भारत सहित पूरी दुनिया में एक ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि सत्ता के बिना राजनीति एवं समाज सेवा का कोई मतलब नहीं। राजनीति में जो भी लोग हैं उनमें से अधिकांश लोग (Indian polaticians & social workers without power) येन-केन-प्रकारेण सत्ता का स्वाद चखना चाहते हैं। बात जब सत्ता की आती है तो उसका सीधा सा तात्पर्य यह है कि किसी न किसी रूप में जनप्रतिनिधि बनना, चाहे वह पार्षद हो, विधायक हो, सांसद हो या किसी भी रूप में हो। हर छोटे-बड़े दल की या समूह की इच्छा भी यही रहती है कि हम भी सत्ता हासिल किस प्रकार से करें। मंत्री या उससे ऊपर पहुंच जायें तो पूछना ही क्या? इसके अतिरिक्त अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाने या मनोनीत होने वाले राज्यसभा सदस्य, राज्यों में एमएलसी एवं अन्य प्रकार के पद हैं, जिन्हें सत्ता से जोड़कर देखा जाता है। सीधे तौर पर इसे इस रूप में लिया जा सकता है कि किसी भी तरह सरकार एवं शासन-प्रशासन में अपनी धमक हो। राजनीतिक दलों में जो लोग शुद्ध रूप से संगठन की राजनीति करते हैं, उनमें भी अधिकांश लोगों की इच्छा होती है कि किसी भी तरह सरकार एवं शासन-प्रशासन में उनकी धमक हो।
कहने के लिए तो कहा जाता है कि राजनीति सेवा का सबसे बड़ा माध्यम है किंतु आम जनता में राजनीति एवं राजनेताओं के बारे में जो धारणा बन रही है, वह कुछ और ही बनती जा रही है। अधिकांश लोगों का मानना है कि राजनीति सेवा नहीं बल्कि मेवा प्राप्ति का सबसे उपयुक्त माध्यम है। मेवा का तात्पर्य यहां अर्थ लाभ और छद्म धमक से है।
राजनीतिज्ञों की बात तो जो है, वह है ही, इसके अतिरिक्त जो लोग राष्ट्र एवं समाज में सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं अन्य रूप से सेवा कार्यों में लगे हैं उनमें भी तमाम लोग अर्थ लाभ एवं व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति में लगे हुए हैं। और तो और, वे इन्हीं सेवा कार्यों को माध्यम बनाकर राजनीतिक दलों में अपनी पैठ बनाना चाहते हैं, नेताओं एवं अन्य प्रमुख लोगों से अपने संबंध बनाना चाहते हैं। समाज सेवा के नाम पर यदि किसी की कोई मदद की जाती है तो उसमें दिखावा भी बहुत देखने को मिलता है। जब भी देश में कहीं कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो इस प्रकार के दृश्य बहुत व्यापक स्तर पर देखने को मिलते हैं।
अस्पतालों में जब समाजसेवी मरीजों को कोई सामग्री बांटने जाते हैं तो यह काम बिना फोटो यानी दिखावे के संपन्न नहीं होता है। कभी-कभी तो ऐसा भी देखने को मिल जाता है कि एक ही केला कई लोग मिलकर मरीज को पकड़ाते हैं। इस संबंध में तो मेरा मानना है कि देने वालों को भले ही कोई संकोच न हो, किंतु लेने वाले संकोच के मारे अपना चेहरा नीचे कर लेते हैं। इस मामले में स्पष्ट रूप से देखने में आता है कि समाजसेवी (Indian polaticians & social workers without power) चाहते हैं कि यदि वे समाज सेवा कर रहे हैं तो सेवा करते हुए उन्हें दिखना भी चाहिए। इसी कारण कभी-कभी ऐसी स्थिति बन जाती है कि कहीं पर यदि एक हजार रुपये की राहत सामग्री बांटी जाती है तो दस हजार रुपये उसके प्रचार-प्रसार एवं दिखावे में खर्च कर दिया जाता है।
वास्तव में यदि इसकी तह में जाकर विश्लेषण किया जाये तो स्पष्ट रूप से देखने में आता है कि ऐसा करके तमाम लोग सत्ता की राह पर आगे बढ़ना चाहते हैं। इनमें से कितने लोग कामयाब हो पाते हैं, यह अलग बात है। राजनीति में क्या-क्या हो रहा है, यदि इसकी व्याख्या की जाये तो यह लिखने के लिए विवश होना पड़ेगा कि क्या नहीं हो रहा है? अपराध, अत्याचार, चोरी, बेईमानी, अनीति, अन्याय, अधर्म, भ्रष्टाचार, व्यभिचार सहित और जितनी भी बुराइयां हो सकती हैं, वे सभी राजनीति में प्रवेश कर चुकी हैं।
इस देश में तमाम ऐसे नेता या जनप्रतिनिधि हैं जिन्हें जनता आदर एवं सम्मान के साथ देखती है, यदि उनके नजदीक जाकर जानकारी प्राप्त की जाये तो स्थितियां बहुत विपरीत मिलती हैं यानी कथनी-करनी में बहुत व्यापक स्तर पर अंतर या यूं कहें कि विरोधाभाष मिलता है। सत्ता के लिए ‘आया राम-गया राम’ की राजनीति सिर चढ़कर बोल रही है।
