भारत सहित पूरे विश्व ने खूब तरक्की की है। मानव चांद तक न सिर्फ पहुंच चुका है बल्कि वहां बसने का सपना भी देखने लगा है। टेक्नोलाॅजी का अत्यधिक विकास होने के कारण मानव का जीवन सुखमय एवं आसान हो गया है। यह अलग बात है कि लोगों का जीवन जितना आसान हुआ है, बीमारियों ने उसी गति से मानव जीवन में अपनी पकड़ मजबूत बना ली है। किसी जमाने में जो काम मनुष्य स्वयं करता था, उनमें से अधिकांश कार्य आज मशीनों एवं अन्य आधुनिक उपकरणों से होने लगे हैं। प्राकृतिक सांसों के साथ-साथ कृत्रिम सांस की भी जरूरत पड़ने लगी है। कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक टेक्टनोलाॅजी का बोलबाला है। ऊंचे-ऊंचे पर्वतों पर व्यक्ति आसानी से पहुंचने लगा है। पहाड़ियों एवं घाटियों में सड़कों का जाल बिछ चुका है किन्तु उसके बावजूद सर्वत्र तकलीफें बढ़ती ही जा रही हैं।
यह सब लिखने का मेरा मूल आशय यह है कि मानव का जीवन इतना सुखमय किसकी बदौलत हुआ है? इतनी तरक्की कैसे हो रही है? आखिर यह सब किसकी कीमत पर हो रहा है? गहराई से यदि इस पर विचार किया जाये तो यह भी देखने में आता है कि इतनी तरक्की के बाद चारों तरफ परेशानियां क्यों बढ़ रही हैं? पूरे विश्व में प्राकृतिक आपदायें क्यों बढ़ती जा रही हैं? नयी-नयी बीमारियां क्यों आ रही हैं? तमाम सुख-सुविधाओं एवं ऐशो-आराम की जिन्दगी के बाद लोग बीमारियों की चपेट में क्यों आ रहे हैं?
आज इन सब बातों पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है कि इस विकास की कीमत हमें किस रूप में चुकानी पड़ रही है? वास्तव में इसकी जड़ में जायें तो स्पष्ट तौर पर देखने में आता है कि भौतिकतावाद जिस गति से आगे बढ़ा है, उसी गति से प्राकृतिक संसाधन भी दांव पर लगे हैं यानी भौतिकतावाद की अति चाहत से प्राकृतिक संसाधनों को काफी क्षति पहुंची है। इस संदर्भ में देखा जाये तो आज विश्व में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जितने भी युद्ध हो रहे हैं, उसके पीछे प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा जमाने की मंशा ही है। यूक्रेन, ईराक, ईरान, अफगानिस्तान, तिब्बत, सीरिया, लीबिया सहित तमाम देशों में जितने भी युद्ध या तनाव देखने को मिले हैं, उसके पीछे कहीं न कहीं से महाशक्तियों की ही भूमिका नजर आयेगी।
चूंकि, महाशक्तियां अपने देश के साथ-साथ अन्य देशों पर भी प्रभाव जमा कर प्राकृतिक संसाधनों को अपनी गिरफ्त में लेकर अपना अर्थतंत्र मजबूत करना चाहती हैं। प्राकृतिक संसाधनों को यदि मोटे तौर पर परिभाषित किया जाये तो कहा जा सकता है कि प्रकृति ने मानव को मुफ्त में जो कुछ भी दिया है, उसे ही प्राकृतिक संसाधन कहा जाता है। जंगल, पहाड़, नदी, जमीन, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी या जमीन के नीचे खनिज पदार्थ एवं तेल आदि प्रकृति प्रदत्त प्राकृतिक संसाधन हैं। अब यह आसानी से समझा जा सकता है कि महाशक्तियां किस देश में जाकर क्या हासिल करना चाहती हैं?
