, इसीलिए सनातन है। हिन्दू धर्म में गाय विशेष महत्व रखती है जिसे केवल मां का ही रूप नहीं माना जाता बल्कि उनकी पूजा-अर्चना भी की जाती है। जहां युगों-युगों से हिन्दू धर्म में गौवंश की सेवा को अत्युत्म दर्जा दिया गया है वहीं यह भी
धारणा है कि इनकी सेवा किसी-किसी व्यक्ति को ही प्राप्त होती है। गाय धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारों पुरुषार्थों को देने वाली है।
जगत में सर्वप्रथम वेद, अग्नि, गाय और ब्राह्मण की रचना हुई। मनुष्य के लिए वेदों में यज्ञानुष्ठान बताया गया है। गाय से प्राप्त सात्विक अन्न अंतःकरण की शुद्धि करके बुद्धि को निर्मल बनाता है ऐसे सात्विक गुणों से युक्त स्थिर बुद्धि के मानव ही समाज में श्रेष्ठता की क्रांति ला सकते हैं। नर को आत्म ज्ञान के द्वारा नारायण से उच्च स्तर तक ले जाने वाले श्री कृष्ण भी गोपाल बनकर इसी संस्कृति को प्रतिपादित करते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अपने दिव्य रूपांे का वर्णन करते हुए ‘धेनूनामस्मि कामधुक’ कहा है। गायों से भगवत् प्राप्ति होती है। गाय ही यज्ञ के फलों का कारण है और गायों में ही यज्ञ की प्रतिष्ठा है। “गावो यज्ञस्य हि फलं गोषु यज्ञः प्रतिष्ठिताः”।
गाय के विश्व रूप का वर्णन अथर्ववेद, ब्रह्माण्डपुराण, स्कंदपुराण, महाभारत, पद्मपुराण एवं भविष्य पुराण में है। अथर्ववेद में गाय के रोम-रोम में देवताओं का निवास माना गया है। वेद ने तो यहां तक कहा है कि “एतद् वै विश्वरूपं सर्वरूप गोरूपं”। यहां पर गाय के रूप को सारे ब्रह्माण्ड का रूप बताया गया है। गौ सेवा से पुत्र प्राप्ति होती है। कुल-गुरु ब्रह्मार्षि वशिष्ठ द्वारा राजा दिलीप को सुरभि नंदनी की सेवा की आज्ञा हुई। गौ-सेवा के फलस्वरूप ही दिलीप के रघु हुए। पुत्र कामी राजा ऋतम्बर ने जाबलि मुनि की आज्ञानुसार गौ सेवा की। फलतः परमभक्त सत्यवान नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
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यह उक्ति सत्य हैः “विष्णोः प्रसादो गोस्चापि शिवस्याप्थवा पुनः”। भगवान विष्णु, गौ और भगवान शंकर की कृपा से पुत्र की प्राप्ति होती है। गौ मंत्र जप से पापों का नाश हो जाता है। नियमित रूप से गाय को ग्रास देने से मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
गाय के दूध, दही, गोबर, मूत्र और घी के प्रयोग से शरीर को रोगांे से दूर रखा जाता है। इन पांच तत्वों को पंचतत्व कहा जाता है। मानव को अपना जीवन स्वस्थ बनाना है तो पंचतत्व चिकित्सा प्रणाली की शरण में आना ही होगा।
प्रजापति ब्रह्मा, जगपालक विष्णु तथा भगवान शंकर द्वारा भी कामधेनु की स्तुति की गायी गई है-
“त्वं माता सर्वदेवानां त्वं च यज्ञस्य कारणं। त्वं तीर्थं सर्व तीर्थानां नमस्तेदस्तु सदानधे”।।
हे पापरहिते तुम समस्त देवो की जननि हो। तुम यज्ञ की कारण रूपा हो। तुम समस्त तीर्थों का महातीर्थ हो, तुम्हे सदैव नमस्कार है।
जिस भारतवर्ष में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्रजी के पूर्वज प्रातः स्मरणीय महाराज दिलीप ने कुल गुरु महर्षि वशिष्ठ की नंदिनी की रक्षा के लिए सिंह को अपना शरीर अर्पण कर दिया परन्तु जीते-जी उनकी हत्या न होने दी तथा जहां पांडव शिरोमणि पार्थ अर्जुन ने गाय के लिए द्वादश वर्षों तक वनवास की कठोर यातना स्वीकार की, स्वाधीनता के 67 वर्ष पश्चात स्वतंत्र भारत में गोवध सबसे बड़ा कलंक है।
– कुमार परिमल