अपने काले कारनामों को छुपाने के लिए मुकदमों से बचने के लिए या अन्य किसी प्रकार की समस्या से राहत पाने के लिए इस दल से उस दल में नेता आते-जाते रहते हैं यानी ऐसे लोग इस बात का पता लगाते रहते हैं कि भविष्य में किस दल की सरकार बनने वाली है, उसी के मुतााबिक वे अपनी भूमिका तय करते हैं यानी येन-केन-प्रकारेण उनका मकसद सिर्फ सत्ता की प्राप्ति ही होता है। जब इस प्रकार का माहौल हो तो नैतिकता से पूर्ण एवं ईमानदारी से युक्त राजनीति की बात कैसे सोची जा सकती है?
इन सब बातों के अतिरिक्त एक विचित्र बात यह है कि जो लोग जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रसिद्धि पा चुके हैं और उनकी देश-विदेश में धाक है, उन्हें भी लगता है कि जब तक राजनीति में आकर वे सत्ता का स्वाद चख नहीं लेंगे, तब तक उनके जीवन का मकसद पूरा नहीं होगा। फिल्म, खेल, उद्योग, ब्यूरोक्रेसी या अन्य किसी भी क्षेत्र में जो लोग शीर्ष पर पहुंच चुके हैं, उनमें से तमाम लोग राजनीति में भी अपना भाग्य आजमाना चाहते हैं।
इस संदर्भ में यदि सेवा की बात की जाये तो सेवा किसी भी क्षेत्र में रहकर किसी भी रूप में की जा सकती है किन्तु देश-दुनिया में एक ऐसा अनावश्यक वातावरण बना हुआ है कि बिना सत्ता सब सून। वास्तव में देखा जाये तो लोगों में एक धारणा बनती जा रही है कि जो भी व्यक्ति राजनीति एवं सत्ता में है वह सर्वदृष्टि से समर्थ है। वह कोई भी काम करना चाहे तो उसका कोई काम रुक नहीं सकता।
समाज सेवा की बात की जाये तो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि बिना राजनीति एवं सत्ता के समाज सेवा नहीं की जा सकती। मन में यदि सेवा का भाव है तो वह तमाम तरीके से की जा सकती है। यह बात अलग है कि वक्त एवं परिस्थितियों के मुताबिक सेवा कम या अधिक हो सकती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है विश्व का सबसे बड़ा गैर राजनीतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। 1925 में अपनी स्थापना के बाद से ही संघ का कार्य हर क्षेत्र में बढ़ा है, इसके लिए वह किसी उद्योगपति के पास नहीं गया बल्कि अपने कार्यकर्ताओं के सहयोग से संघ समाज के हर क्षेत्र में बहुत ही मजबूती से कार्य कर रहा है।
भारतीय जनता पार्टी जैसा राजनीतिक दल उसकी मात्र एक शाखा के रूप है। इसी प्रकार संघ के बहुत से संगठन निःस्वार्थ भाव से कार्य कर रहे हैं। संघ के तमाम स्वयंसेवक अपना घर-परिवार छोड़कर राष्ट्र एवं समाज के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं। आज भले ही तमाम लोग राजनीति एवं सत्ता के माध्यम से अपने घर-परिवार का भविष्य संवारने में लगे हैं किंतु संघ के तमाम लोगों ने मां भारती की सेवा के लिए अपना घर-परिवार बसाने का इरादा ही छोड़ दिया। ऐसे लोग बिना किसी लोभ-लालच के (Indian polaticians & social workers without power) राष्ट्र-समाज की सेवा में अनवरत लगे हुए हैं। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है कि आज की जो राजनीति है, वह प्रारंभ से ऐसी ही है। इसी देश में मात्र कुछ वर्षों पहले श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी ने संसद में मात्र एक वोट से अपनी सरकार कुर्बान कर दी। संसद में उन्होंने दहाड़ते हुए कहा था कि सरकार जाये तो जाये, किंतु सरकार बचाने के लिए मैं किसी तरह के अनैतिक रास्ते पर नहीं जा सकता यानी मैं घटिया राजनीति को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करता।
इस प्रकार की राजनीति की बात की जाये तो श्रीमती इंदिरा गांधी जी ने राष्ट्रहित में अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में सेना के जवानों को प्रवेश करने की अनुमति दे दी, जबकि उन्हें यह अच्छी तरह पता था कि राजनीतिक एवं अन्य दृष्टि से इसके क्या नफा-नुकसान हैं? पाकिस्तान का विभाजन करवाकर उन्होंने यह साबित कर दिया कि राष्ट्र एवं समाज के लिए कहां तक जाया जा सकता है या जाना चाहिए?
