कोई भी राष्ट्र अपने अतीत की घटनाओं, दुर्घटनाओं, गलतियों या उपलब्धियों को ध्यान में रखकर ही अपने वर्तमान को सही रूप से संयोजित करता है और भविष्य की सुखद अनुभूति के लिए प्रयास करता है, ताकि उसका हर प्रकार का भविष्य सुरक्षित हो सके। इसमें सबसे बड़ी शर्त तो यही होती है कि अतीत हमेशा “सत्य घटनाओं” पर आधारित होना चाहिए, जो की दुर्भाग्य से भारत के साथ बिल्कुल भी नहीं दिख रहा है।
क्योंकि भारत के साथ राजनीतिक स्तर पर ऐसी सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न हो रही है और यही कारण है कि ऐसा बिलकुल भी नहीं हो पा रहा है जिससे हम यह कह सके कि हमारे देश का भविष्य भी सुरक्षित हो रहा है।
असल में तो भारत के साथ समस्या ये आ रही है कि इसका पक्षपातपूर्ण व अर्ध सत्य पर आधारित इतिहास लेखन, भावी पीढ़ियों को भ्रमित व गुमराह ही नहीं कर रहा है बल्कि उनको स्वयं के विरुद्ध षड्यंत्रकारी भी बना रहा है। ऐसे में भारत के मूल-धर्म और मूल-भूमि का क्या होने वाला है जरा सोचो।
समस्या ये आ रही है कि क्रूरतापूर्ण विदेशी और देशी मुस्लिम लुटेरों के उस करीब एक हजार वर्षों के इतिहास को, भारत का स्वर्ण युग कहना और फिर अंग्रेजों के दौर में शिक्षा के तथाकथित उदय को भारत के भविष्य से जोड़ना एक ऐसी ही भयानक भूल है जिसे हम सन १९४७ से अबतक झेल रहे हैं और संभव है की आगे भी जब तक हम फिर से गुलाम न बन जाएँ या फिर हम सब हिन्दू भी अन्यधर्मी न बन जाएँ तब तक तो इसको झेलना ही पडेगा।
इसी प्रकार कुछ आधुनिक वेतनभोगी इतिहासकारों द्वारा यह कह देना कि वर्तमान भारतीय मुस्लिमों के पूर्वजों ने, अपने आप, अपनी इच्छा से, इस्लाम की अच्छाइयाँ देखकर ही इस्लाम धर्म कबूल किया था, यह लेखन और इसका सत्य, हत्या व राष्ट्र की आत्महत्या के समान है। अर्थात यदि कोई एक या दो व्यक्ति आत्महत्या करते हैं तो उसमें राष्ट्र या समाज शामिल नहीं होता लेकिन जब सम्पूर्ण समाज या सम्पूर्ण राष्ट्र और उसकी मूल आत्मा और उसके मूल धर्म को ही सामूहिक रूप से आत्महत्या के लिए विवश किया जाता है तो यह उसके विरुद्ध एक षड्यंत्र ही कहलाता है।
हालांकि, ये भी सच ही कि कभी-कभी कुछ वेतनभोगी इतिहासकारों ने भी कभी–कभी कुछ अच्छा लिखने का प्रयास किया है जिसे हमें जान लेना चाहिए। जैसे की ये विदेशी लुटेरे भारतीयों को क्या समझते थे, और उनसे क्या चाहते थे, यह महमूद गजनवी के वेतन भोगी इतिहासकार अलबरूनी के इस वक्तव्य से साफ हो जाता है- “महमूद गजनवी ने सारे भारत देश की प्रगति का सत्यानाश कर दिया था। नानी की कहानियों की तरह उसने ऐसे-ऐसे चमत्कार दिखाये कि भारतीय चूर-चूर होकर धूल में मिल गये।” इसके अलावा भारतीयों के प्रति गज़नवी की घृणा के कारणों को लेकर बर्लिन के विद्वान् स्वर्गीय डॉ. एडवर्ड साचू ने भी कुछ इस प्रकार लिखा है कि- “महमूद के लिये सारे भारतीय काफिर हैं, वे सभी जहन्नुम भेजने के योग्य है क्योंकि वे लुटने से इन्कार करते हैं।
अब बात करते हैं एक ऐसे वर्तमान इतिहासकार की जिन्हें अधिकतर लोग बहुत अच्छे से जानते ही होंगे। ये हैं अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के प्रो. हबीब। हबीब ने लिखा है कि- “महमूद भारत में किसी भी मुस्लिम राजा से अलग नहीं था। इससे साफ है कि भारतीयों की पसीने की कमाई लूटने व भारतीय धरती पर होने वाले इन सभी मुस्लिम राजाओं ने हिन्दुओं को इस्लामी जहन्नुम तक पहुँचाने में कोई कसर नहीं रखी थी।
ये तीन उदाहरण ऐसे हैं जो वर्तमान भारतीय इतिहासकारों के लिए काफी होने चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य है कि हमारे इतिहासकार ही नही बल्कि वर्तमान राजनीतिक चरित्र भी हमारे ही विरुद्ध षड्यंत्रकारी युद्ध लड़ रहे हैं। ये सच है की यदि स्वदेशी शिक्षा व्यवस्था और मूल धर्म को आधार मानकर शासन किया जाय तो इतिहास स्वयं ही सुधार जाएगा और हमारा भविष्य भी संवर जाएगा। लेकिन हमारी राजनीति का गिरता स्तर और राजनीतिज्ञों की मानसिकता मुगलकाल को फिर से बहाल करने के लिए अमादा दिख रहा है, फिर चाहे वह आज का हो या सन 1947 से चला आ रहा दौर ही क्यों न हो।
– अजय चौहान