वैसे तो पूरा विश्व उपलब्धियों की दृष्टि से प्रतिदिन नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर रहा है और इन कीर्तिमानों का तरह-तरह से प्रचार-प्रसार भी किया जा रहा है। अधिकांश मामलों में तो यह भी देखने को मिलता है कि उपलब्धियों के प्रचार-प्रसार के लिए बिधिवत जन संपर्क कंपनियों का सहारा भी लिया जा रहा है। उपलब्धियों का प्रचार-प्रसार चाहे राष्ट्रीय स्तर पर हो, प्रदेश स्तर पर हो, सामाजिक या सामूहिक स्तर पर हो या फिर व्यक्तिगत स्तर पर हो। अपने व्यक्त्तिव को निखारने के लिए लोग तमाम तरह से प्रयास कर रहे हैं किन्तु जब गंभीरता से विश्लेषण की बात आती है तो तमाम मामलों में अंदर से खोखलापन ही नजर आता है। उसकी तह में जाया जाये तो एक कहावत बिल्कुल सटीक बैठती है कि असलियत छुप नहीं सकती, बनावट के वसूलों से, खुशबू आ नहीं सकती कागज के फूलों से।
कहने का आशय यही है कि जब व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र की कथनी-करनी में अंतर होगा तो समस्याएं उत्पन्न होंगी ही। यह सब लिखने का मेरा आशय इस बात से है कि ऊपरी चमक-दमक एवं ऐशो-आराम की जिंदगी देखकर लगता है कि लोग एवं पूरा विश्व बहुत सुखी, संपन्न एवं समृद्ध है किन्तु सही मायनों में देखा जाये तो बाहरी तौर पर संपन्नता एवं प्रसन्नता का जो वातावरण दिखाई दे रहा है क्या वह वास्तविक रूप से भी है? इतनी तरक्की होने के बावजूद तमाम लोगों में हताशा, निराशा, तनाव, बेचैनी, अवसाद जैसी तमाम समस्याएं क्यों देखने को मिल रही हैं? सर्व दृष्टि से संपन्न एवं प्रभावशाली लोग भी आत्म हत्या के लिए क्यों विवश हो रहे हैं? व्यक्तिगत स्तर की बातें यदि छोड़ दी जायें तो समाज में जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद, संप्रदायवाद, आतंकवाद, अलगाववाद, परिवारवाद और यहां तक कि गोत्रवाद तक के नाम पर लड़ाई-झगड़े एवं तनाव आये दिन देखने को मिलते रहते हैं। इन बातों से यदि ऊपर उठा जाये तो वैश्विक स्तर पर भी तमाम तरह की समस्याएं देखने एवं सुनने को मिलती रहती हैं।
हाल-फिलहाल की घटनाओं पर नजर डाली जाये तो वर्चस्व की लड़ाई में यूक्रेन का संकट पूरे विश्व को चिंता में डाल रहा है। यूक्रेन में दूसरे देशों के जो लोग बसे हुए हैं, उनमें अफरा-तफरी का माहौल देखने को मिल रहा है। यूक्रेन के पहले अफगानिस्तान, ईराक, सीरिया एवं अन्य देशों में तबाही का मंजर भी पूरी दुनिया ने देखा है। इन तनावों के अलावा प्रकृति से संबंधित विभिन्न प्रकार की समस्याएं समय-समय पर देखने-सुनने को मिलती रही हैं और आगे भी मिलती रहेंगी।
अब सवाल यह उठता है कि लोगों के जीवन में व्यक्तिगत स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक जो भी समस्याएं हैं, क्या उनसे निपटने का कोई तरीका है? इस संबंध में गंभीरता से यदि विचार किया जाये तो सभी धर्मों में तमाम अच्छी-अच्छी बातें कही गई हैं किन्तु जो बातें कही गयी हैं, क्या उन्हें जीवन शैली में परिवर्तित करने या दैनिक जीवन में अमल में लाने के लिए प्रेरित किया गया है। यदि प्रेरित किया भी गया है तो उस पर अमल के लिए दबाव भी डाला गया है।