पूर्व प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने भारत-चीन युद्ध के समय ‘जय-जवान, जय-किसान’ का नारा दिया और लोगों से अपील की कि सप्ताह में एक दिन यदि देशवासी उपवास रहें तो उससे जो अनाज की बचत होगी, वह देश के सैनिकों के काम आयेगी। श्री लाल बहादुर शास्त्री जी की देश में इतनी लोकप्रियता थी कि उन्होंने जो कुछ भी कहा, देशवासियों ने उसका अक्षरशः पालन किया। इसी को कहते हैं किसी नेता की लोकप्रियता एवं विश्वसनीयता, जिसकी बात हर कोई मान ले किंतु आज की राजनीति में नेताओं की इस प्रकार की लोकप्रियता एवं विश्वसनीयता कहां देखने को मिलती है?
हिन्दुस्तान की राजनति में ऐसे तमाम नेता हुए जिन्होंने कभी भी अपनी विचारधारा से समझौता नहीं किया। राजनीति में उन्हें चाहे कुछ मिला हो या न। उदाहरण के तौर पर अटल-आडवाणी को ही लिया जा सकता है, उन्होंने जब राजनीति शुरू की थी तो उस समय की परिस्थतियां ऐसी नहीं थीं, जिससे यह कहा जा सके कि वे अति शीघ्र ही सत्ता के शिखर पर पहुंच जायेंगे किंतु वे अपनी विचारधारा पर डटे रहे और अपने वैचारिक मार्ग से कभी भटके नहीं। जो लोग अपनी विचारधारा से समझौता करते रहते हैं यानी इधर-उधर आते जाते रहते हैं इससे न केवल उनकी विश्वसनीयता कम होती है, अपितु इसे जनता के साथ अविश्वास एवं मजाक भी कहा जा
सकता है।
राजनीति में सादगी, सरलता एवं ईमानदारी की बात की जाये तो इस मामले में हमारा अतीत बेहद गौरवमयी रहा है। गुलजारी लाल नंदा देश के प्रधानमंत्री रहे किंतु आजीवन वे किराये के मकान में रहे। उनके जीवन में ऐसा भी समय आया जब उनके पास मकान का किराया देने का पैसा नहीं था। इससे बड़ी बात यह है कि किराया न दे पाने के कारण एक बार मकान मालिक ने उनका सामान ही बाहर फेंकवा दिया था। काफी मान-मनौव्वल के बाद वह कुछ दिन मोहलत देने के लिए तैयार हुआ किंतु जब उसे गुलजारी लाल नंदा जी के बारे में पता चला तो क्षमा भी मांग ली। लाल बहादुर शास्त्री, राजनारायण जैसे राजनेताओं ने अपने घर की एसी कटवा दी, क्योंकि वे सरकारी पैसे का दुरुपयोग नहीं होने देना चाहते थे।
पश्चिम बंगाल के कई सांसदों ने अटल बिहारी जी के प्रधानमंत्री रहते कहा था कि यदि आवास की कमी होती है तो हमारे सांसद कम मकानों में ही एडजस्ट कर लेंगे यानी एक ही आवास में एक या दो या उससे अधिक भी रह लेंगे जबकि विपक्षी दलों से थे। यदि वे चाहते तो अच्छे बंगलों एवं मकानों की मांग कर सकते थे। ऐसे भी जनप्रतिनिधि हुए हैं जो अपने आवास से संसद तक पैदल, साइकिल या सार्वजनिक वाहन से आया-जाया करते थे। पूर्व रक्षामंत्री मनोहर पारिकर जी गोवा का मुख्यमंत्री रहते हुए स्कूटर से ही निर्माण कार्यों एवं शासन-प्रशासन का निरीक्षण किया करते थे।
