महाभारत काल में चीन से भी कर वसुलते थे सम्राट युधिष्ठिर. जी हां, आज भले ही यह सून कर कुछ लोगों को आश्चर्य हो रहा हो, लेकिन, यह एक पौराणिक सच है। क्योंकि आज भले ही हमारा पड़ौसी देश चीन कम्युनिष्ट विचारधारा में रंग कर हमारा शत्रु बन गया हो. लेकिन, प्राचीनकाल के दौर में यही चीन, पूरी तरह से केसरिया रंग में रंगा ‘‘हरिवर्ष’’ नाम का देश हुआ करता था. यानी भारत का ही एक भाग हुआ करता था.
महाभारत में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि सम्राट युधिष्ठिर के राजकोश में जो धन जमा होता था उसका एक बहुत बड़ा भाग इसी हरिवर्ष प्रदेश से यानी आज के चीन से ही आता था. ऐसा इसलिए क्योंकि, सम्राट युधीष्ठीर का साम्राज्य जम्बूद्वीप के इन सभी 9 देशों पर हुआ करता था.
यहां गौर करने वाली बात ये है कि करीब-करीब हर उन प्रसिद्ध इतिहासकारों ने जो भारत से बाहर के रहने वाले थे उन्होंने अपने-अपने तथ्यों में भी यही लिखा है कि संपूर्ण जम्बूद्वीप पर हिन्दू साम्राज्य स्थापित हुआ करता था, और उस जम्बूद्वीप के कुल नौ देश हुआ करते थे. उन नौ देशों में से तीन उत्तर पूर्व में थे. जिनको हरिवर्ष, भद्राश्व और किंपुरुष के नाम से जाना जाता था. आज अगर हम चीन की भौगोलिक स्थिति को देखें तो उन्हीं तीनों देशों को मिलाकर चीन देश बना हुआ है.
अगर हम रामायण के बालकाण्ड और विष्णु पुराण में जायें तो इस क्षेत्र का दूसरा नाम कामरूप या किंपुरुष नाम से मिलता है. इसका अर्थ तो यही है कि रामायण काल से लेकर महाभारत काल के बीच के समय में आज के असम प्रदेश से लेकर चीन के सिचुआन प्रांत तक का यह संपूर्ण क्षेत्र प्राग्यज्योतिषपुर हुआ करता था.
और, अगर हम इस विषय पर सबुतों की बात करें तो, वर्ष 1934 में हुई एक खुदाई के दौरान चीन के समुद्री किनारे पर बसे एक प्राचीन शहर च्वानजो में करीब 1,000 वर्ष से भी अधिक प्राचीन समय के हिन्दू मंदिरों के लगभग एक दर्जन ऐसे खंडहर मिल चुके हैं. यानी वहां पूर्ण रूप से हिंदू धर्म का बोलबाला था. इतिहासकारों ने भी इस प्राचीन शहर के बारे में एक मत से यही बताया है कि यहां का संपूर्ण क्षेत्र प्राचीन काल में ‘हरिवर्ष’ कहलाता था, जिस प्रकार से भारत को आज भी ‘भारतवर्ष’ कहा जाता है.
अब अगर हम प्राचीन हरिवर्ष यानी इस आधुनिक चीन के उस दौर की प्राचीन जीवन शैली की बात करें तो उस समय वहां और भारत में एक ही सनातन जीवनशैली और एक ही भाषा यानी संस्कृत भाषा हुआ करती थी. इसके अलावा यहां से वहां और वहां से यहां तक आने-जाने के लिए सभी लोग, अरुणाचल प्रदेश के कम ऊंचाई वाले सबसे आसान पर्वतीय मार्गों का ही प्रयोग किया करते थे. इसके अलावा, एक दूसरा रास्ता भी हुआ करता था जो आज के बर्मा देश से होकर जाता था.
हालांकि लेह, लद्दाख और सिक्किम के रास्ते भी लोग हरिवर्ष यानी आज के चीन में आया-जाया करते थे, लेकिन उसके लिए ‘त्रिविष्टप’ यानी तिब्बत को भी पार करना होता था. ‘त्रिविष्टप’ को हमारे प्राचीन ग्रंथों में देवलोक और गंधर्वलोक का एक दिव्य और आध्यात्मिक क्षेत्र बताया गया है जहां पौराणिक मान्यताओं के अनुसार आज भी पारलौकिक शक्तियों वाला देवलोक है, यानी आज भी वहां साक्षात कई देवी-देवता और सिद्ध महात्माओं का अदृश्य निवास स्थान है. यही कारण है कि संपूर्ण हिमालय को देवलोग या देवभूमि कहा जाता है.
और बात अगर प्राचीन चीन और भारत के इतिहास के बारे में हो रही हो, और चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के बारे में बात न हो, ये भला कैसे हो सकता है. लेकिन, यहां एक समस्या ये भी है कि ह्वेन त्सांग द्वारा लिखे गये अधिकतर इतिहास को हमसे छूपाया गया है. हालांकि, उसके वर्णनों में हमें हर्षकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक परिचय तो अवश्य मिलता है.
– अमृति देवी