भारतीय सभ्यता-संस्कृति में आत्मनिर्भर ऐसा शब्द है जिसकी हर कोई चाहत रखता है। सही अर्थों में यदि इसका विश्लेषण किया जाये तो ‘आत्मनिर्भर शब्द’ एक राष्ट्रीय अभिलाषा है। जब किसी के बच्चे नौकरी करने लगते हैं या अपने काम-धाम में सेट हो जाते हैं तो वह कहता है कि हमारे बच्चे अपने पैर पर खड़े हो गये हैं यानी आत्मनिर्भर हो गये हैं, इसलिए अब मैं निश्ंिचत होकर तीर्थाटन करूंगा और जिम्मेदारियों से मुक्त होकर अपना जीवन यापन करूंगा। चाहे कोई व्यक्ति हो, समूह हो, समाज हो या राष्ट्र सभी के लिए ‘आत्मनिर्भर’ शब्द बेहद शुकून देता है। जहां तक राष्ट्र की बात है तो यदि वह स्वयं में आत्मनिर्भर नहीं है तो आपदा काल में उसे बेहद तकलीफ होती है और वह दूसरे राष्ट्रों के आगे झोली फैलाये रहता है। किसी राष्ट्र ने उसकी मदद कर दी तो ठीक है अन्यथा वह लाचारी में रहने के लिए विवश रहता है इसलिए यह नितांत आवश्यक है कि हर राष्ट्र अपने आप को आत्मनिर्भर बनाना चाहता है परंतु यह अलग बात है कि इस काम में वह कितना कामयाब हो पाता है?
कामयाबी मिलना या न मिलना अलग बात है किंतु कर्म तो करना ही चाहिए। वैसे भी, श्रीरामचरित मानस में महाकवि गोस्वामी तुलसी दास जी ने कहा है कि ‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करे तस फल चाखा’ यानी कर्म ही प्रधान है। हिंदुस्तान में एक पुरानी कहावत प्रचलित है कि किस्मत भी उसी का साथ देती है जो कर्म में अनवरत लगे रहते हैं।
आज यदि वैश्विक परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाये तो कहा जा सकता है कि पूरा विश्व अस्थिरता का शिकार है। पूरा विश्व किसी न किसी मामले को लेकर अशांत एवं उलझा हुआ है। वैसे में भारत यदि वैश्विक अस्थिरता को अवसर मानकर कार्य करे तो ज्यादा उचित होगा। कोरोना काल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी अकसर कहा करते थे कि हमें आपदा में भी अवसर ढूंढ़ना होगा। आध्यात्मिक जगत में एक बात अकसर कही जाती है कि ऊपर वाला यदि कोई आपदा या विपदा देता है तो उससे लड़ने की शक्ति भी देता है। राहत का एक रास्ता बंद होता है तो दूसरा जरूर खुलता है। इस बात को ध्यान में रखकर यदि भारत भी सभी आपदाओं को अवसर मान कर आगे बढ़ सकता है। इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहा है।
आम भारतवासी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निःसंदेह यह बात मानता है कि सृष्टि का संचालन कोई अदृश्य शक्ति ही कर रही है जिसे हम ईश्वर, परमात्मा या भगवान कहते हैं। हालांकि, प्राचीन काल में भारत की महान विभूतियों ने अदृश्य शक्तियों यानी ईश्वर की परमसत्ता को कदम-कदम पर स्थापित करने का कार्य किया है। यह काम महान विभूतियों ने इस हद तक किया है कि उसमें शक की कोई गुंजाइश ही नहीं है। भारत में तो ग्रह-नक्षत्रों का खेल यहां तक स्थापित है कि यदि किसी के ग्रह नक्षत्र ठीक हैं तो उसके काम बनते जायेंगे और ग्रह-नक्षत्र गड़बड़ हैं तो सारे काम बिगड़ते ही जायेंगे। वैसे भी ये ग्रह-नक्षत्र समय-समय पर यह इंगित भी करते रहते हैं कि आगे क्या होने वाला है? यदि ग्रह-नक्षत्रों के इशारों को ध्यान में रखकर व्यक्ति काम करे तो वह अपने बिगड़े काम भी बना सकता है और बिगड़ने से पहले सावधान भी हो सकता है।
