अजय चौहान || आज भले ही हमारा पड़ौसी देश चीन लाल रंग में, यानी कम्युनिष्ट विचारधारा में रंग कर भ्रष्ट और विचारहीन हो चुका है लेकिन, उस दौर के यानी उस प्राचीनकाल के चीन के बारे में तमाम इतिहास की पुस्तकों में पढ़ने को मिलता है कि उस दौर में यह पूरी तरह से केसरिया रंग में हुआ ‘‘हरिवर्ष’’ नामक देश हुआ करता था यानी एक हिन्दू राष्ट्र हुआ करता था।
करीब-करीब हर उन प्रसिद्ध इतिहासकारों ने जो भारत से बाहर से हमारे यहां आये और अपने-अपने विचार एवं तथ्यों को लिखा था उनके काम में आज हमें पढ़ने को मिलता है कि संपूर्ण जम्बूद्वीप पर हिन्दू साम्राज्य स्थापित हुआ करता था, और उस जम्बूद्वीप के 9 देश हुआ करते थे। उन 9 देशों में से 3 देश थे- हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष। उन्हीं तीनों देशों को मिलाकर आज का चीन देश बना है। हालांकि उनमें से कुछ हिस्से वर्तमान में नेपाल और तिब्बत में जा चुके हैं।
तथ्य बताते हैं कि वर्ष 1934 में हुई एक खुदाई के दौरन चीन के समुद्र के किनारे बसे एक प्राचीन शहर च्वानजो में करीब 1000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन हिन्दू मंदिरों के लगभग एक दर्जन ऐसे खंडहर मिले थे। इस प्राचीन शहर के बारे में इतिहासकारों ने एक मत से बताया कि यहां का संपूर्ण क्षेत्र प्राचीन काल में ‘हरिवर्ष’ कहलाता था, जिस प्रकार से भारत को ‘भारतवर्ष’ कहा जाता है।
उस दौर का यह संपूर्ण जम्बूद्वीप जिसमें आज का भारत और चीन सहीत तमाम देश आते हैं वह उस दौर में भी एक ही जीवनशैली यानी सनातन जीवन शैली का हुआ करता था इसलिए उस दौर के ‘हरिवर्ष’ और आज के भारतवर्ष के एक प्रदेश यानी अरुणाचल के रास्ते लोग यहां से वहां और वहां से यहां आना-जाना किया करते थे क्योंकि अरुणाचल के रास्ते आना-जाना सबसे आसान था। जबकि इसके लिए एक दूसरा रास्ता भी था जो आज के बर्मा देश से होकर जाता था। हालांकि लेह, लद्दाख और सिक्किम के रास्ते भी लोग हरिवर्ष यानी आज के चीन में आया-जाया करते थे, लेकिन उसके लिए ‘त्रिविष्टप’ यानी तिब्बत को भी पार करना होता था। ‘त्रिविष्टप’ यानी देवलोक और गंधर्वलोक का एक दिव्य हिस्सा। पौराणिक मान्यताएं हैं कि आज भी तिब्बत का यह क्षेत्र एक प्रकार से पारलौकिक शक्तियों वाला देवलोक ही है, क्योंकि यहां आज भी साक्षात कई देवी-देवता और सिद्ध महात्मा साक्षात निवास करते हैं।
तमाम इतिहासकार मानते हैं कि फिलहाल तो चीन में किसी भी हिन्दू मंदिर को नहीं देखा जा सकता है लेकिन अब भी उनमें से कुछ मंदिरों के खंडहर बचे हैं, और यह सच है कि दक्षिण चीन के फूच्यान प्रांत में करीब एक हजार वर्ष पहले के सुंग राजवंश के दौरान के कई मंदिर हुआ करते थे।
कुछ इतिहासकारों ने माना है कि मात्र 500 से 700 ईसापूर्व तक भी चीन को ‘प्राग्यज्योतिष’ एवं ‘महाचीन’ जैसे नामों से पहचाना जाता था, जबकि इसके पहले यानी आर्य काल में यही संपूर्ण क्षेत्र किंपुरुष, हरिवर्ष और भद्राश्व जैसे नामों से प्रसिद्ध था।
अब अगर हम आज के इस चीन के इतिहास को रामायण, महाभारत एवं अन्य पौराणिक संदर्भों में देखें तो पता चलता है कि महाभारत के सभापर्व में भारतवर्ष के जिस प्राग्यज्योतिषपुर प्रांत का उल्लेख मिलता है उसका अधिकतर भाग या क्षेत्रफल चीन का ही हुआ करता था। हालांकि कुछ विद्वान इस प्राग्यज्योतिष को आज के असम या पूर्वोत्तर के उन सभी प्रांतों को मानते हैं और साथ ही ये भी मानते हैं कि इस क्षेत्र में कुछ हिस्सा चीन का भी शामिल था।
रामायण के बालकांड (30/6) में भी प्राग्यज्योतिष का उल्लेख मिलता है। जबकि विष्णु पुराण में इस क्षेत्र का दूसरा नाम कामरूप या किंपुरुष मिलता है। स्पष्ट है कि रामायण काल से लेकर महाभारत काल के बीच के समय में आज के असम प्रदेश से लेकर चीन के सिचुआन प्रांत तक का यह संपूर्ण क्षेत्र ही प्राग्यज्योतिषपुर रहा होगा।
