धन को निर्मित करना चाहिए धन मनुष्य की खूबसूरत ईजाद है। वह एक आशीर्वाद है, यदि इसका सही ढंग से उपयोग किया जाए। उससे कई चीजें संभव हो जाती हैं। धन एक जादुई चीज है।
यदि आपके जेब में सौ रुपये का नोट हो तो आपकी जेब में हजारों चीजें हैं। उन सौ रुपयों से आप कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं। आप एक आदमी को ला सकते हैं, जो अच्छी तरह आपकी मालिश कर दे, या आप कोई खाने की चीज खरीद सकते हैं, कुछ भी। उस नोट में कई संभावनाएं हैं। अगर आपकी जेब में नोट न हो तो आप वे संभावनाएं जेब में नहीं रख सकते। फिर आपका जीवन सीमित रहेगा। आपका मालिशवाला आपको भोजन नहीं दे सकता, लेकिन नोट भोजन दिलवा सकता है। सो पैसा आदमी के बडे़ से बड़े आविष्कारों में से एक है। उसकी निंदा करने की जरूरत नहीं है।
बस, उसे पकड़िए मत। पकड़ बुरी बात है। आप जितना पकड़ते हैं, उतनी दुनिया गरीब होती जाती है। धन को हमेशा गतिमान होना चाहिए, तभी उसका गुणा होता है। एक हाथ से दूसरे हाथ बढ़ता जाए, बहता जाए।
अंग्रेजी का शब्द है करेंसी जो बहुत सार्थक है। इसका मतलब है करंट, अर्थात प्रवाह। पैसा प्रवाह की तरह बहता रहे। जितना अधिक बहेगा उतना बढे़गा। जैसे, मेरे पास सौ का नोट है तो दुनिया में सिर्फ एक ही सौ रुपये का नोट है। अगर मैं आपको देता हूं और आप किसी और को, और हर कोई उसे आगे देते जाते हैं तो उसके हजार रुपये हो जाते हैं। हमने सौ रुपये के मूल्य की आवश्यक वस्तुओं का उपयोग कर लिया। तो सौ रुपए सौ गुना हो गए।
अब पहली दफा दुनिया में टेक्नोलाॅजी ने संपत्ति को निर्मित किया है। जो संपत्ति नहीं थी जमीन पर, उसको पैदा किया है। इधर, समाज को यही खयाल है, और गरीब का यही खयाल बहुत स्वाभाविक मालूम होता है कि उसको लगे कि मुझ को लूट कर आप अमीर हो गए हैं। लेकिन हालत बिलकुल उलटी है। हालत ऐसी है कि वह गरीब भी जो जिंदा है, वह सिर्फ एक धनी आदमी के कारण-असलियत यह है कि जब एक बड़ा मकान बनता है, तो दस छोटे मकान भी बन जाते हैं। अगर बड़े मकान को यहां से हटा दिया जाए तो दस पास के जो मकान हैं, वे विदा हो जाएंगे। क्योंकि इस बड़े मकान को उठाने में वे बने थे। जब एक बड़ा मकान बनता है, तब एक राज काम करता है, एक मिट्टी लाने वाला काम करता है, एक ईंट जोड़ने वाला काम करता है।
एक बड़ा मकान जब बनता है तो दस छोटे मकान बिना बनाए बन ही नहीं सकता। दस छोटे मकान बन ही जाएंगे। लेकिन जब बन कर खड़े हो जाएंगे तो सड़क पर से देखने वाला यह कह सकता है कि यह बड़ा मकान जो है, इन दस को लूट कर बड़ा हो गया है। जबकि ये दस होते ही नहीं, अगर यह बड़ा मकान नहीं बनता।
MEDITATION : सांस ही बंधन, सांस ही मुक्ति
पूंजी पैदा की है, पूंजी थी नहीं। आज अमेरिका में जो पूंजी है, वह कभी भी न थी। वह सब पैदा हुई है। और पूंजी पैदा हो जाए और इतनी पैदा हो जाए कि उस पर व्यक्तिगत स्वामित्व का कोई अर्थ न रह जाए, तब तो पैसे का बंटवारा सहज अपने आप आता है। लेकिन पूंजी बहुत थोड़ी हो और समाज बांटने का आग्रह करने लगे, तो पूंजी पैदा करने की जो व्यवस्था विकसित हो रही थी, वह भी टूट जाती है। और समाज संपत्ति पैदा नहीं कर सकता। संपत्ति हमेशा व्यक्ति पैदा करते हैं।
