अजय सिंह चौहान || नवरात्र के अवसर पर जिस तरह से गरबा खेला जाता है क्या वही असली गरबा है या फिर इसका कोई और भी तरीका हो सकता है? गरबा उत्सव तो दिन में भी आयोजित किया जा सकता है लेकिन इसे रात को ही क्यों खेला जाता है? क्या गरबा सिर्फ एक खेल है (Garba dance history and natural science) या फिर इसका वैज्ञानिक पहलू भी हो सकता है? क्या गरबा, नवरात्र की नौ देवियों की आराधना के लिए ही खेला जाता है या फिर किसी और अवसर पर भी गरबा खेल सकते हैं? ऐसे कई सवाल हैं जिनका उत्तर अक्सर आम लोग ढूंढ़ा करते हैं। दरअसल, गरबा उत्सव की धूम जो हम बड़े महानगरों या माॅल कल्चर में देखते हैं, वह ‘गरबा डांस‘ तो होता है लेकिन उसमें ‘गरबा‘ जैसी कोई बात नहीं होती इसलिए इसे देवी आराधना के लिए खेला गया गरबा नहीं बल्कि मनोरंजन का एक माॅर्डन तरीका सकते हैं।
अब रही बात गरबा उत्सव के उस प्रारंभिक दौर की और इसके नाम को लेकर कि आखिर इस उत्सव को गरबा नाम कब और कैसे दिया गया होगा और कैसे यह एक सनातन परंपरा में परिवर्तित हो गया? इसमें सबसे पहले बात आती है कि इसे गरबा ही क्यों कहा गया? कोई ओर नाम क्यों नहीं दिया गया तो इसको लेकर हमें जो प्रमाण मिलते हैं उसके अनुसार, माना यह जाता है कि आज जिसे हम गरबा कहते हैं वह वास्तव में गरबा नहीं है बल्कि इसका असली और सही नाम तो ‘दीपगर्भ’ है।
यहां दीपगर्भ नाम के इस शब्द के रहस्य को समझने के लिए हमें ये भी समझना होगा कि जिस संस्कृति में या जिस समाज के द्वारा यह उत्सव मनाया जाता है वह कोई धर्म या मजहब नहीं है बल्कि एक सनातन परंपरा है और ये सनातन परंपरा प्रकृति पर आधारित एक संपूर्ण जीवन पद्धति के रूप में है यानी एक ऐसी जीवन पद्धति जो पूरी तरह प्रकृति पर आधारित है और प्रकृति का ही अनुसरण करती हुई चलती है यानी कि प्रकृति के नियमों का ही पालन करते हुए चलती है और आज भी यह पद्धति शत-प्रतिशत उसी प्रकार चल रही है तभी तो सनातन जीवन पद्धति से जुड़े हर उत्सव और शब्द का कोई न कोई गहरा मतलब या अर्थ होता है। उसी तरह दीपगर्भ नामक इस शब्द का भी एक मतलब है और इस शब्द का जो मतलब निकलता है उसी के अनुसार ही ‘दीपगर्भ’ को स्त्री की सृजन शक्ति का प्रतीक माना गया है और स्त्री की सृजन शक्ति मतलब प्राकृतिक तौर पर यह मनुष्य जाति या किसी भी जीव की उसकी अपनी सृजन शक्ति यानी जीवन पद्धति होती है और यदि हम सीधे-सीधे ‘दीपगर्भ’ की बात करें तो ‘दीपगर्भ’ को नवरात्र के नौ दिनों तक मातृ शक्ति के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है।
आज जिस उत्सव को हम गरबा कहते हैं, वह गरबा दरअसल दीपगर्भ का बिगड़ा हुआ नाम है यानी कि रूप है। दरअसल, भाषा और संस्कृति में समय-समय पर होने वाले कई प्रकार के बदलावों के चलते ही कई शब्द अपनी असली पहचान से भटक जाते हैं और फिर उनकी वास्तविक पहचान के लिए हमें एक बार फिर से पुराणों की ओर ही लौटना पड़ता है वही आज इस दीपगर्भ के साथ भी हो रहा है। यहां गरबा के जन्म या उत्पत्ति की बात करें तो ये नाम संस्कृत के ‘दीपगर्भ‘ से लिया गया है। यदि हम इसे आसान भाषा में समझें तो वो ये ‘दीपगर्भ’ यानी अनेक छेदों वाले मिट्टी के घड़े यानी कलश के अंदर रखे दीपक को ही ‘दीपगर्भ‘ कहा जाता है।
दीपगर्भ को और भी आसान भाषा में या आसान शब्दों में समझने के लिए बता दूं कि एक जलते हुए दीपक को एक मिट्टी के घड़े या कलश के अंदर रख दिया जाता है और क्योंकि उस समय वह दीप प्रज्जवलित हो रहा होता है यानी वह जागृत आवस्था में होता है तो इसका अर्थ है कि उसमें जान है, यानी वह प्रज्जवलित दीपक किसी स्त्री के गर्भ में पल रहे एक बच्चे के समान ही होता है इसलिए इसे भी स्त्री की सृजन शक्ति के प्रतीक के तौर पर ‘दीपगर्भ’ कहा जाता है। यह प्रक्रिया पूरी तरह से स्त्री की सृजन शक्ति के प्रतीक के तौर पर प्रकृति के नियमों पर आधारित है इसलिए इसे ‘दीपगर्भ’ के रूप में मनाया जाता है।
