रोने’ और ‘हँसने’ से अर्थ क्या है? समझेंगे थोड़ा। एक ही बल है- राम का बल, आत्मबल, परम का बल, पूर्ण का बल, स्रोत का बल। मन जब रो रहा है, तब मन कह रहा है कि वो परम है ही नहीं। ये मन की धारणा है। मन जब रो रहा है तब मन की धारणा है कि वो परम है ही नहीं। अन्यथा रो कैसे सकता था? एक रोता हुआ मन बड़ा नास्तिक होता है। रोने का अर्थ ही है कि कुछ कम हो गया, कुछ खो गया और जिसके पास है, वो पूर्ण है, वो परम है। वो कैसे कह देगा कि कुछ खो गया, कुछ कमी आ गई, नुकसान हो गया? रोने का अर्थ ही यही है कि तुमने इधर-उधर की चीजों को बहुत महत्वपूर्ण मान रखा था। अब जब वो खो गईं हैं, तो तुम रोए पड़े हो। जो असली है, वो तो खो सकता नहीं। तो इस कारण जो असली के साथ रहेगा, उसको कभी रोने की स्थिति आएगी ही नहीं।
जो रोऊँ तो बल घटै –
रोने का अर्थ ही यही है कि जो असली बल था, तुम उससे दूर हो गये हो। वरना रोते कैसे? ध्यान दीजियेगा। रोने वाले मन की क्या धारणा है? परम है ही नहीं। अब आते हैं हँसने वाले मन पर। हँसने वाले मन की दूसरी धारणा है। हँसने वाले मन की धारणा है कि परम कोई वस्तु है जो मुझ से बाहर है और जिसे प्राप्त किया जा सकता है और मैंने उसे प्राप्त कर लिया है, अब मैं हँस रहा हूं। घूम-फिर कर बात ये वही कह रहा है जो रोता हुआ मन कह रहा है, पर कहने में अभी भी अंतर है।
हँसता हुआ मन कह रहा है, ‘परम’ को पा लिया है। परम क्या है ? किसी का जिस्म परम है? बाज़ार में बिकता सामान परम है? समाज से मिली इज़्ज़त परम है? अपने लक्ष्यों को पा लेना परम है? रुपया परम है? और मैंने इसको पा लिया और पा लिया तो बड़ी हँसी आ रही है, बड़ा अद्भुत सा लग रहा है! रोने वाला मन कह रहा है, परम है ही नहीं। हँसने वाला मन कह रहा है, वस्तु ही कोई परम है, और दोनों को सिर्फ भरम है।
जो रोऊँ तो बल घटै –
बल का घटना लाज़मी है क्योंकि सब कुछ तुम्हारी धारणाओं पर ही तो है। वो तो सदा ही उपलब्ध है। तुम उसको धारण करते हो या नहीं, ये तुम पर है। तुमने यदि धारणा ही बना रखी है कि सत्य जैसा, कुछ होता ही नहीं, मात्रा संसार ही सब कुछ है, तो अब कहां से पाओगे बल? अब अगर जिंदगी डरी-डरी और कमजोर बीते, तो इसमें ताज्जुब क्या है? रोते रहोगे, शिकायतें करते रहोगे, ताकत नहीं रहेगी, क्योंकि जो भी ताकत होती है, वो तुम्हारी तो होती नहीं है। वो तो उसी की होती है। उसकी ताकत तुम्हें उपलब्ध होगी ही नहीं, जब कह दोगे कि वही नहीं है। वही है ताकत का स्रोत, और तुमने उसके ही होने से, इंकार कर दिया, तो अब तुम बलहीन ही तो रहोगे ना?
जो रोऊँ तो बल घटै –
तुम रोये नहीं कि तुम नास्तिक हो गये। और नास्तिक के पास बल कहाँ से आएगा?