विभिन्न धर्मों में अच्छी बातों को अपनी जीवन शैली में ढालने की दृष्टि से देखा जाये तो जैन धर्म पर आधारित जैन जीवन शैली आज भी काफी प्रासंगिक है। मेरा तो व्यक्तिगत रूप से मानना है कि वर्तमान समय में जैन जीवन शैली पहले की अपेक्षा और भी अधिक प्रासंगिक है। जैन जीवन शैली से मेरा तात्पर्य इस बात से बिल्कुल भी नहीं है कि जिन्हें इस जीवन शैली के अनुरूप जीवन जीना है, उन्हें जैन धर्म का पालन भी करना होगा। यहां बात सिर्फ यह है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म से संबंधित हो, यदि वह जैन जीवन शैली के अनुरूप आचरण एवं व्यवहार करता है तो निश्चित रूप से समाज में व्याप्त तमाम समस्याओं का समधान हो सकता है।
जैन जीवन शैली के बारे में जानने से पहले यह जानना आवश्यक है कि जैन धर्म वेदों पर आधारित नहीं है क्योंकि यह धर्म वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करता। जैन शब्द की उत्पत्ति ‘जिन’ शब्द से हुई है जिसका निर्माण संस्कृत की ‘जी’ धातु से हुआ है, जिसका अर्थ है ‘जीतना’ अर्थात जो व्यक्ति अपनी इच्छाओं एवं वासनाओं को जीत ले या अपने वश में कर ले वह जिन या जैन कहलाता है। जैन मत वाले 24 तीर्थंकरों में विश्वास करते हैं और उन्हीं की पूजा-अर्चना करते हैं। इनमें पहले तीर्थंकर श्रृषभदेव जी थे तथा 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी जी थे, जिनका जीवन काल 599 से 527 ईसा पूर्व तक माना जाता है।
महावीर स्वामी जी की बातों पर ध्यान दिया जाये तो बहुत सारी बातें अपने आप स्पष्ट हो जाती हैं। जैन धर्म एवं जैन जीवन शैली के मूलमंत्र की बात की जाये तो वह है- ‘जियो और जीने दो’ एवं ‘अहिंसा परमो धर्मः।’ आज के इस हिंसक, भोग विलास और इन कारणों से प्रदूषित युग में जैन धर्म संपूर्ण विश्व को अहिंसक जीवन शैली, भोगों के कारण होने वाले नुकसान और पर्यावरण की रक्षा करना सिखाता है। इस दुनिया के विवादों का हल इसी मूल मंत्र में निहित है। अणुबम के डर का निवारण जैन धर्म के अणुव्रतों से हो सकता है। दूसरे धर्मों की इस दृष्टि से बात की जाये तो वे अपने अनुयायियों या संपूर्ण मानव जाति के कल्याण की बात करते हैं जबकि जैन धर्म सृष्टि के समस्त जीवों के कल्याण एवं रक्षा की बात करता है।
जैन जीवन शैली की बिधिवत व्याख्या की जाये तो, भगवान महावीर ने जीवन के जो प्रमुख सूत्र बताये हैं, उसी पर आधारित है। भगवान महावीर जी का एक प्रमुख सूत्र था कि हमारे जीवन में घृणा का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। इस सूत्र का सीधा सा अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति किसी से घृणा न करे और प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ समानता का व्यवहार करे। यदि विश्व के सभी मानव भगवान महावीर के बताये इस सूत्र को अपनी जीवन शैली का हिस्सा बना लें तो क्या किसी भी रूप में तकरार या तनाव की स्थिति उत्पन्न हो सकती है? क्या कोई भी व्यक्ति विकास की रफ्तार में एक दूसरे से आगे निकलने के लिए अन्य किसी को धक्का मारने के लिए प्रेरित होगा? निष्पक्षता से मंथन किया जाये तो संभवतः इस बात का जवाब नहीं में ही मिलेगा।