और क्योंकि स्त्री के गर्भ में बच्चा 9 महीनों तक रहता है और उन 9 महीनों तक उस स्त्री से संबंधित परिवार में एक उत्सव सा माहौल रहता है इसलिए यहां भी उन 9 महीनों को 9 दिनों के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है और इन 9 दिनों तक पारंपरिक रूप में उसका उत्सव मनाया जाता है यानी कि पूजन किया जाता है।
आज भी अगर गुजरात या मालवा के किसी छोटे से गांव या देहात में देखा जाय तो नवरात्र के दिनों में यहां की लड़कियाँ और महिलाएं, मिट्टी से बने छोटे-छोटे छेद वाले घड़े को फूल-पत्तियों से सजाकर और उसमें दीप जलाकर उसके चारों ओर परंपरागत नृत्य करती हैं। इसके लिए उन्हें किसी भी प्रकार के कोई फिल्मी गाने या संगीत की आवश्यकता नहीं होती बल्कि वही सदियों पुराने पारंपरिक लोकगीतों पर थिरकना होता है।
उस गरबा के चारों ओर परंपरागत नृत्य को मनुष्य के जीवन चक्र के रूप में माना जाता है यानी मनुष्य इसी प्रकृति का अंश है, उसका जीवन एक चक्र के समान है। वह जन्म लेता है, अपना जीवन जीता है और फिर इसी प्रकृति में समा जाता है यानी मनुष्य जहां से अपना जीवन प्रारंभ करता है, अंत में वहीं वापस आ जाता है और इस नृत्य के बीच में रखा ‘गर्भ-दीप’ यानी गरबा ये बताता है कि हर इंसान के मन में एक देव तत्व छुपा हुआ रहता है।
इसी परंपरागत तरीके से किये जाने वाले नृत्य को यहां सही मायने में आज भी दीपगर्भ ही कहा जाता है। हालांकि, अब यह दीपगर्भ, शब्द समय, भाषा, और ऊच्चारण की सुविधा के अनुसार बदल गया है और इसमें से दीप यानी दीपक हट गया और गर्भ रह गया। यह गर्भ भी धीरे-धीरे आम बोलचाल और अन्य भाषाओं के प्रभावों में आकर गर्भ से गरबा होकर रह गया है और अब यही शब्द यानी गरबा शब्द ही पूरी तरह से प्रचलित हो गया है।
माना जाता है कि प्राचीन काल में सर्वप्रथम गरबा उत्सव की शुरुआत गुजरात से ही हुई थी और वहीं से यह दुनियाभर में प्रसिद्ध हुआ। आज भी खासतौर पर गुजरात, मध्य प्रदेश का मालवा क्षेत्र, महाराष्ट्र, राजस्थान के कुछ भाग और निमाड़ के क्षेत्रों में यह बहुत बड़े पैमाने पर मनाया जाता है और आज भी यहां के कस्बों और गांवों में गरबा नृत्य में मुख्य रूप से देवी स्थान के आस-पास उसी छिद्र वाले दीप यानी ‘दीपगर्भ’ के पास या उसे केन्द्र मान कर ही किया जाता है।
नवरात्र की पहली रात्रि को गरबा की स्थापना की जाती है, फिर उसमें चार दिशाओं के प्रतीक के रूप में चार दीपक प्रज्वलित किये जाते हैं और उसी के चारों ओर विशेष प्रकार की परंपरागत शैली में महिलाओं या लड़कियों के द्वारा नृत्य किया जाता है। इस उत्सव को एक प्रकार से सामूहिक नृत्य उपासना भी कहा जा सकता है। हालांकि, इसमें पुरुष भी भाग लेते हैं और चार-चार, पांच-पांच के गु्रप में बंट कर अलग-अलग डांस करते हैं लेकिन मुख्य रूप से यह महिलाओं और बालिकाओं के लिए नृत्य और उत्सव का प्रतीक होता है।
इसमें खास बात यह है कि गरबा खेलते समय चुटकी, ताली, खंजरी, डांडिया यानी डंडा और मंजीरा के बजाने से निकलने वाली मधुर ध्वनि यानी आवाज के द्वारा देवी दुर्गा को ध्यान से जागृत करना और उन्हें ब्रह्मांड में शांति स्थापना के लिए, शक्ति रूप धारण कर पृथ्वी पर आने के लिए उनका आह्वान करना या उनको जगाना होता है।
यानी ‘दीपगर्भ’ को एक उत्सव के रूप में खेलने’ या मनाने को ही तालियों के साथ लयबद्ध स्वर में देवी की आराधना करना और पारंपरिक लोकगीतों और भजन आदि पर थिरकना ही गरबा कहा जाता है और क्योंकि इसे खेलने या इस नृत्य को करने के लिए इसमें छोटी-छोटी डंडियों की भी मदद ली जाती है इसलिए कई स्थानों पर इसे ‘डांडिया’ भी कहा जाता है। प्राचीन काल में ‘गरबा’ खेलते समय संतों द्वारा रचित देवी के विभिन्न प्रकार के गीत और लोक गीत ही गाए जाते थे लेकिन अब इसमें परंपरागत लोक गीतों की जगह ‘डिस्को-डांडिया’ प्रचलन बढ़ता जा रहा है।