अजय सिंह चौहान || हरिवंश पुराण में लिखा है कि, द्वारिका नगरी के समुद्र में (History & Mystery of Dwarika in Arabian Sea in Hindi) समा जाने से पहले ही श्रीकृष्ण ने यह स्थान छोड़ दिया था। इसके कुछ समय बाद वे इस मृत्यु लोक को भी छोड़ कर अपने परम धाम वैकुण्ठ चले गये थे। यह वही द्वारिका नगरी है जो सिंधु सागर यानी आज जिसे हम अरब सागर के नाम से जानते हैं उसके तट पर तथा गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र में स्थित है।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार, वर्तमान द्वारिका नगरी और इसका यह द्वारिकाधीश मंदिर अपने उसी मूल स्थान पर आज भी है जहां श्रीकृष्ण ने स्वयं बसाया था और यह मंदिर भी उसी स्थान पर है जहां उनका शयन कक्षा हुआ करता था। जबकि, पौराणिक तथ्य और कुछ इतिहासकार कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने जिस द्वारिका नगरी को बसाया था वह मूल द्वारिका नगरी तो श्रीकृष्ण के जाने के बाद ही पूर्ण रूप से सिंधु सागर में जलमग्न हो गई थी, (History & Mystery of Dwarika in Arabian Sea in Hindi) इसलिए उसके प्रतीक के तौर पर वर्तमान द्वारिका नगरी को उनके प्रपौत्र वज्रनाभ ने स्वयं अपने सामने सिंधु सागर के उसी तट पर पुनर्निमाण करवाया था।
यदि हम उन्हीं पौराणिक साक्ष्य और ऐतिहासिक प्रमाणों पर गौर करें तो हमें स्पष्ट रूप से पता चलता है कि श्रीद्वारिकाधीश मंदिर और आज की द्वारिका नगरी से करीब 2 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा की ओर जो बेट द्वारिका नगरी है यही श्रीकृष्ण की असली द्वारिका नगरी हुआ करती थी, और यही नगरी सिंधू सागर में समा चुकी थी, और उसके बाद फिर से वही स्थान उभर कर पानी से बाहर आ चुका है। जबकि, उस प्राचीन नगरी (History & Mystery of Dwarika in Arabian Sea in Hindi) के अवशेष उस स्थान से बह कर गहरे सागर में समा चुके हैं।
कैलाश मन्दिर के रहस्यों को भी सामने लाये सरकार
लेकिन, यहां बेट द्वारिका द्वीप पर आज भी ऐसे कई पुरातात्विक प्रमाण मौजुद हैं जो स्पष्ट रूप से बताते हैं कि उनका संबंध प्राचीन द्वारिका नगरी से ही है, लेकिन वे इतने पर्याप्त नहीं हैं। इसके अलावा, उस प्राचीन द्वारिका (History & Mystery of Dwarika in Arabian Sea in Hindi) की मूल आबादी को लेकर भी पुरातत्वविदों का मत है कि यहां अब भी उसी आबादी के वंशज मौजूद हैं जो श्रीकृष्ण के समय की द्वारिका नगरी में रहते थे।
पुरातत्वविदों को यहां से ऐसे अन्य कई प्रमाण भी मिले हैं जो बताते हैं कि उस दौर में यहां एक संपन्न बंदरगाह भी हुआ करता था। क्योंकि यहां पाए गए जहाजों के उसी दौर के एंकर या लंगर के अवशेषों के परीक्षणों से इस बात का भी पता चलता है कि यहां का बंदरगाह केवल श्रीकृष्ण के दौर में ही नहीं बल्कि श्रीकृष्ण से भी करीब दस हजार वर्ष पहले तक हुआ करता था।
पुरातत्व विज्ञानियों ने उस बंदरगाह के नष्ट होने की समयावधि आज से करीब पांच हजार वर्ष पहले की ही बताई है। इससे तो यही स्पष्ट होता है कि उस प्राचीन द्वारिका के साथ ग्रीस और फारस जैसे कई देशों से समुद्री व्यापार करने के लिए यहां एक संपन्न बंदरगाह हुआ करता था।