जैन जीवन शैली का एक सबसे महत्वपूर्ण सूत्र है- शांत वृत्ति यानी जीवन में न आवेश हो और न उत्तेजना। जैसे को तैसा वाली भावना न हो। लोग इस सूत्र को अपनी जीवन शैली का हिस्सा बना लें और अपने बच्चों को बचपन से इन्हीं वातों को समझाते हुए संस्कारी बनाने का प्रयास करें तो क्या किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न हो सकती है? जैन जीवन शैली में इस बात पर जोर दिया गया है कि हर दृष्टि से मन की शांति को जीवन में कैसे उतारें? अर्थात हमारी जीवन शैली में सदा कर्तव्यों का बोध तो हो किन्तु सिर पर आवेश का भी भाव न हो। इस भाव को यदि अपनी जीवन शैली का हिस्सा बना लिया जाये तो दुखी एवं बेचैन होकर दर-दर भटकने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
जैन जीवन शैली के अंतर्गत एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘श्रममय एवं श्रम युक्त जीवन’ सभी को अपनाना चाहिए यानी प्रत्येक व्यक्ति को स्वावलंबी होकर अपनी मेहनत-परिश्रम से दाल-रोटी की व्यवस्था करनी चाहिए। वैसे भी देखा जाये तो जैन जीवन शैली में स्वावलंबन को व्रत के रूप में स्वीकार किया गया है। जैन जीवन शैली में इसे सिर्फ स्वीकार ही नहीं किया गया है बल्कि इस पर अमल भी होता है। पूरे विश्व में यदि सभी मानव अपने जीवन में श्रम और स्वावलंबन को अपना लें तो किसी के साथ लूटपाट, धोखाधड़ी, छीना-झपटी और चोरी-डकैती की घटनाएं ही समाप्त हो जायेंगी। वास्तव में इस सूत्र को जीवन में अपना कर तमाम समस्याओं से निपटा जा सकता है।
अति भौतिकतावाद के कारण प्राकृतिक संसाधन दांव पर
जैन जीवन शैली का एक बहुत ही महत्वपूर्ण सूत्र है ‘अहिंसा’। भगवान महावीर ने पूरी दुनिया को अहिंसा का संदेश दिया और उन्होंने ‘अहिंसा परमो धर्मः’ को सबसे बड़ा धर्म माना। भगवान महावीर का स्पष्ट संदेश है कि किसी भी जीव के प्रति हम जिस प्रकार का भाव रखेंगे, उसका भाव भी हमारे प्रति वैसा ही बनता जायेगा। उदाहरण के तौर पर मात्र दो महीने के नवजात शिशु को यदि मारने के लिए हाथ उठाया जाये तो वह सहम उठता है और यदि उसे प्यार करने के लिए हाथ आगे बढ़ाया जाये तो वह प्रसन्न हो जाता है। इस बात का आशय यह है कि जब दो माह के बच्चे में ऐसा भाव आ सकता है तो अन्य लोगों एवं जीव-जन्तुओं में क्यों नहीं आ सकता? इसका सीधा सा अभिप्राय यह है कि अहिंसा के रास्ते पर चलकर दुनिया की समस्त समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। यह भी अपने आप में सत्य है कि ऐसा सिर्फ जैन जीवन शैली को अपना कर ही किया जा सकता है।