जिस प्रकार पूरा विश्व किसी अदृश्य शक्ति के माध्यम से संचालित हो रहा है, ठीक उसी तरह आज का आर्थिक जगत भी अदृश्य शक्तियों के द्वारा संचालित हो रहा है। वर्ष 2016 में ही इस बात के संकेत मिलने शुरू हो गये थे कि भविष्य का विश्व कैसा होगा? अदृश्य शक्तियां पूरे विश्व के लिए 15 वर्षों के लिए आर्थिक व्यवस्था का खाका खींच चुकी हैं और इसके पीछे ज्यादातर निजी स्वार्थ ही है। इन अदृश्य शक्तियों की मंशा यही थी कि पूरे विश्व को अस्थिर रख कर अपनी आर्थिक शक्तियों को खूब पुष्पित-पल्लवित किया जाये। यदि विश्व आस्थिर होगा तो सर्वत्र विकास के बजाय विनाश ही देखने को मिलेगा। इसमें कोई दो राय नहीं कि वह सब आज बेहद स्पष्ट रूप से देखने को मिल रहा है। वर्ष 2016 में ही 15 साल का खाका जिस प्रकार अदृश्य शक्तियों ने खींचा था, उससे स्पष्ट हो गया था कि ये शक्तियां 15 वर्षों में पूरे विश्व पर आर्थिक रूप से कब्जा करने की कोशिश करेंगी। पूरी दुनिया में प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार करना चाहेंगी। कुल मिलाकर आर्थिक जगत का चक्रवर्ती सम्राट बनने की इच्छा अदृश्य शक्तियों की 2016 से रही है। अपने मकसद में वे अभी तक कितना कामयाब हो सकी हैं यह बहस का विषय हो सकता है किंतु वे शक्तियां अपना मकसद पूरा करने के लिए आज भी किसी सीमा तक जाने को तैयार हैं। आज विश्व की परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, भारत को उसे एक अवसर मानकर अपने को हर दृष्टि से मजबूत करना होगा।
अदृश्य शक्तियों ने जबसे अपना टारगेट तय किया है, उसके बाद भारत में नोटबंदी, पाकिस्तान में अस्थिरता, ताईवान-चीन संबंधों में खटास, कोरोना, रूस-यूक्रेन युद्ध, इजरायल-हमास, युद्ध, ईरान, सीरिया आदि देशों में उथल-पुथल आदि देखने को मिला है। कोरोना काल में देखने को मिला कि जो लोग आर्थिक रूप से बेहद संपन्न थे वे भी अपने आप को बचा नहीं पाये। कोरोना की दूसरी लहर में देखने को मिला कि आक्सीजन की कमी से काफी लोगों को जान गंवानी पड़ी। महाशक्तियों का ज्ञान धरा का धरा ही रह गया और उनकी मेडिकल व्यवस्था घुटने के बल लेटने के लिए विवश हो गयी। ऐसे कठिन समय में भारत ने पूरे विश्व को यह बताया कि प्रकृति की आवश्यकता एवं उपयोगिता के आगे आर्थिक संपदा का कोई महत्व ही नहीं है। आर्थिक संपदा का महत्व तभी तक है, जब तक प्राकृतिक संपदा प्रचुर मात्रा में विद्यमान है यानी मनुष्य का जीवन चलायमान रखने में एक मात्र प्रकृति की ही भूमिका है। सनातन संस्कृति में वैसे भी कहा गया है कि प्रकृति ने हमें सब कुछ मुफ्त में दिया है, बशर्ते हम प्रकृति से सिर्फ उतना ही लें, जितना हमारे जीवन के लिए जरूरी हो। भारतीय सभ्यता-संस्कृति में प्रकृति को ही भगवान कहा गया है। स्पष्ट रूप से व्याख्या की गई है कि क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा यानी पृथ्वी, जल, अग्नि आकाश एवं हवा ही भगवान हैं। इनके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। धरती के अतिरिक्त अन्य कहीं जीवन की कल्पना इसलिए नहीं की जाती है कि वहां प्रकृति यानी क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा का संतुलन नहीं है। जब तक ये नहीं होंगे, तब तक जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है।
दो वर्ष से रूस-यूक्रेन युद्ध चल रहा है। इधर इजरायल-हमास युद्ध भी चरम सीमा पर है। पाकिस्तान में भुखमरी की स्थिति है। इसके अतिरिक्त अन्य तमाम तरह की समस्याएं पूरे विश्व में देखने को मिल रही हैं, ऐसे में भारत पर ईश्वर की बहुत बड़ी कृपा है। ऋषियों-मुनियों के तप-बल के कारण भारत अभी तक ऐसे संकटों से दूर है। हालांकि, कोरोना का दंश बड़े व्यापक स्तर पर भारत ने भी झेला है किंतु भारत ने अपने अतीत के ज्ञान एवं तप-बल के दम पर कोरोना को न सिर्फ मात देने में सफलता प्राप्त की अपितु पूरे दुनिया को कोरोना जैसे भयावह संकट से उबारने का काम किया। ऐसी स्थिति में पूरा विश्व भारत की तरफ टकटकी लगाये देख रहा है। पूरी दुनिया यदि भारत की तरफ टकटकी लगाये देख रही है तो वह किसी दया एवं करुणा के कारण नहीं है, बल्कि अदृश्य शक्तियां अपना स्वार्थ साधने के लिए अपने उत्पादों को खपाने के लिए भारत को एक बाजार के रूप में देख रही हैं और उनकी कुदृष्टि हमारे यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर भी है। अपनी आर्थिक सेहत को ठीक करने के लिए अदृश्य आर्थिक शक्तियों को भारत एक मात्र सुरक्षित आसरे या यूं कहें कि सहारे के रूप में नजर आ रहा है। ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि भारत इन अदृश्य आर्थिक शक्तियों को पहचाने और चालाकी से स्वयं इनका ही दोहन कर ले। हालांकि, भारत को अपना बाजार बनाने एवं प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने के लिए अदृश्य शक्तियां बार-बार असफल प्रयास कर रही हैं किंतु भारत बेहद सतर्कता से आगे बढ़ रहा है।
युद्ध में यदि दुश्मन की योजना की जानकारी पहले मिल जाये तो जीत सुनिश्चित की जा सकती है। युद्ध में सफलता का यह पहला सूत्र है। इस बात को भारत की काबिलियत ही कहा जायेगा कि उसने अदृश्य रह कर आर्थिक जगत पर वर्चस्व जमाने की इच्छा रखने वाली शक्तियों एवं उनकी योजनाओं को आठ वर्ष पहले ही पहचान लिया था और अब जब उनकी योजनाएं निर्णायक मोड़ की तरफ जाती दिख रही हैं तो हमें अत्यंत सावधानी के साथ एक-एक करके उनके बुने हुए जाल में फंसने की बजाय उनके एक-एक धागे को काटकर एवं उनकी योजनाओं को विफल करते हुए आत्मनिर्भर जैसे लक्ष्य को प्राप्त करना ही होगा। इसी में हमारी समझदारी और उपलब्धि है और अपनी प्राचीन संस्कृति के बताए हुए सूत्रों को आत्मसात कर आत्मनिर्भर बन कर विश्व का नेतृत्व करने का हमारे समक्ष स्वर्णिम अवसर है।
पिछले अनेक वर्षों से यह देखने को मिला है कि भारत सरकार कदम-कदम पर फंूक मार कर आगे कदम बढ़ा रही है परंतु शातिर लोगों की क्रूर दृष्टि एवं दूरदर्शिता केवल भारत को ही अपने जाल में फांसने के लिए तत्पर है। अदृश्य शक्तियों ने वर्ष 2016 में आर्थिक जगत का जो 15 वर्षों तक के लिए रोडमैप तैयार किया था, उसमें अभी सात वर्ष का समय बाकी है। इन सात वर्षों में हमें और अधिक सावधान रहने की जरूरत है। उनके उत्पादों को अपने बाजारों में लाने के बजाय हमें अपने उत्पादों की तरफ ध्यान देना होगा। हमें अपने लिए ऐसे उत्पाद तैयार करने होंगे जो हमारी सभ्यता एवं आवश्यकता के अनुरूप हों।
हम तमाम मामलों में आत्मनिर्भर तो हो रहे हैं किंतु सर्वदृष्टि से और अधिक आत्मनिर्भर कैसे बनें, इस बात को ध्यान में रख कर आगे बढ़ना होगा। आज आवश्यकता इस बात की है कि आयात को कम से कम किया जाये और निर्यात को बढ़ावा दिया जाये। उनके सस्ते उत्पादों के लालच में आकर अपने घरेलू उत्पादों को हानि पहुंचाने से बचा जाये। गुणवत्ता और पैकेजिंग की आड़ में हम अपने उन सामानों को न नकारें जो हमारे लिए सर्वदृष्टि से लाभकारी एवं प्रकृति के अनुरूप है। प्रकृति के अनुरूप यदि हम फल, सब्जियों, खाद्य पदार्थों एवं कपड़ों का उपयोग करेंगे तो बचे रहेंगे। योग एवं घरेलू चिकित्सा को और अधिक प्रचारित-प्रसारित करने की आवश्यकता है। उनका मेडिकल जगत जिन बीमारियों को आज बहुत बड़ा बनाकर पेश कर रहा है वे हमारे यहां अतीत में दादी-नानी के घरेलू नुस्खों से ठीक हो जाया करती थीं। अतीत में हमारे यहां जितनी भी चिकित्सा पद्वतियां थी उन सभी का विकास किया जाये। अतीत में प्रचलित एवं चलन में रही जितनी हमारी चिकित्सा पद्धतियां थीं, यदि हमने फिर से उनका उपयोग करना शुरू कर दिया तो चिकित्सा के क्षेत्र में हम आत्मनिर्भर होते जायेंगे। भारतीय योग की शक्ति तो आज पूरा विश्व देख चुका है। इसी शक्ति को देखते हुए ही प्रति वर्ष 21 जून को ‘योग दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