अब सवाल यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में तो पूरा विश्व लगा है किन्तु प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की एक सीमा है। यदि इसे रोका नहीं गया तो किसी दिन स्थिति बहुत भयावह हो सकती है? यह बात सभी को पता है कि प्रकृति का अपना एक नियम है। प्रकृति यानी क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु, भारतीय संस्कृति में इसे ही मुख्य रूप से प्रकृति माना गया है। इन पंच तत्वों के बिना मानव जीवन संभव नहीं है। व्यक्ति का पूरा अस्तित्व ही इन्हीं पंच तत्वों पर आधारित है। जीवन का अंत होने पर जीव पर इन्हीं पंच तत्वों में विलीन भी हो जाता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मानव जीवन का अस्तित्व तभी तक है, जब तक प्रकृति का संतुलन बरकरार है।
अब मूल प्रश्न यह है कि प्रकृति द्वारा मुफ्त में प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तो सर्वत्र हो रहा है किन्तु इसका संरक्षण-संवर्धन कैसे हो सकता है, इस दृष्टि से देखा जाये तो प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण-संवर्धन की व्याख्या जितने व्यापक तौर पर भारतीय सभ्यता-संस्कृति में की गई है, वैसी दुनिया की किसी संस्कृति में नहीं मिल सकती है। भारतीय संस्कृति की बात की जाये तो इसमें पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, पर्वत, नदियों आदि सभी के पूजने की व्यवस्था है। यह सिर्फ इसलिए है जिससे मानव जीवन भी सुगमता पूर्वक चलता रहे और प्रकृति भी संतुष्ट रहे अन्यथा प्रकृति की जब जरा सी भृकुटि टेढ़ी होती है तो अनर्थ हो जाता है।
वैश्विक महामारी कोरोना का प्रकोप जब पूरी दुनिया में चरम पर पहुंचा तो उसे मात देने में सिर्फ भारतीय सभ्यता-संस्कृति और भारतीय जीवनशैली ही कामयाब रही अन्यथा दुनिया के विकसित देश, जिन्हें अपनी स्वास्थ्य सेवाओं पर बड़ा गुमान था, उनके भी हाथ-पांव फूल गये। वैसे भी मानव को इस बात का विचार करना चाहिए कि प्रकृति ने उसे जब सब कुछ मुफ्त में दिया है तो, उतना ही उपयोग में लेना चाहिए जितनी की आवश्यकता हो किन्तु यहां तो देखने में आता है कि प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकारी अमला जाता है तो उन पर गाड़ियां चढ़ा दी जाती हैं और उनकी हत्या तक कर दी जाती है।
भारत के कई प्रांतों में इस तरह की कई घटनाएं देखने-सुनने को मिल चुकी हैं। पंजाब, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में अवैध खनन के मामले देखने-सुनने को मिलते रहते हैं। प्रकृति के संरक्षण-संवर्धन की दृष्टि से भारत के त्यौहारों की बात की जाये तो वे प्रकृति के अनुरूप हैं। होली, दीवाली, छठ पूजा, मकर संक्रांति, नवरात्रि, बसंत पंचमी, कार्तिक पूर्णिमा, वट पूर्णिमा, अन्न कूट, गोवर्धन पूजा, हरियाली तीज, एकादशी, गंगा दशहरा आदि पर्वों में प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन का ही भाव छिपा हुआ है। छठ पूजा का पर्व पूर्वांचल से निकल कर जबसे देश एवं दुनिया के तमाम भागों में पहुंचा है तबसे लोगों को इस बात की जानकारी मिलने लगी है कि प्रकृति संरक्षण का यह बहुत बड़ा पर्व है। नागपंचमी की यदि बात की जाये तो स्पष्ट रूप से इसका एक संदेश यह है कि सांपों का भी अस्तित्व बना रहे। भारतीय संस्कृति में तो सांपों को नाग देवता कहा गया है। गोवर्धन पूजा के माध्यम से पर्वतों के संरक्षण का संदेश दिया गया है।
भारतीय संस्कृति में हमारे ऋषि-मुनियों ने अपने शोध, ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर यह भी बता दिया है कि किस मौसम में क्या खाया जाये और कैसे रहा जाये? क्या न खाया जाये, इन सब बातों की विधिवत जानकारी हमारी संस्कृति में दी गई है। भारतीय संस्कृति में जो भी जीवनशैली विकसित हुई है, उसके बारे में एक बात यह कही जाती है कि वह पूरी तरह वैज्ञानिक है।