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हँसो तो राम रिसाइ –
किस खुशी में हँसते हो? इसी खुशी में हँसते हो ना कुछ मिल गया? ‘कुछ मिल गया’, कहने का अर्थ ही यही है कि वो पहले से ही मिला हुआ नहीं था। ये भी घोर नास्तिकता है। रोना जितनी बड़ी बेहूदगी है, हँसना उतना ही बड़ा पागलपन। क्योंकि हँसने का अर्थ ही है कि मन को उसकी इच्छित वस्तु मिली, तभी तो हँसता है मन। मन ने कुछ वस्तुओं को ही परम का पर्याय मान लिया। पर्याय ही नहीं, विकल्प मान लिया। भूल में मत रहिएगा, ये पहले भी कहा है, दोहरा रहा हूं- हँसने में कोई बड़ी बात नहीं है।
हँसना कुछ विशेष नहीं है, और उसमें कोई गुणवत्ता नहीं है। जिन्होंने जाना है, उन्होंने साफ-साफ देखा है कि एक ही द्वैत के दो सिरे हैं रोना और हँसना। पर चूंकि हम प्लेजर सीकिंग लोग हैं, इसलिये हमने हँसने को बड़ी उपलब्धि मान रखा है, और हम बार-बार कहते हैं, ‘सदा हँसते रहो’। कोई रो रहा होगा, तो हम उससे पूछेंगे, ‘क्या हो गया, क्या बीमारी है?’ और अगर कोई अकारण ही, व्यर्थ ही हँसता रहता हो, तो हम उससे पूछते ही नहीं की क्या बीमारी है। क्यों हँसे जा रहे हो? हँसना उतनी ही बड़ी बीमारी है जितना बड़ा रोना।
जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ।
जितना हँसोगे, राम उतना दूर होगा तुमसे। हँसी को बड़ा मूल्यवान मत मान लीजियेगा। जब मैं कह रहा हूं कि हँसी में मूल्य नहीं है, तो इसका अर्थ ये नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि रोइये। ना हँसना है ना रोना है, शांत होना है। हँसी भी एक तनाव है। ठीक उतना ही बड़ा तनाव, जितना बड़ा रोना। हँसी उतनी ही बड़ी बीमारी है, जितना बड़ा रोना। हर द्वैत के साथ यही है। उसके एक सिरे पर बल घटेगा, और दूसरे सिरे पर, राम रिसाएगा और जो इन दो सिरों के बीच में फंसा है, उसकी वही स्थिति रहेगी कि
ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ।
बाहर-बाहर से वो हो सकता है कि साबुत दिखाई दे पर उसका दिल छलनी हो चुका होगा, जैसे की काठ, जिसे घुन लग गया हो। कभी घुन खाई लकड़ी देखी है? बाहर-बाहर से ऐसा लगेगा ठीक है, पर ज्यों ही उस पर जरा जोर पड़ेगा, ज्यों ही स्थितियां उसकी जरा परीक्षा लेंगी, वो चरमरा कर टूट पड़ती है। उसमें कोई दम नहीं होता। उसकी अपनी कोई ताकत नहीं होती। जो लोग सिर्फ सतह देख पाते हैं, जो लोग सिर्फ स्थूल को देख पाते हैं, वो तो घुन खाई लकड़ी को भी स्वस्थ ही समझेंगे। वो तो यही कहेंगे कि सब ठीक है, सामान्य है, बढ़िया तो है। ‘चिकना चेहरा है, दो आंखे हैं, एक नाक है, क्या दिक्कत है?’ उन्हें ये दिखाई ही नहीं देगा कि इसके दिल में, सुराख ही सुराख हैं, जैसे घुन खाई लकड़ी।
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यही हालत तो है हम सब की, ‘घुन खाई लकड़ी’, छेद ही छेद हैं, छेद ही छेद। हिस्से ही हिस्से हैं और घुन लगा हुआ है, और वो खाए जा रहा है, चाटे जा रहा है। और वो बड़ा चालाक घुन है, अंदर-अंदर चाटता है, बाहर से कुछ पता ही नहीं चलता। चेहरे पर एक मुँहासा हो जाए, तो दिखाई तो देता है। यहां तो मन टुकड़े-टुकडे़ हुआ पड़ा है, पर दिखाई नहीं देता। बीमारी आंखों से प्रकट नहीं होती।
एक ही इलाज है, ना इधर के रहो, ना उधर के रहो। इसी द्वैत से उठ जाने को बुद्ध ने, ‘मध्यम मार्ग’ कहा है। ‘मध्यम मार्ग’ का मतलब ये नहीं है कि इसके और उसके बीच में आ कर बैठ गए। ‘मध्यम मार्ग’ का अर्थ यही है कि ‘ना हँसना है, ना रोना है’। पागल मत बन जाइएगा कि बुद्ध कह रहें हैं कि बीच की किसी हालत में रहना है, ‘मध्यम मार्ग है भाई’! या थोड़े समय के लिये हँसना है और थोड़े समय के लिये रोना है।
मध्यम मार्ग का अर्थ है, द्वैत के ना इस सिरे पर हैं, ना उस सिरे पर हैं। ना इस ध्रुव पर हैं, ना उस ध्रुव पर हैं। हम किसी और आयाम में हैं। हम उस तल पर हैं ही नहीं जिस तल पर हँसा जाता है या रोया जाता है। हम किसी और तल पर पहुँच गए हैं।
ना खोने का अफसोस मनाइए, ना पाने का जश्न क्योंकि ना कुछ खोने के लिये है, ना कुछ पाने के लिये है। खोने का अफसोस भी पागलपन है, और पाने का जश्न भी बेहूदगी। और आदमी का जीवन इन्हीं दो चीजों में बीतता है। सारी कोशिश ही यही हैं। या तो कुछ खो ना जाए, या फिर कुछ पा लूं। दो ही तो चेष्टाएं होती हैं हमारी- दुःख से बचो, सुख को पाओ – इन दो के अलावा, हमारी कोई तीसरी चेष्टा नहीं होती है। और ये दोनों ही चेष्टाएं मन की इसी धारणा से निकलती हैं कि वो परम, या तो है नहीं, या वो कोई वस्तु है जिसे मैं हासिल कर सकता हूं।
– प्रशांत त्रिपाठी