आज आवश्यकता इस बात की है कि मशीनी शक्ति पर निर्भरता कम करके हमें मानव शक्ति पर निर्भरता बढ़ानी होगी, इससे मानव शक्ति हमारे लिए बोझ नहीं बल्कि अमूल्य पूंजी बन जायेगी। पशु शक्ति की बात की जाये तो आज तमाम लोगों को भले ही यह लगता हो कि जो पशु दूध नहीं देते हैं, वे हमारे लिए बेकार हैं किंतु हमें उन्हें परिवार का सदस्य मानकर उनकी देखभाल करनी चाहिए। हमारा अतीत हमें यही सिखाता है। जो पशु दूध नहीं देते हैं वे गोबर तो देते ही हैं। भविष्य में हमें रासायनिक खादों पर निर्भरता कम करके देशी खाद पर ही निर्भर होना पड़ेगा। यदि हम देशी खादों पर अपनी निर्भरता नहीं बढ़ायेंगे तो हमारे खेत ऊसर एवं बंजर होते जायेंगे। खेती के मामले में वैसे भी हम बहुत दिनों तक उनके फार्मूले पर नहीं चल पायेंगे। जल, जंगल एवं जमीन को हमें हर दृष्टि से सुरक्षित रखना होगा। आज तमाम लोग भविष्यवाणियां कर रहे हैं कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर हो सकता है तो इस खतरे को भांपकर हमें अभी से जल संरक्षण की दिशा में कार्य करने की जरूरत है। यदि हम अभी से सजग एवं सतर्क नहीं हुए तो महाशक्तियों की नजर हमारे संसाधनों पर पड़ सकती है। अतः हमें अभी से यह सोच कर काम करना होगा कि जल के मामले में उनकी निर्भरता हम पर रहे। जल ही क्यों हमारे जितने भी प्राकृतिक संसाधन हैं, हम उनका उपयोग इस प्रकार से करें कि वे हमारे आगे-पीछे नाचने के लिए विवश रहें।
चूंकि, हम परिवारवाद एवं समाजवाद में विश्वास करते हैं और वे पूंजीवाद में। हम परिवार एवं समाज को सब कुछ मानते हैं, वे सब कुछ सिर्फ पूंजी को ही समझते हैं। हम चाहते हैं कि पूरी दुनिया सुखी-संपन्न रहे, वे सिर्फ अपने को सुखी-संपन्न देखना चाहते हैं। हम अपनी पारंपरिकता एवं रीति-रिवाज में रहना चाहते हैं किंतु वे हमें आधुनिकता एवं भौतिकवाद की तरफ ले जा रहे हैं। उनके इस षड़यंत्र से हमें सचेत होना होगा। वे हमारे गुरुकुलों को समाप्त करके हमें भारतीय अंग्रेज बनाने की कोशिश कर रहे हैं किंतु हमें भारतीय ही बने रहना है। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि हमें बिना किसी की नकल किये अर्थव्यवस्था, उद्योग, चिकित्सा, शिक्षा, सभ्यता-संस्कृति, रहन-सहन, आदि में भारतीय ही बने रहना होगा। इसी रास्ते पर चलकर हम पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर रह सकते हैं। सही तरीके से यदि विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि भारत का सर्वदृष्टि से आत्मनिर्भर बनना इतना कठिन भी नहीं है। इसे एक उदाहरण से ठीक प्रकार से समझा जा सकता है।
आज हमारे बाजारों में चीनी सामान भरे पड़े हैं, उन सामानों के बारे में तर्क दिया जाता है कि वे सस्ते होते हैं किंतु हमें यह भी याद रखना चाहिए कि अपना, अपना ही होता है। किसी भी मुसीबत के वक्त अपना ही काम आएगा। जब मुसीबत के वक्त अपना ही काम आता है तो हम क्यों न अपनों पर ही विश्वास करें। वैसे भी कहा जाता है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ यानी नया सामान यदि नौ दिनों तक चलेगा तो पुराना कम से कम सौ दिनों तक साथ निभायेगा। कोरोना काल में देखने को मिला कि भारत का काढ़ा पीकर दुनिया के महत्वपूर्ण लोगों ने अपनी जान बचा ली। उस मुसीबत में दुनिया का कोई आधुनिक काढ़ा सामने नहीं आया बल्कि अपना पुराना काढ़ा ही काम आया। अतः आज आवश्कयता इस बात की है कि हम अपनी पारंपरिकता एवं उपयोगिता के हिसाब से आत्मनिर्भर बनें। इस रास्ते पर आने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं है, इसलिए इस रास्ते पर हम जितनी जल्दी आ जायें, उतना ही अच्छा होगा।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर), (पूर्व ट्रस्टी श्रीराम-जन्मभूमि न्यास एवं पूर्व केन्द्रीय कार्यालय सचिव, भा.ज.पा.)