विज्ञान की बात की जाये तो भौतिक विज्ञान में न्यूटन की गति का तृतीय नियम कहता है कि ‘हर क्रिया की समान और विपरीत क्रिया होती है।’ अतः मानव को कोई कार्य करने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि उसका परिणाम उसी के अनुरूप आयेगा, जैसा कि उसने कार्य किया है। भारतीय संस्कृति में इस बात की विधिवत व्याख्या है कि गंभीर से गंभीर बीमारियों का इलाज प्रकृति द्वारा प्रदत्त जड़ी-बूटियों से हो सकता है। इसका उदाहरण हमें त्रेता युग में उस समय भी देखने को मिला जब लंका में युद्ध के दौरान लक्ष्मण जी घायल होकर मूर्छित हो गये थे और सुषेन वैद्य के निर्देशानुसार हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने गये थे। यहां गौरतलब यह है कि हनुमान जी जब संजीवनी बूटी के लिए आगे बढ़े तो उन्होंने वहां सबसे पहले वहां की सभी दृृश्य एवं अदृश्य शक्तियों को प्रणाम किया और फिर संजीवनी बूटी से अनुनय-विनय किया, तब जाकर संजीवनी बूटी का प्रभु हनुमान जी को दर्शन हुआ।
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यह सब लिखने के पीछे का भाव यही है कि उस समय प्रकृति के प्रति कितना श्रद्धा भाव था? द्वापर युग में 18 दिनों का महाभारत का जो भीषण युद्ध हुआ, उसमें जो भी लोग घायल हुए, सभी का इलाज प्राकृतिक जड़ी-बूटियों से ही हुआ था यानी हमारी ऐसी कोई भी समस्या नहीं है, जिसका समाधान प्रकृति प्रदत्त संसाधनों से न हो सके। आज मानव को यह सोचने की आवश्यकता है कि जब जल, जंगल और जमीन से ही जीवन है तो उसकी हर स्तर से रक्षा करनी होगी। जब ये नहीं रहेंगे तो जीवन भी नहीं रहेगा और जब जीवन नहीं रहेगा तो बिजली, सड़क, महल आदि किस काम के? नदियों के किनारे यदि आलीशान होटल एवं महल बनेंगे तो बाढ़ का प्रकोप झेलना ही होगा। जंगलों की अंधाधुंध कटाई होगी तो सूखा-बाढ़ एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं को झेलना ही होगा।
भारतीय संस्कृति की यदि बात की जाये तो इसमें एक वृक्ष की मनुष्य के दस पुत्रों से तुलना की गई है। पीपल, नीम और अन्य पेड़ों की पूजा भारतीय संस्कृति में इसलिए की जाती है क्योंकि ये वृक्ष प्राण वायु यानी आक्सीजन छोड़ते हैं। मानव जीवन के लिए शुद्ध प्राण वायु का कितना महत्व एवं उपयोगिता है, इसे कोरोना काल में पूरी दुनिया ने देखा है। छोटे से तुलसी के पौधे की बात की जाये तो वह मनुष्य को सबसे अधिक प्राण वायु अक्सीजन देता है। इसके अतिरिक्त तुलसी के पौधे में अनेक औषधीय एवं अन्य प्रकार के गुण भी हैं। इस प्रकार यदि देखा जाये तो प्रकृति द्वारा निर्मित सभी जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों आदि का बहुत महत्व है। सभी का किसी न किसी रूप में बहुत उपयोग है।
वैसे भी यदि प्राकृतिक संसाधनों की बात की जाये तो वे सीमित हैं। यदि इनका उपयोग असीमित तरीके से होगा तो समस्या उत्पन्न होगी ही। धरती से कच्चे माल निकालना, वनों का सफाया, नदियों के किनारे अतिक्रमण, हरी-भरी धरती को आघात पहुंचाना, पृथ्वी एवं नदियों को जैविक कूड़ा-कचरा से भरना आदि तमाम कार्य ऐसे हैं जो मानव को विनाश के गर्त में ले जायेंगे।
प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण-संवर्धन की दृष्टि से यदि देखा जाये तो सब कुछ सिर्फ बड़े कार्य करके ही नहीं किया जा सकता है बल्कि छोटे-छोटे कार्यों एवं उपायों से भी प्रकृति संरक्षण-संवर्धन में अपना योगदान दिया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर कोशिश यह होनी चाहिए कि बरसात की एक-एक बूंद का संरक्षण किया जाये। घर-परिवार में कोई मांगलिक अवसर आये तो पेड़-पौधे लगाये जायें, जिससे मांगलिक अवसरों को यादगार बनाया जा सके। घर में जहां कहीं भी छोटी-बड़ी जगह उपलब्ध हो, वहां गमले में वनस्पतियां उगायी जायें, इससे आस-पास का वातावरण हमेशा शीतल रहेगा। जब वातावरण शीतल होगा तो ग्लोबल वार्मिंग से बचने में सहायता मिलेगी।
कुल मिलाकर कहने का भाव यही है कि भविष्य में समस्याएं और अधिक विकराल न हों। मानव सुख-चैन से रह सके, आये दिन अस्पतालों के चक्कर लगाने के बावजूद स्वस्थ महसूस न कर सके तथा अन्य अनेक समस्याओं से बचने के लिए एक मात्र विकल्प यही है कि प्रकृति की शरण में रहकर जीवन की सभी जरूरतें वहीं से पूरी की जायें। इसी में मानव जाति का कल्याण है। आज नहीं तो कल, इस रास्ते पर मानव जाति को आना ही होगा, क्योंकि इसके अलावा कोई अन्य विकल्प भी नहीं है।
– सिम्मी जैन