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आपको क्या पसंद है- पत्रकारिता की काॅमेडी या मानसिक रोग?

admin 6 May 2021
Media in India
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सोशल मीडिया के क्रांतिकारी दौर के बावजूद भी हमारे देश के उन तमाम दैनिक अखबारों और टेलीविजन न्यूज चैनलों को वही महत्व मिल रहा है जिसके वे हकदार हैं। लेकिन सोशल मीडिया के इसी दौर में अगर कोई आंखो देखा समाचार आपको या हमको मात्र पांच से दस मिनट में मिल जाये और वह भी ऐसे स्थान पर जब आप अपनी टाॅयलेट की सीट पर बैठे हों या फिर आप अपनी गाड़ी चला रहे हों तो ये कोई आश्चर्य वाली बात नहीं होनी चाहिए।

आश्चर्य तो इस बात को होना चाहिए कि सोशल मीडिया के इतना तेज गति से सटीक और सच के दम पर चलने के बावजूद भी अगर कोई उस पर विश्वास ना करें तो या तो वह व्यक्ति या तो काॅमेडी वाली फिल्में ज्यादा देखना पसंद करता है या फिर वह सैक्युलर विचारधारा से बंधा कोई रोगी है।

दरअसल बात उन दिनों की है जब सन 2008 में दिल्ली से नई दुनिया का संस्करण प्रारंभ हुआ था। मैं भी ‘नई दुनिया’ के उसी दिल्ली संस्करण में कार्यरत था। मेरे साथ कई ऐसे सहकमी थे जो पत्रकारिता की काॅमेडी करते थे। हर खबर में उन्हें काॅमेडी वाला ऐंगल ही दिखता था। फिर चाहे उस समय की कुछ प्रमुख खबरों में मनमोहन सिंह का दौबारा प्रधानमंत्री बनना हो या राहुल गांधी के बदन में खुजली होना। चाहे अन्ना हजारे का आंदोलन हो या फिर सन 2013 में ड्रेगन वाले देश के द्वारा भारत की भूमि पर करीब 19 किमी भीतर तक घूस आना।

लेकिन वही पत्रकार साथी आज जब मोदी के युग में अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं तो अचानक उन्हें काॅमेडी की बजाय ट्रेजडी के एंगल दिखने लगे हैं। ठीक है कि नई दुनिया के उन पत्रकार साथियों में से अधिकतर से अब ना तो मुलाकात होती है और ना ही बातचीत ही हो पाती है। लेकिन, उनके विचारों को मैं कुछ टेलीविजन चैनलों के माध्यम से देख-सुन लेता हूं और अखबारों के पन्नों पर पढ़ भी लेता हूं, और उसी के आधार पर कह भी सकता हूं कि उनमें से मात्र दो-चार को छोड़ दें तो बाकी सभी पत्रकार साथी अब की बजाय तब ज्यादा खुश हुआ करते थे।

कारण यही था कि उस दौर में उन्हें न सिर्फ टीआरपी ज्यादा मिलती थी बल्कि धन-दौलत और सरकारी सुविधाएं भी बहुत ज्यादा मिलती रहती थीं। लेकिन आज का मोदी युग है कि न तो सुविधाएं मिल पा रही हैं और ना ही टीआरपी। अगर कुछ मिलता भी है तो उजागर कना ही होगा कि आपके पास इतना अथाह पैसा कहां से आ रहा है। दिखाना ही होगा कि जब आपकी इनकम 4 से 5 लाख की गाड़ी खरीने की नहीं है तो फिर 80 से 90 लाख का मकान कहा से खरीद लिया।

दरअसल मोदी युग की बजाय इसे हम सोशल मीडिया का क्रांतिकारी युग कहें तो ज्यादा अच्छा होगा। क्योंकि सोशल मीडिया के इस युग में ही मोदी जी को भी प्रधानमंत्री पद आसानी से मिल गया। वर्ना तो शायद ऐसे बहुत सारे मोेदी और भी होंगे।

हालांकि, मोदी जी की काबिलीयत पर मैं कोई दावा नहीं करता, लेकिन ये भी सच है कि या तो सोशल मीडिया के इस दौर में मोदी जी को अवसर मिला या फिर मोदी जी के इस युग में सोशल मीडिया को अवसर मिला। तभी तो आज हमको हर प्रकार का आंखो देखा समाचार मात्र पांच से दस मिनट में मिल जाया करता है। फिर चाहे ये समाचार देसी हो या विदेशी।

लेकिन, हां इतना जरूर है कि इन समाचारों में से कौन सा फेक समाचार यानी कि झूठा समाचार है और कौन सा सही ये फैसला करना या इस पर विश्वास करना आपके हाथ में है।

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