पुराणों में उल्लेख है कि श्रीकृष्ण ने द्वारिका नगरी (History & Mystery of Dwarika in Arabian Sea in Hindi) बसाने के लिए सिंधु सागर से प्रार्थना की थी कि उन्हें एक नई नगरी बसाने के लिए 12 योजन यानी लगभग 100 वर्ग किलोमीटर की भूमि की आवश्यकता है। इसलिए यहां ये नहीं कहा जा सकता है कि बेट ही असली द्वारिका नगरी रहा होगा। क्योंकि बेट द्वारिका तो समुद्र तट से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर ही है और इसका आकार भी बहुत कम यानी चैड़ाई में यह करीब दो किलोमीटर और लंबाई में करीब 8 किलोमीटर क्षेत्रफल ही है। जबकि श्रीकृष्ण द्वारा बसाई गई द्वारिका नगरी तो सागर तट से बहुत अधिक दूरी पर थी और उसका क्षेत्रफल में भी बेट द्वारिका से अधिक थी।
वर्ष 1963 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा द्वारिका में एक सर्वेक्षण कराया गया और समुद्र के किनारे के दो अलग-अलग स्थानों की भूमि पर की गई जांच से पौराणिक काल की अनेकों कलाकृतियाँ, मिट्टी के बर्तन, जलमग्न बस्तियों के अवशेष, बड़े पत्थरों से निर्मित घाट और तीन छेद वाले त्रिकोणीय पत्थर से बनाये गये जहाजों के लंगर आदि भी प्राप्त हुए। जलमग्न हुई बस्तियों के जो अवशेष पाये गये उनकी बाहरी और आंतरिक दीवारों के साथ किले के बुर्ज भी पाये गये।
दरअसल, वर्ष 1960 के दशक के शुरूआती वर्षों में द्वारिका शहर में एक इमारत खड़ी करने के लिए उसकी नींव खोदी जा रही थी। उस खुदाई के दौरान वहां प्राचीन मंदिर के अवशेष मिले। उन अवशेषों की जांच करने के लिए विश्व प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता डाॅक्टर एस. आर. राव को बुलाया गया। डाॅक्टर राव ने उस स्थान की खुदाई शुरू करवाई तो पता चला कि वह करीब साढ़े तीन से चार हजार वर्ष पुराना एक सात मंजिला प्राचीन मंदिर था। इसके बाद डाॅक्टर राव के मन में उस क्षेत्र के इतिहास को जानने की इच्छा जगी, और उन्होंने सबसे पहले द्वारिका नगरी से जुड़ी उन पौराणिक घटनाओं के आधार पर पश्चिमी भारत के समुद्री किनारों पर उस प्राचीन शहर को तलाशने की शुरूआत कर दी थी। लेकिन, उसके बाद क्या हुआ यह भी एक रहस्य बन चुका है।
जबकि इससे पहले तक हमारे सामने हर बार यही एक समस्या रहती थी कि क्या सचमुच वह प्राचीन द्वारिका नगरी समुद्र में समाई भी थी या यह सिर्फ एक कल्पना मात्र ही थी? आज हमारे सामने यह भी स्पष्ट हो चुका है कि समुद्र का वह कौन सा भाग है जहां उस प्राचीन द्वारिका को खोजा जा सकता है। क्योंकि, जो साक्ष्य समुद्र की गहराईयों से प्राप्त हुए हैं ठीक उसी प्रकार के कई साक्ष्य आधुनिक द्वारिका और इसके उत्तर में स्थित बेट द्वारिका द्वीप पर भी पिछले कुछ वर्षों से स्पष्ट रूप से प्राप्त होते जा रहे हैं।
बेट द्वारिका द्वीप के तट से लगे समुद्र के किनारे से, जैसे-जैसे समुद्र की अथाह जल की ओर आगे बढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे समुद्र की करीब 30 मीटर की गहराई में लगभग 100 किलोमीटर तक का वह क्षेत्र है जिसमें प्राचीन द्वारिका का विस्तार बताया जा रहा है।