अब जैसे गांव में एक आदमी है उससे दो रुपये की चीज लेकर एक आदमी दो सौ रुपये में बेच रहा है। साफ दिखाई पड़ रहा है कि एक सौ अट्ठानबे रुपये इसने लूट लिए। इसने किससे लूट लिए, उस गांव के आदमी से लूट लिए? अब जैसे मैं पूछता हूं, क्या वह ग्रामीण दो सौ रुपये में बेच लेता? मैं इसलिए कह रहा हूं ऐसा कि यह आदमी अगर उसे दो सौ रुपये में बेच रहा है, तो वह गांव वाले को दो रुपये तो दे रहा है जो कि उसको मिलने वाले थे ही नहीं। हम कह सकते हैं कि यह जो दो सौ रुपये लेने वाला है, इसको मिटा दो।
यह बड़ा सीधा तर्क है। लेकिन यह तर्क बिलकुल बेकार है – यह पूरी बात समझने जैसी है। पूंजीवाद की जो व्यवस्था है, व्यवस्था कुल इतनी है कि कुछ लोग संपत्ति को पैदा करने की कुशलता में लगे हुए हैं।
वह जो हमें दिखाई पड़ रहा है कि शोषण किया जा रहा है कुछ लोगों का, उसे दिखने में दो तरह की भ्रांति हो रही है। एक तो यह भ्रांति हो रही है कि अगर यह शोषण की व्यवस्था टूट जाए तो वे बड़े सुखी हो जाएंगे। क्योंकि जिससे आप मुफ्त में ले आए थे चीज, वह उसको दो सौ में बेच लेगा। एक तो हमको यह खयाल हो रहा है। अगर वह दो सौ में बेच सकता होता तो उसने दो सौ में बेच ली होती। जो संपत्ति पैदा हो रही है, वह भी हमें दिखाई पड़ती है कि संपत्ति पैदा हो रही है। एक मजदूर गड्ढा खोद रहा है, वह संपत्ति पैदा कर रहा है? एक आदमी खेत में गेहूं पैदा कर रहा है, वह संपत्ति पैदा कर रहा है? ये संपत्ति पैदा नहीं कर रहे हैं। और अगर इनके ही हाथ में समाज छोड़ दिया जाए तो समाज भूखा मर जाएगा।
संपत्ति पैदा करना बहुत और तरह की बात है। इन सबका उपयोग किया जा रहा है, संपत्ति पैदा करने में, लेकिन ये संपत्ति पैदा नहीं कर रहे हैं। संपत्ति पैदा और ढंग से की जा रही है, उसमें इनका उपयोग हो रहा है। ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता है कि हम कुछ लोगों के हाथ से यह सारी व्यवस्था छीन कर राज्य के हाथ में दे दें। और राज्य इस पर हावी हो जाएगा।
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पूंजीवाद की जो व्यवस्था है उस व्यवस्था ने पूंजी पैदा करने के हजारों रास्ते ईजाद किए हैं। उन रास्तों का इतना उपयोग हो सकता है कि संपत्ति इतनी पैदा हो जाए कि संपत्ति पर व्यक्तिगत मालकियत रखने में कोई अर्थ न रहे। व्यक्तिगत मालकियत का अर्थ तभी तक है, जब तक संपत्ति न्यून है।
पचास-साठ साल हिंदुस्तान को इतनी संपत्ति पैदा करनी चाहिए, और संपत्ति पैदा करने के लिए इतनी सुविधाएं जुटानी चाहिए कि पचास साल हमें तय कर लेना चाहिए कि हम संपत्ति ही पैदा करेंगे। और जो लोग भी संपत्ति को पैदा करने में किसी तरह सहयोगी हो सकते हैं, उनके लिए सारी सुविधाएं देंगे। आज हिंदुस्तान में बीस हजार परिवार भी नहीं हैं, जिनको हम कह सकें कि ये समृद्ध हैं। और दस-पांच परिवार हैं जिनको कि हम कह सकें कि भई हां, इनको हम किसी तल पर करोड़पतियों