जैन जीवन शैली का एक बेहद महत्वपूर्ण सूत्र है कि इच्छाओं की सीमाओं का निर्धारण। आज विश्व की परिस्थितियों का मूल्यांकन किया जाये तो तमाम विवादों की जड़ में इच्छाओं का असीमित होना ही है। वैसे भी व्यक्ति की इच्छाओं की कोई सीमा नहीं है। तमाम मामलों में देखने को मिल रहा है कि असीमित इच्छाएं व्यक्ति को पतन के गर्त में भी डाल देती हैं। जहां तक इस संबंध में मानव जाति की बात की जाये तो उसने पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, नदी, पहाड़, प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों तक किसी को भी नहीं छोड़ा है। मानव जाति की असीमित इच्छाओं के कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ रहा है और उसी के परिणाम स्वरूप प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। वास्तव में यदि हम सभी यह चाहते हैं कि दुनिया में अमन-चैन कायम रहे तो अपनी इच्छाओं की सीमा तो तय करनी ही होगी अन्यथा समस्याओं के चक्रव्यूह से निकलना असंभव हो जायेगा।
इन सबके अतिरिक्त व्यसनमुक्त जीवन जैन जीवन शैली का अत्यंत प्रमुख सूत्र है। व्यसनमुक्त जीवन शैली का आशय इस बात से है कि व्यक्ति नशीले पदार्थों से दूर रहेगा। इसके साथ-साथ जुवा भी नहीं खेलेगा परंतु आज देखने को क्या मिल रहा है? काफी संख्या में युवा पीढ़ी तो जैन जीवन शैली के इस सत्य को अपनाने के बजाय भटकाव के रास्ते पर है किन्तु अब आवश्यकता इस बात की है कि व्यसनमुक्त जीवन के लिए लोगों एवं युवा पीढ़ी को प्रेरित किया जाये। इससे तमाम तरह की बुराइयां एवं समास्याएं समाज से अपने आप दूर हो जायेंगी। उपरोक्त बातों पर यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जैन जीवन शैली की प्रासंगिकता अब पहले से और अधिक हो गई है।
विनाश के कगार पर खड़ी धरती को बचाने की जिम्मेदारी हम सबकी है। यहां एक बात बहुत महत्वपूर्ण है कि जैन जीवन शैली के जो प्रमुख सूत्र हैं उन्हें हर कोई अपने जीवन में अपना सकता है, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो क्योंकि ये सभी सूत्र पूजा पद्धति से संबंधित होने के बजाय जीवन शैली से संबंधित हैं। वास्तव में इस जीवन शैली को अपनाने से किसी भी व्यक्ति को जीवन का रहस्य समझ में आ जायेगा और वह दिखावटी एवं आडंबरयुक्त जीवन शैली के भंवरजाल में कभी नहीं फंसेगा। मुझे यह बात कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि जो कोई जैन जीवन शैली को अपने जीवन में ढाल लेगा, वह न तो बेवजह सुख-सुविधाओं के जाल में उलझेगा और न दूसरों को उलझने देगा।
वाणी, व्यवहार और आचार-विचार की दृष्टि से देखा जाये तो 2200 साल पहले पूरे विश्व में जैनों की संख्या 40 करोड़ थी जो अब महज 70 लाख है। इस प्रकार इसमें काफी गिरावट देखने को मिली है। 2200 साल पहले जनसंख्या की दृष्टि से देखा जाये तो जैन जीवन शैली अपनाने वालों की संख्या बहुत अधिक थी, जिसमें निरंतर कमी होती गई। इस बात का आशय यही है कि नैतिकता-अनैतिकता, नीति-अनीति एवं धर्म-अधर्म की व्याख्या किये बिना जीवन में एक दूसरे से आगे निकलने की जो होड़ मची हुई है, उसे जैन जीवन शैली के माध्यम से न सिर्फ रोका जा सकता है बल्कि स्वस्थ, समरस एवं सर्व दृष्टि से उत्तम व्यक्ति, परिवार, समाज एवं राष्ट्र का निर्माण भी किया जा सकता है और इसी रास्ते पर चलकर संसार की समस्त समस्याओं का निदान भी संभव है।
– अरूण कुमार जैन (इंजीनियर)