पुरातत्वविदों को समुद्र के इसी भाग में कई प्रकार के साक्ष्य मिले हैं और पौराणिक तथ्यों में भी इसी क्षेत्र का उल्लेख है। इससे स्पष्ट होता है कि वर्तमान बेट द्वारिका भी उसी प्राचीन द्वारिका का एक हिस्सा रहा होगा, लेकिन, यह भाग डूबने से इसलिए बच गया, क्योंकि यह भाग तो यहां श्रीकृष्ण के आने पहले से ही मौजूद था। और क्योंकि, द्वारिका नगरी बसाने के लिए श्रीकृष्ण ने सिंधु सागर से जो भूमि प्राप्त की थी सिर्फ उतनी ही भूमि फिर से जल में समा गई।
अभी हाल ही के वर्षों में भारतीय और विदेशी पुरातत्वविदों ने मिलकर यहां बेट द्वारिका के द्वीप पर एक बार फिर से उन प्राचीन अवशेषों को खोजना प्रारंभ किया था, और उन्हें इसमें लगातार सफलता भी मिलती जा रही थी।
कई पुरातत्वविदों और वैज्ञानिकों को यहां इस बात पर भी आश्चर्य हुआ है कि यदि यहां कोई द्वीप रहा होता तो वह भी आज इतनी गहराई में नहीं होता, और समुद्र का जलस्तर भी पिछले पांच हजार वर्षों में 30 मीटर ऊपर तक नहीं आ पाया है। ऐसे में पांच हजार वर्ष प्राचीन किसी मानव बस्ती को समुद्र की इस गहराई में देख कर तो लगता है कि वह प्राचीन नगर यहां पानी पर तैरता हुआ ही बनाया गया होगा या फिर किसी चमत्कार का असर रहा होगा।
रुक्मिणी मंदिर का मुग़लकालीन इतिहास और आधुनिक काल की दुर्दशा
पुरातत्वविदों के अनुसार प्राचीन द्वारिका के ये अवशेष हमें समुद्र में उस स्थान पर प्राप्त हो रहे हैं जहां गोमती नदी और अरब सागर का संगम होता है उसके ठीक सामने और तट से करीब 20 किलोमीटर दूर महासागर की गहराईयों में। पुरातत्वविदों ने समुद्र के तल में जाकर उस प्राचीन द्वारिका के कई अवशेषों को साक्षात देखा और अपने कैमरों में भी कैद किया है। वहां से प्राप्त कई कलाकृतियों के बारे में उन्होंने मीडिया के सामने विस्तार से बताया था और मीडिया में खुब शुर्खियां भी बनी थी।
स्थानीय लोगों का कहना है कि आज हमारे पास पर्याप्त संसाधन और भारी मशीने भी हैं जिनके माध्यम से हम समुद्र की गहराइयों में दबी उस प्राचीन द्वारिका नगरी के कई महत्वपूर्ण रहस्यों और अवशेषों को साक्ष्य के तौर पर बाहर लाकर उसका सच बता सकते हैं, और हम स्वयं भी अपने अतित को जान सकते हैं। लेकिन, कुछ स्थानिय लोगों के आरोप हैं कि न जाने क्यों और कैसे उनके उस प्रयास को संभवतः सरकारों के दबाव के चलते रूकवा दिया और उन खबरों को भी मीडिया से दूर करने का प्रयास किया।
प्राचीन द्वारिका की खोज के लिए की गई खुदाई में डेक्कन काॅलेज, पुणे का बहुत बड़ा योगदान कहा जा सकता है, जबकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने भी वर्तमान संरचनाओं के नीचे मंदिरों के अवशेष होने का खुलासा किया था। इस हिसाब से आज हमें उस प्राचीन द्वारिका की स्थिति को खोजने में न तो बहुत अधिक माथापच्ची करनी है और न ही अधिक खर्च करना पड़ेगा।
हालांकि, कुछ पुरातत्वविदों का कहना है कि बेट द्वारिका द्वीप पर मिले प्राचीन दिवारों और निर्माण के साक्ष्य आज भी खड़े हैं। इसके अलावा, यही से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों के टूकड़े और अन्य प्रकार के प्राचीन सामानों को देख कर लगता है कि संभवतः यह द्वीप द्वारिका नगरी के यहां बसने से भी पहले के हो सकते हैं।