में गिनें। इनकी सारी संपत्ति उठा कर भी आज बांट दी जाए तो मेरे पास दो-चार आने ही पड़ता है, जिसका कि कोई अर्थ नहीं रह जाता। और इस सारे बंटवारे में गरीब उत्सुक है। क्योंकि गरीब की समझ कितनी है? पहली तो बात यह है कि वह नासमझ है, इसलिए गरीब है। उसकी गरीबी के होने में वह भी हिस्सा है कि वह नासमझ है। हमने समझाया, आवश्यकताएं कम रखना। गरीब की हमने पूजा की है। दरिद्रनारायण को भगवान बना कर बिठाया हुआ है। तो हमारा जो पूरा का पूरा मुल्क है, जहां कि आवश्यकताओं को कम रखने पर जोर है, गरीबी की महानता है, दीनता का गौरव है, गुणगान है। मैं कहना चाहता हूं, कि इस मुल्क की जो गरीबी है, इस मुल्क की गरीबी का कारण पूंजीपति का होना तो है ही, इस मुल्क की गरीबी के जो दूसरे कारण हैं, वे कारण मद्देनजर हो जाते हैं, सिर्फ एक ही खयाल सामने रह जाता है कि किसी तरह शोषण बंद हो जाए, तो सब गरीबी मिट जाएगी।
हमारे जैसे मुल्क में जहां पोलिटिकल ताकत राज्य के हाथ में इस बुरी तरह से उपयोग हो रही है, वहां उसके हाथ में सारी आर्थिक व्यवस्था की ताकत भी पहुंचा देना, यह दोहरा खतरा खड़ा कर लेने का काम होने वाला है। एक तो सच यह है कि जब राज्य के हाथ में दोनों ताकतें एक साथ इकट्ठी हो जाएं, तो उसके हाथ में देश की संपत्ति की मालकियत भी चली जाए, और देश की राजनीतिक ताकत भी उसके हाथ में चली जाए, तो हम राज्य को इतनी ताकतें दे रहे हैं, जो ताकतें खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं। खतरनाक सिद्ध हुई हैं।
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जरूरत तो यह है कि राज्य के हाथ से ताकत धीरे-धीरे कम हो। एफ्लुएंट सोसाइटी की जरूरत है कि हमारे पास इतनी समृद्धि हो कि संपत्ति बांटना किसी भी तरह की कठिनाई की बात न रह जाए। किसी को राजी करने की जरूरत ही न हो कि संपत्ति बांटने के लिए आप राजी हो जाएं। बल्कि हमें संपत्ति रखना मुसीबत का कारण हो जाए। उसे बांटना ही सरल हो जाए।
जब पूंजी इतनी ज्यादा हो जाए कि उसको इकट्ठा करना पागलपन हो। जैसे कि आज हवा बहुत ज्यादा है, तो आप अपने घर में हवा बंद करके नहीं रखते। हम कहते हैं, भई जिसको बंद करना हो, वह बंद करके रख ले, कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन कोई बंद करके नहीं रखता। क्योंकि बंद की तो और सड़ जाएगी।
खिड़की खुली रखो, वह आ ही जा रही है। लेकिन कल अगर हवा कम हो जाए, आक्सीजन कम हो जाए, तो जिसके पास सुविधा है वह हवा बंद कर लेगा, जिसके पास सुविधा नहीं है, वह मरने लगेगा बिना हवा के। न्यून चीजें जब तक हैं, तब तक व्यक्तिगत दावे का सवाल उठता है। जब चीजें इफरात हो जाती हैं तो सवाल नहीं उठता। तुम अभी एक अपनी कार पर मालकियत रखते हो कि यह मेरी कार है। लेकिन कल अगर हर आदमी के पास कार हो जाए, तो क्या कहने का मतलब है कि मेरी कार है? कोई मतलब नहीं है। वह है मेरी कि नहीं है, कोई पूछता भी नहीं, कोई मतलब नहीं। मेरे का जो मजा है वह तभी तक है।
– ओशो (सौजन्य-ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)