जबकि कुछ अन्य तथ्य बताते हैं कि भारत के असम राज्य के गुवाहाटी क्षेत्र में स्थित एक प्राचीन नगर व राजधानी थी जो प्रगज्योतिषपुर (च्तंहरलवजपेीचनतं) के नाम से पहचानी जाती थी। इस बात के प्रमाण के तौर पर इतिहासकार बताते हैं कि 350 ई. से 655 ई. के वर्मन राजवंश के शासनकाल के दौरान कामरूप राज्य में यह उनकी राजधानी हुआ करती थी, जबकि आज के दौर में यदि इसका सटीक अनुमान लगाया जाये तो यह स्थान गुवाहाटी में आता है।
कौटिल्य, यानी जिन्हें हम अर्थशास्त्र के रचयिता मानते हैं उन्होंने भी ‘चीन’ शब्द का प्रयोग कामरूप के लिए ही किया है। इसलिए तमाम जानकारों का अनुमान है कि उस दौर का कामरूप या प्राग्यज्योतिष प्रांत आज के असम प्रदेश से लेकर बर्मा, सिंगापुर, कम्बोडिया, चीन, इंडोनेशिया, जावा और सुमात्रा तक फैला हुआ था। यानी इसमें आज के हमारे पड़ौसी देश चीन का लगभग आधा क्षेत्रफल आता है।
अब अगर हम चीनी यात्री ह्वेनसांग और अरब से आये अलबरूनी के समय तक भी जाते हैं तो मालूम होता है कि कामरूप को चीन और वर्तमान चीन को महाचीन कहा जाता था। ह्वेनसांग के दिए गये तथ्यों के अनुसार कामरूप प्रांत में उसके काल से पूर्व कामरूप पर एक ही कुल या वंश के करीब-करीब 1,000 राजाओं का शासन लंबे काल तक रहा। यहां यदि अनुमान लगाया जाए कि एक राजा को औसतन 20 वर्ष भी शासन के लिए समय दिया गया होगा तो करीब-करीब 20,000 (बीस हजार) वर्षों तक एक ही कुल के शासकों ने कामरूप पर शासन किया होगा।
द्वापर युग की घटनाओं के विषय में माना जाता है कि प्राचीन काल के उस ‘हरिवर्ष’ प्रांत के प्रवास पर एक बार श्रीकृष्ण भी गए थे। यह उस समय की घटना थी, जब उनकी अनुपस्थिति में शिशुपाल ने द्वारिका पर आक्रमण कर उसे जला डाला था। महाभारत के सभापर्व (68/15) में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं यह बताते हैं- कि ‘हमारे प्राग्यज्योतिषपुर के प्रवास के काल में ही हमारी बुआ के पुत्र शिशुपाल ने द्वारिका को जलाया था।’
पुराणों की माने तो उनमें बताया गया है कि उस प्राचीन ‘हरिवर्ष’ के मंगोल, तातार और चीनी लोग चंद्र वंश के यानी ‘चंद्रवंशी’ हैं। तातार के वे लोग जो अपने को उस अय का वंशज बताते हैं, वास्तव में वह पुरुरवा का पुत्र था। यानी पौराणिक तथ्यों को माने तो प्राचीन ‘हरिवर्ष’ के मंगोल, तातार और चीनी लोग चंद्र वंश के यानी ‘चंद्रवंशी’ हैं।
पौराणिक तथ्य ये भी बताते हैं कि पुरुरवा उन्हीं चंद्रवंशियों का पूर्वज है जिसके कुल में कुरु हुए और फिर कुरु से कौरव कहलाए। इसी वंश में सम्राट यदु भी हुए जिनका पौत्र हय था। आज भी चीनी लोग इसी हय को हयु कहते हैं और उन्हें अपना पूर्वज मानते हैं। इसके अलावा पुराणों में मिलने वाले तमाम उल्लेख यह भी बताते हैं कि शल्य आज के इसी चीन से यानी उसी प्राचीन ‘हरिवर्ष’ से आया था जिसे बाद में ‘महाचीन’ भी कहा जाता था।
आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि अंग्रेज इतिहासकारों ने कभी भी कामरूप क्षेत्र के उस 20,000 वर्षीय इतिहास को खोजने या उस पर काम करने का जोखिम नहीं लिया, क्योंकि अगर वे अंग्रेज इतिहासकार ऐसा करते तो संभव था कि इससे आर्य धर्म या हिन्दुत्व और हरिवर्ष की गरिमा स्थापित होनी तय थी, संभवतः इसलिए उन्होंने इस पर काम नहीं किया, और आज भी इस विषय पर कोई इतिहासकार खुल कर काम करने को सामने नहीं आ रहे हैं।
ये विचार पंडित रघुनंदन शर्मा की पुस्तक ‘वैदिक संपत्ति’, कर्नल टाॅड की पुस्तक ‘राजस्थान का इतिहास’ और ‘हिन्दी-विश्वकोश’ आदि से लिए गये संदर्भों के आधार पर लिखे गये हैं।