हम अक्सर यही सुनते हैं कि ज्ञान एक प्रकार का वह तत्व है जो प्रमुख रूप से सिर्फ और सिर्फ अनुभव के आधार पर ही प्राप्त होता है। फिर चाहे वह धर्म और अध्यात्म को लेकर हो या किसी वह किसी भी कर्म से जुड़ा हो। कुछ लोगों ने ज्ञान को दर्शन के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार से परिभाषित किया है।
भारतीय आध्यात्मिक दर्शन का मानना है कि ज्ञान वह अनुभूति है जो मनुष्य की आत्मा और बुद्धि को उन्नत करता है तथा न सिर्फ उसके स्वयं के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है बल्कि उसके संपर्क में रहने वाले कुछ अन्य लोगों को भी इसका लाभ पहुंचाता है। और यदि कुछ अन्य लोगों को भी इसका लाभ पहुंचता है तो वही ज्ञान है और उसका महत्व भी यही होना चाहिए।
भारतीय दर्शनशास्त्र के अनुसार- किसी भी व्यक्ति के सम्पर्क में आने वाली कोई भी ऐसी वस्तु जो कि जीवन को चलाने के लिए उपयोग में आती है उसके आविष्कार से लेकर उसके प्रति जागरूकता तथा साझेदारी ही ज्ञान कहलाती है।
ज्ञान को लेकर कुछ प्रमुख समाजशास्त्रियों का मानना है कि ज्ञान केवल वही वास्तविक हो सकता है जो वास्तव में हमारी प्रकृति में समाहित हो जाए और स्वयं को पर्यावरण तथा प्रकृति की अपनी आवश्यकताओं के अनुकूल बनाने में समर्थ हो सके और अपने आदर्शों तथा इच्छाओं को उस स्थिति के अनुकूल बना ले जिसमें की हम रहते हैं।
हालांकि, तमाम मनोविज्ञानियों और समाजशास्त्रिायों ने अपने-अपने विचारों के आधार पर यह साबित करने का प्रयास किया है कि ज्ञान मात्रा अनुभव के आधार पर ही प्राप्त नहीं होता है, बल्कि सिद्धांतों और परिकल्पनाओं के आधार पर भी प्राप्त किया जा सकता है। इसमें अगर हम कुछ पश्चिमी लोगों के विचारों को देखें तो, प्लेटो के अनुसार- “विचारों की दैवीय व्यवस्था और आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है।”
यह सच है कि दैवीय व्यवस्था और आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को जानने के लिए भी अनुभव की आवश्यकता होती है। लेकिन, पश्चिमी अवधारणा को देखें तो वहां आत्मा और परमात्मा का स्वरूप व्यक्तिवाद से ऊपर नहीं है। ऐसे में प्लेटो के इस ज्ञान से तो यही सत्यापित होता है कि वे हिंदू दर्शनशास्त्र से प्रभावित रहे होंगे।
हालांकि, एक पश्चिमी वक्ता स्पेन्सर मानना है कि- “केवल वस्तु जगत का ज्ञान ही सत्य ज्ञान है, जबकि आत्मा परमात्मा संबंधी ज्ञान कोरी कल्पना है।” यहां स्पेन्सर के इस ज्ञान से साबित होता है कि वे हिंदू दर्शनशास्त्र से बिल्कुल भी प्रभावित नहीं रहे होंगे, क्योंकि पश्चिमी अवधारणा में व्यक्तिवाद की अवधारणा सबसे ऊपर है न कि आत्मा और परमात्मा।
ज्ञान के विषय में भारतीय दर्शनशास्त्र को आधार माने तो ज्ञान की सीमाएं निशित नहीं हैं। जबकि पश्चिमी मान्यताओं में ज्ञान को एक एक पुस्तक और धर्म में बांध कर रख दिया गया है। तभी तो हिंदू शास्त्र कहते हैं कि ज्ञान संपूर्ण मानव जीवन का सार है, विश्व का नेत्र है। अतः ज्ञान से बढ़कर कोई सुख नहीं। जबकि पश्चिमी अवधारणा में ज्ञान मात्र व्यक्तिवाद तक ही नहीं बल्कि आवश्यकताओं को अनुकूल बनाने में सहयोगी माना गया है।
– अमृती देवी