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फादर कामिल बुल्के: हिंदी को भारत में सम्मान दिलाने वाला एक मिशनरी

admin 6 July 2022
Father Kamil Bulke
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लेखक: शाहजहांपुर के डॉ. स्वप्निल यादव आधृत प्रकाशन, भोपाल के द्वारा साहित्य सम्मान से सम्मानित

डॉ. स्वप्निल यादव || बात पांच साल पहले की है, जब हिंदी कवि स्व. केदारनाथ सिंह पराड़कर स्मृति भवन में अयोध्या शोध संस्थान और सोसाइटी फार मीडिया एण्ड सोशल डेवलपमेण्ट के संयुक्त तत्वाववधान में फादर कामिल बुल्के (Father Kamil Bulke) जयन्ती समारोह में विचार व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने कहा था कि मेरे जीवन की कसक कोई पूछे तो कई सारी चीजों में एक है फादर कामिल बुल्के से न मिल पाने, न देख पाने की कसक। मैं उन दिनों बनारस में था जब वे इलाहाबाद में शोध कर रहे थे। धर्मवीर भारती, रघुवंश से अक्सर उनकी चर्चा सुनता था लेकिन उनसे न मिल पाने का सुयोग घटित न होना था तो न हुआ। वे तुलसी के हनुमान थे। हनुमान ने जो काम राम के लिए किया है, तुलसीदास और रामकथा के लिए वही काम फादर कामिल बुल्के ने किया।

लेकिन मेरी नज़र में फादर कामिल बुल्के (Father Kamil Bulke) ने हिंदी भाषा के लिए जो सबसे बड़ा काम भारत में किया वो ऐसा कार्य था जो किसी भारतीय हिंदी प्रेमी को करना चाहिए था, लेकिन वो काम फादर कामिल बुल्के ने किया और वो काम था हिंदी भाषा में शोध प्रस्तुत करना ।फादर कामिल बुल्के ने 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी पीएचडी के लिए शोध प्रबंध हिंदी में ही लिखा जबकि इससे पहले देश के सभी विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं में शोध प्रबंध लिखने का नियम नहीं था। हिंदी भाषा के लिए एक विदेशी के इस प्रेम को देखकर लोग हैरान थे और अंततः यह हुआ कि विश्वविद्यालय को अपने नियम बदलने पड़े. इसके बाद ही देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में शोधकर्ताओं को अपनी भाषा में थीसिस जमा करने की अनुमति मिलने लगी। फादर कामिल बुल्के (Father Kamil Bulke) ने कहीं लिखा कि “जब वे भारत पहुंचे तो उन्हें यह देखकर दुख और आश्चर्य हुआ कि पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं से अनजान थे। वे अंग्रेजी बोलना गर्व की बात समझते थे। तब उन्होंने निश्चय किया कि वे यहां की देशज भाषा की महत्ता को सिद्ध करेंगे।”

कामिल बुल्के (Father Kamil Bulke) का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट के एक गांव रम्सकपेल में एक सितंबर 1909 में हुआ था। इनके पिता का नाम अडोल्फ अौर माता का नाम मारिया बुल्के था। अभाव और संघर्ष भरे अपने बचपन के दिन गुजारने के बाद बुल्के ने कई स्थानों पर पढ़ाई जारी रखी। बुल्के ने पहले ल्यूवेन विवि से सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी की डिग्री हासिल की। 1930 में ये एक जेसुइट बन गये. 1932 में नीदरलैंड के बलकनवर्ग में अपना दार्शनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद 1934 में भारत के लिए निकले। नवंबर 1936 में मुंबई होते हुए दार्जिलिंग पहुंचे।इसके बाद झारखंड में गुमला में पांच साल तक गणित पढ़ाया। वहीं पर हिंदी, ब्रजभाषा व अवधी सीखी। सन् 1938 में सीतागढ़, हजारीबाग में पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत सीखी। सन् 1940 में प्रयाग से विशारद की परीक्षा पास की और फिर सन् 1942-44 में उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए किया। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सन् 1949 में ‘रामकथा’ पर डी.फिल. किया। बाद में तुलसी दास के रामचरित मानस का गहन अध्ययन कर, सन् 1950 में उन्होंने ‘राम कथा की उत्पत्ति और विकास’ पर पी.एच.डी की। उनकी यह थीसिस भारत सहित पूरे विश्व में प्रकाशित हुई जिसके बाद सारी दुनिया बुल्के को जानने लगी।जिसमें पाँच अध्यायों में वैदिक साहित्य और रामकथा, वाल्मीकिकृत रामायण, महाभारत की रामकथा, जैन रामकथा तथा बौद्ध रामकथा संबंधी सामग्री की पूर्ण परीक्षा की गई है। उसी वर्ष ही वे ‘बिहार राष्ट्र भाषा परिषद्’ के कार्य कारिणी सभा के सदस्य नियुक्त किये गए।

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बुल्के (Kamil Bulke) अक्सर धार्मिक ग्रंथों का गहराई से अध्ययन के लिए दार्जीलिंग में रुकते थे। उनके पास दर्शन का गहरा ज्ञान तो था, लेकिन वे भारतीय दर्शन और साहित्य का व्यवस्थित अध्ययन करना चाहते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास की रामचरित मानस पढ़ी। रामचरित मानस ने उन्हें बहुत अधिक प्रभावित किया। उन्होंने इसका गहराई से अध्ययन किया। उन्हें इसमें नैतिक और व्यावहारिक बातों का चित्ताकर्षक समन्वय देखने को मिला। 1968 में उनका अंग्रेजी -हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो अब तक प्रकाशित कोशों में सबसे ज्यादा प्रामाणिक माना जाता है। मॉरिस मेटरलिंक के एक प्रसिद्ध नाटक ‘द ब्लू बर्ड’ का बुल्के ने नील पंछी नाम से अनुवाद किया। इसके अलावे उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद किया। मुक्तिदाता और नया विधान भी उनकी प्रमुख रचनाएं हैं ।

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बुल्के (Father Kamil Bulke) सेंट जेवियर महाविद्यालय, राँची के हिन्दी और संस्कृत विभाग के प्रमुख बने, लेकिन जल्दी ही श्रवण संबंधी परेशानी के कारण उन्हें पढ़ाने के कार्य से दूर होना पड़ा। उन्होंने शोध पर अपना ध्यान केंद्रित किया। भारत सरकार ने उन्हें बड़े ही आदर के साथ 1951 में भारत की नागरिकता प्रदान की। भारत की नागरिकता पाने के बाद वे खुद को ‘बिहारी’ कहकर बुलाना पसंद करते थे। भारत सरकार ने हिन्दी में उनके योगदान को देखते हुए 1974 में उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। उनकी मृत्यु गैंगरीन के कारण 17 अगस्त 1982 को दिल्ली में हुई।

फादर बुल्के (Father Kamil Bulke) लिखते हैं कि “जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूं, तो मुझे लगता है ईसा, हिन्दी और तुलसीदास- ये वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए इन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं है, बल्कि गहरा संबंध है… जहां तक विद्या तथा आस्था के पारस्परिक संबंध का प्रश्न है, तो मैं उन तीनों में कोई विरोध नहीं पाता। मैं तो समझता हूं कि भौतिकतावाद, मानव जीवन की समस्या का हल करने में असमर्थ है। मैं यह भी मानता हूं कि ‘धार्मिक विश्वास’ तर्क-वितर्क का विषय नहीं है।”

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