कहने का आशय यह है कि इन लोगों के लिए सत्ता रुतबे, ऐशो-आराम का माध्यम होने के बजाय वास्तव में राष्ट्र एवं समाज सेवा का माध्यम थी। यह सब लिखने के पीछे मेरा भाव यही है कि राजनीतिक दल, राजनेता एवं जनप्रतिनिधि यदि नैतिक रूप से मजबूत होंगे तो आम लोगों में उसका सकारात्मक संदेश जायेगा किंतु आज की राजनीति में दुर्भाग्य का दौर ऐसा चल रहा है कि यदि कोई गुदड़ी का लाल किसी भी प्रकार यदि राजनीति एवं सत्ता में उभर जा रहा है तो उसे फ्लाप होने में ज्यादा समय नहीं लग रहा है क्योंकि आज की राजनीति में कथनी-करनी में जमीन-आसमान का अंतर है।
आज की राजनीति में यदि यह कहा जा रहा है कि ‘बिन सत्ता सब सून’ तो ऐसा कहने के पीछे ठोस आधार भी हैं। जनप्रतिनिधि बनने से पहले जिनके पास साइकिल नहीं होती है, बाद में जब उनके पास ऐशो-आराम की सभी सुविधाएं आ जाती हैं तो लोग यह सोचने के लिए विवश हो जाते हैं कि आखिर यह सब आया कहां से? देखने में लगता है कि राजनीति से चोखा धंधा कोई दूसरा नहीं है। राजनीति में भ्रष्टाचार रोकने के लिए सरकार एवं पूरे सिस्टम के द्वारा तमाम तरह के उपाय किये जा रहे हैं किंतु परिणाम के नाम पर ‘ढाक के तीन पात’ ही नजर आते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने विगत 9 वर्षों में राजनीति एवं शासन-प्रशासन से भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए बहुत व्यापक स्तर पर प्रयास किया है। इन प्रयासों के बाद बदलाव भी देखने को मिल रहा है किंतु अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है, वैसे भी वर्षों से पनपी सड़ी-गली व्यवस्था को बदलने में वक्त तो लगता ही है।
हिंदुस्तान की राजनीति में यदि आज सत्ता को ही सब कुछ माना जा रहा है तो उसमें चैधरी देवीलाल, भजन लाल, चिमनभाई पटेल, चैधरी चरण सिंह, शरद पवार या अन्य कुछ प्रमुख लोग ही जिम्मेदार नहीं हैं, जिन्होंने दल-बदल की एवं अन्य रास्तों से सत्ता प्राप्ति को तरजीह दी बल्कि अब तो यह बुराई राष्ट्र एवं समाज की नस-नस में आ चुकी है, इससे उबरने के लिए बहुत व्यापक स्तर पर कार्य करने की आवश्कता है। इसके लिए निहायत ही धैर्य के साथ कार्य होगा लेकिन येन-केन-प्रकारेण सत्ता में बने रहने की जो आवश्यकता से अधिक प्रवृत्ति पनप चुकी है, उसके लिए सबसे आवश्यक बात यह है कि राजनीति में दल बदलुओं का बाॅयकाट किया जाये या उन्हें सबक सिखाया जाये। आज नहीं तो कल यह काम करना ही होगा अन्यथा स्व. राम विलास पासवान जैसे राजनीतिक मौसम विज्ञानियों की संख्या बढ़ती ही जायेगी। राजनीति का इस हद तक स्तर क्यों
गिरा है?
इसकी जानकरी पूरे देश को है किंतु बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा वाली स्थिति बनी हुई है मगर अब बिल्ली के गले में घंटी बांधने वाली स्थिति बननी शुरू हो गयी है, तभी तो बिन सत्ता सब सून की मानसिकता से देश उबर पायेगा।
– सिम्मी जैन
दिल्ली प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य- भाजपा, पूर्व चेयरपर्सन- समाज कल्याण बोर्ड- दिल्ली, पूर्व निगम पार्षद (द.दि.न.नि.) वार्ड सं. 55एस।